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बदलाव की बात, प्रत्याशियों की परंपरागत शुरुआत

सार

विधानसभा चुनाव की नामांकन प्रक्रिया प्रारंभ होने के एक सप्ताह पहले 144 प्रत्याशियों की कांग्रेस द्वारा घोषित सूची प्रथम दृष्टि में कमलनाथ का फील दे रही है. सर्वे के नाम पर कांग्रेस के दूसरे गुटों को किनारे किया गया है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस के नए महासचिव रणदीप सुरजेवाला के ज़रिये कमलनाथ ने प्रत्याशियों की सूची में तो बहुमत का आंकड़ा प्राप्त कर लिया है.

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विस्तार

कांग्रेस की पहली सूची पुरानी सोच, पुरानी शैली, पुरानी गुटबाजी, डील की पुरानी परंपरा, प्रतिद्वंदियों को निपटाने की परंपरागत स्टाइल से भरपूर है. विक्रांत भूरिया को टिकट देकर आदिवासी मुख्यमंत्री के संभावित चेहरे कांतिलाल भूरिया को मैदान से ही बाहर कर दिया गया है. हारी हुई सीटों पर दिग्विजय सिंह को कमल-ताज संतुलन की सीमा तक ही एडजस्ट किया गया है. दिग्विजय की चाणक्य नीति को पूरी तौर से तो कमलनाथ भी भेद नहीं सकते हैं. वर्तमान विधायकों को रिपीट करना कांग्रेस की मज़बूरी ही लगती हैं. कई विधायक जिनकी छवि पार्टी के लिए नुकसानदेह है उन्हें भी टिकट दिए गए हैं.

इस सूची में परिवारवाद की स्थितियां तो टिप्पणी से ऊपर है. प्रत्याशियों की सूची के साथ ओबीसी, एससी, एसटी, महिला और अल्पसंख्यक प्रत्याशियों का वर्गीकरण भी राजनीतिक दलों का परंपरागत तरीका बन गया है. एससी, एसटी की आरक्षित सीटों पर तो उन्हीं वर्गों को ही टिकट मिलेगा. फिर उनके आंकड़े अलग से उल्लेखित करने का क्या औचित्य है? 

राहुल गांधी की जातिगत जनगणना की चुनावी राजनीति में विशेष तो तब होता जब आरक्षित सीटों के अलावा इन वर्गों के प्रत्याशी सामान्य सीटों से भी उतारे गए होते. ओबीसी राजनीति की बातें तो कांग्रेस बहुत कर रही है लेकिन प्रत्याशियों के चयन में ओबीसी के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती है.

यदि राहुल गांधी और कांग्रेस ओबीसी के लिए अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता की ईमानदारी बताना चाहते हैं तो कम से कम 27 प्रतिशत प्रत्याशी ओबीसी से उतारना चाहिए. इसमें से 33 प्रतिशत ओबीसी महिलाओं को अवसर देकर नारी वंदन कानून में ओबीसी आरक्षण की अपनी मांग को कांग्रेस नैतिक बल प्रदान कर सकती थी. 

महिलाओं को कम से कम 33 प्रतिशत सीटें देने की शुरुआत इसी चुनाव से करके राहुल गांधी अपनी राजनीतिक ईमानदारी प्रदर्शित कर सकते थे. ओबीसी और महिला प्रत्याशी के नजरिये से भी कांग्रेस का अप्रोच इस सूची में परंपरागत ही दिखाई पड़ रहा हैं. कोई नया प्रयोग नहीं किया गया है. 

कांग्रेस की पहली सूची आंतरिक असंतोष की पूरी संभावनाओं से भरपूर है. अनेक सीटों पर गुटीय  नेताओं की छाप चुनाव परिणाम में दिखाई पड़ेगी. केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को उतारकर बीजेपी ने चौंकाया था. कांग्रेस की सूची पर ऐसी ही प्रतिक्रियाएं आ रही हैं कि यह तो होना ही था. 

केपी सिंह को शिवपुरी से लड़ाना कांग्रेस की मज़बूरी है या सीट बदलना उनकी इच्छा, यह तो परिणाम ही साबित करेगा. कांग्रेस में हमेशा की तरह प्रत्याशियों की सूची आते ही इस बार भी सर्वाधिक चर्चा इसी बात को लेकर है कि किस नेता की चली? किस ख़ेमे को ज्यादा  टिकट मिली? और इन सवालों के परिक्षेप्य में कमलनाथ ही विजेता रहे हैं. दिग्विजय सिंह दूसरे नंबर पर कहे जा सकते हैं. बाकी नेता तो एक-आध सीट तक ही सीमित कर दिए गए हैं. 

नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह अपने दो रिश्तेदारों को टिकट दिलाने में सफल रहे हैं लेकिन उनके विरोध को दरकिनार कर कई नेताओं को टिकट दिए गए हैं. कांग्रेस की पूरी सूची आने पर ही चुनाव मैदान के धरातल की स्थिति के आकलन की बात हो सकती है. अभी तो यही कहा जा सकता है कि भाजपा के गढ़ कही जाने वाली सीटों को भेदने की बजाय कांग्रेस का फोकस अपनी सीटों को जीतने और गुटीय संतुलन में आगे निकल जाने पर है. 

77 वर्षीय कमलनाथ के नेतृत्व में जारी कांग्रेस की इस सूची को लेकर कहा जा रहा है कि इसमें 50 वर्ष से कम उम्र के 65 नाम हैं लेकिन इनमें  से भी अधिकाँश नाम आजमाए हुए है. नए युवा चेहरों के नाम लिस्ट में लगभग न के ही बराबर हैं और जो हैं वो जमीन पर संघर्ष की बजाय परिवारवाद के कारण ही दिखाई दे रहे हैं.  

मुस्लिम प्रत्याशी भी कम संख्या में उतारकर कांग्रेस  सॉफ्ट हिंदुत्व को धार देने की कोशिश करती दिखाई पड़ रही है. कांग्रेस की सूची के संकेत साफ़ हैं  कि कमलनाथ की चली है, कमलनाथ की चलेगी. कमल-चाल की इस स्पीड में 'चलो-चलो' के नए संस्करण का ख़तरा हो सकता है. कांग्रेस के युवा नेता भविष्य की प्रतीक्षा भी कर सकते हैं लेकिन जिनके पास भविष्य के लिए समय नहीं हैं वे ही फील, डील और ढील की वैतरणी में गोते खा रहे हैं.