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सीट शेयरिंग की बातें, अलग-अलग बिछती बिसातें

सार

भारत में गठबंधन की राजनीति की नई बिसात भी उधड़ने लगी है. मुंह में राम बगल में छुरी की तर्ज पर गठबंधन में शामिल सभी राजनीतिक दल अपने-अपने क्षेत्र में बातें तो गठबंधन की कर रहे हैं लेकिन जमावट अपने-अपने हिसाब से कर रहे हैं. कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बीच विश्वास का संकट साफ़ दिखाई दे रहा है..!!

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विस्तार

गठबंधन में शामिल कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों का जनाधार समान है. क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व वाले राज्यों में कांग्रेस का उभरना क्षेत्रीय दलों को नुकसान की गारंटी है. कांग्रेस स्वयं के बलबूते राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से खड़े होने की स्थिति में नहीं है. इसलिए क्षेत्रीय दलों के दबाव में झुक कर भी गठबंधन के जरिए थोड़ा बहुत हासिल करने की कोशिश कर रही है लेकिन क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीति के बहाने राज्य की राजनीति में कांग्रेस को खड़े होने देने से डरे हुए हैं. 

यही कारण है कि सीट शेयरिंग की बातें शुरू होने के पहले ही लड़खड़ाती दिखाई पड़ रही हैं. बीजेपी और कांग्रेस के सीधे मुकाबले वाली सीटों में कांग्रेस की स्थिति सबसे खराब दिखाई पड़ रही है. हाल ही में पांच राज्यों के चुनाव के नतीजों ने 2024 के परिणाम का भी संकेत दे दिया है. यूपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में कांग्रेस दो तीन सीट ही जीतने की स्थिति में दिखाई पड़ रही है.

यूपी में सपा प्रमुख विपक्षी दल है. एमपी के चुनाव में सीट शेयरिंग पर सपा और कांग्रेस के बीच हुए घमासान का असर यूपी में अब लोकसभा चुनाव में दिखाई पड़ सकता है. वैसे भी यूपी में हर सीट पर बीजेपी के सामने एक प्रत्याशी उतारने की रणनीति पहले ही फेल हो चुकी है. बसपा चूँकि कांग्रेस और उनके सहयोगियों के गठबंधन में शामिल नहीं है इसलिए उत्तर भारत के राज्यों में बीएसपी लोकसभा चुनाव में गठबंधन के औचित्य को राजनीतिक जमीन दिखाने के लिए मैदान में जरूर उतरेगी.

भारत में गठबंधन की राजनीति को सर्वाधिक नुकसान कांग्रेस द्वारा ही पहुंचाया गया है. गठबंधन की राजनीति के बहाने कांग्रेस हमेशा अपना राजनीतिक वजूद वापस पाने की कोशिश करती रही है. इंडिया गठबंधन में भी इसी तरह का उद्देश्य दिखाई पड़ रहा है. इस गठबंधन की शुरुआत बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने की थी. अब यह लगभग स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि नीतीश कुमार गठबंधन की राजनीति में अलग-थलग पड़ गए हैं. उन्हें ना तो गठबंधन का संयोजक बनाया गया है और ना ही पीएम फेस बताया गया है. ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम भावी प्रधानमंत्री के रूप में उछालकर गठबंधन की भ्रूण हत्या का इंतजाम सुनिश्चित कर दिया है. 

जब कांग्रेस का ही नेता पीएम बनेगा तो फिर क्षेत्रीय दल विशेष कर उत्तर भारत के नेता अपने अस्तित्व को संकट में डालकर कांग्रेस के लिए जमीन क्यों तैयार करेंगे? नीतीश कुमार को तो बीजेपी से भी कोई परहेज नहीं है. जदयू में जो राजनीतिक उठापटक हो रही है उसके यही संकेत निकाले जा रहे हैं कि नीतीश कुमार कोई ना कोई नया राजनीतिक दांव चलने की तैयारी कर रहे हैं. 

नीतीश कुमार जदयू के नए अध्यक्ष स्वयं बन गए हैं. पुराने राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह को पद से हटा दिया गया है. ललन सिंह लगातार बीजेपी और प्रधानमंत्री के खिलाफ आवाज उठा रहे थे. अब बदली हुई परिस्थितियों में नीतीश कुमार ऐसी संभावनाएं तलाशने की पूरी कोशिश करेंगे कि उन्हें राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के जाल से छुटकारा मिल जाए. 

यद्यपि बीजेपी के लिए यह आसान नहीं होगा कि नीतीश कुमार को फिर से एनडीए में शामिल कर लिया जाए. हालांकि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता.
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी गठबंधन में सीट शेयरिंग के नाम पर यही दावा ठोक रही हैं कि बीजेपी का मुकाबला केवल टीएमसी कर सकती है इसलिए देश के बाकी राज्यों में बाकी दल चुनाव लड़ें लेकिन बंगाल में तो टीएमसी ही चुनाव लड़ेगी. वामपंथियों के साथ उनका राजनीतिक विरोध किसी भी समझौते से ऊपर दिखाई पड़ता है. कांग्रेस के राज्य के नेता भी ममता के साथ तालमेल के खिलाफ बताए जाते हैं. ऐसी स्थिति में बंगाल में सीट शेयरिंग के नाम पर ममता गठबंधन से बाहर चली जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा.

अरविंद केजरीवाल का जनाधार दिल्ली और पंजाब में है. इन दोनों राज्यों में उनका कांग्रेस से मुकाबला है. अगर 2024 के लिए कांग्रेस को कोई भी सीट दोनों राज्यों में वह देने को तैयार हो तो ही कोई समझौता हो सकता है लेकिन ऐसा लगता हैकि केजरीवाल कोई भी सीट देने को तैयार नहीं होंगे. इंडिया गठबंधन में शामिल दलों के रिश्तों में कड़वाहट और टकराहट की इतनी परतें हैं कि एक को सुलझाने में दूसरी उलझ जाती है. अंततः गठबंधन की राजनीति के लिए चलाया गया सारा चक्कर एक ब्लेंडर के रूप में सिमट जाएगा.

महाराष्ट्र में शिवसेना उद्धव,  शरद पवार एवं कांग्रेस के बीच सीट शेयरिंग को लेकर तल्खियां तैर रही हैं. गठबंधन की बैठकें जरुर होती हैं लेकिन गठबंधन में शामिल सभी दल 2024 के चुनाव की इंडिपेंडेंट तैयारी कर रहे हैं. दिखाने के लिए तो गठबंधन में भी शामिल दिखाई पड़ते हैं लेकिन हर रणनीति और सियासी जमावट के रूप में अलग-अलग तैयारी को अंतिम रूप दिया जा रहा है.

हाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के कारण भी क्षेत्रीय दलों को यह संकेत गया है कि भाजपा के साथ सीधे मुकाबले वाले राज्यों में कांग्रेस कमजोर साबित हो रही है. क्षेत्रीय दलों के प्रभाव वाले राज्यों में कांग्रेस घुसपैठ करके गठबंधन के नाम पर अपने राजनीतिक वजूद को फिर से पाना चाहती है. इसी कारण क्षेत्रीय दल कांग्रेस से छिटकते हुए दिखाई पड़ रहे हैं.

कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ वैचारिक लड़ाई लड़ने में भी लगातार पीछे रही है. कांग्रेस का पब्लिक कनेक्ट बहुत कमजोर हो गया है. कांग्रेस राहुल गांधी में अपना भविष्य देख रही है. राहुल गांधी के साथ एक ऐसी दुर्घटना हो गई है कि उन्होंने स्वयं अपने लिए वैचारिक और समानता का एक जाल बना लिया है. यह जाल जनभावनाओं से भले ही कनेक्ट नहीं हो लेकिन वह उसमें कोई सुधार भी करने को तैयार नहीं है. भाजपा और संघ के विरोध में उनके द्वारा कई बार भारत और भारतीयता के खिलाफ भी विचार व्यक्त कर दिए जाते हैं. 

कांग्रेस की स्थापना दिवस पर नागपुर में राहुल गांधी कहते हैं कि बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारत को गुलामी की ओर ले जा रहा है. जिनका आधार ही प्रखर राष्ट्रवाद हो उन पर गुलामी की ओर ले जाने का आरोप कोई भी भारतीय विश्वास नहीं कर सकेगा. ऐसी अविश्वसनीय और अतार्किक बातें राहुल गांधी की राजनीतिक लोकप्रियता का कथित आधार बन गई है.

कांग्रेस का न्याय का अपना पैमाना है. अन्याय की अपनी परिभाषा है. भेदभाव और समानता के फॉर्मूले कांग्रेस में ही भेदभाव का कारण बन गए हैं. राहुल गांधी की वैचारिक लड़ाई कांग्रेस के पक्ष में है या इससे कांग्रेस को नुकसान हो रहा है यह देखने और समझने वाला कांग्रेस में कोई वैचारिक अंग शायद अब है ही नहीं. गठबंधन की राजनीति तभी पैदा होती है जब राष्ट्रीय राजनीतिक दल कमजोर हो जाते हैं. 

भारत में आज भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले के लिए कोई भी राष्ट्रीय दल अकेले सक्षम दिखाई नहीं पड़ रहा है. कांग्रेस अपनी इसी कमजोरी को क्षेत्रीय दलों के गठबंधन से कम करने की कोशिश कर रही है. गठबंधन राजनीति का इतिहास यही बताता है कि जब जब देश में गठबंधन हुए हैं तब तब उन्हें नुकसान पहुंचाने का काम कांग्रेस द्वारा ही किया गया है. इंडिया गठबंधन भी इसी दिशा में जाता हुआ दिखाई पड़ रहा है. यह गठबंधन नया हो सकता है लेकिन टूटने की कहानी वही पुरानी है. 

यूपी जैसे राज्य में कांग्रेस के आज के हालात की शुरुआत उस दौर में हुई थी जब कांग्रेस ने दूसरे दलों के साथ गठबंधन की राजनीति शुरू की थी. राष्ट्रीय दलों को गठबंधन की राजनीति सहयोग के रूप में तो उपयोगी हो सकती है लेकिन उसको ही आधार बनाकर राष्ट्रीय दल राजनीतिक सफलता हासिल नहीं कर सकते. राष्ट्रीय दल जब तक स्वयं अपनी मजबूती सुनिश्चित नहीं करेगा तब तक दूसरे दलों के गठबंधन की ताकत से उसे मजबूती मिलना संभव नहीं है.

कांग्रेस और गठबंधन में शामिल दूसरे दल सीट शेयरिंग की बातें भले कर रहे हों लेकिन हर राज्य में बिछात अलग-अलग बिछ रही है. अगर सीट शेयरिंग का कोई फार्मूला जम गया तो ठीक है अन्यथा हर सीट पर अलग-अलग चुनाव लड़ने की स्थिति निर्मित हो सकती हैं. कुछ भी हो लेकिन विरोधियों की गठबंधन की पॉलिटिक्स भी नरेंद्र मोदी के वर्चस्व का मुकाबला करने की स्थिति में दिखाई नहीं पड़ रही हैं. 2024 के नतीजे तो दीवार पर लिखी इबारत जैसे साफ देखे जा सकते हैं. कांग्रेस अगर उनको देख पाएगी तो फिर गठबंधन के नाम पर कम से कम अपने जनाधार को तो नुकसान पहुंचाने से परहेज करेगी.