सबसे पहले ब्रिटिश भारत में 1937 में हिंदी-विरोधी आंदोलन छेड़ा गया, भारत में जब कांग्रेस की प्रथम सरकार थी, तब भी सी. राजगोपालाचारी के नेतृत्व में आंदोलन सुर्ख हुआ, बाद में पेरियार (ईवी रामासामी) और विपक्षी न्यायमूर्ति पार्टी (बाद में द्रविड़ कषगम) ने आधिकारिक भाषा के तौर पर हिंदी का विरोध किया..!!
यूँ तो तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव अगले वर्ष 2026 में होना है, परंतु अभी से तमिलनाडु में प्रचारित हो रहा है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा, राजभाषा और उसके अध्ययन के लिए थोपा जा रहा है। तमिलनाडु और उससे पहले मद्रास प्रांत में हिंदी भाषा का विरोध बहुत पुराना है। सबसे पहले ब्रिटिश भारत में 1937 में हिंदी-विरोधी आंदोलन छेड़ा गया। भारत में जब कांग्रेस की प्रथम सरकार थी, तब भी सी. राजगोपालाचारी के नेतृत्व में आंदोलन सुर्ख हुआ। बाद में पेरियार (ईवी रामासामी) और विपक्षी न्यायमूर्ति पार्टी (बाद में द्रविड़ कषगम) ने आधिकारिक भाषा के तौर पर हिंदी का विरोध किया। संविधान निर्माण के दौरान भी यह गरम बहस का मुद्दा बना रहा। जब 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ और हिंदी को देश की आधिकारिक भाषा तय कर दिया गया, तो 1965 के बाद कुछ गैर-हिंदी राज्यों ने उसे स्वीकार नहीं किया। वे राज्य अंग्रेजी के ही उपयोग के पक्षधर थे और अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर दुराग्रही थे। 1967 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने आधिकारिक भाषा हिंदी और अंग्रेजी के अनिश्चित उपयोग के मद्देनजर आधिकारिक भाषा अधिनियम में संशोधन किए।
केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और द्रमुक नेता अन्नादुरई के बीच त्रि-भाषा फॉर्मूले पर संवाद तो हुआ, लेकिन हिंदी-विरोध के पूर्वाग्रह आक्रामक ही रहे। करीब 88 साल लंबा वक्त गुजर चुका है। शीर्षस्थ नेता दिवंगत होकर अतीत बन चुके हैं। अब विवाद केंद्र की मोदी सरकार और तमिलनाडु में स्टालिन की द्रमुक सरकार तक आ पहुंचा है। वोट बैंक का भी सवाल है। केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना सरीखे दक्षिणी राज्यों में हिंदी-विरोध के आंदोलन और पूर्वाग्रह अपेक्षाकृत कम हैं। वे उग्र भी नहीं हैं । अब केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के बीच यह मुद्दा सुलगता जा रहा है।
भारत सरकार का सहज आग्रह है कि तमिलनाडु को संवैधानिक व्यवस्था को स्वीकार करना चाहिए। लड़ाई छात्रों के नाम पर लड़ी जा रही है, लेकिन उनके शैक्षिक भविष्य और बाद में कौशलपूर्ण रोजगार पर विमर्श शून्य है। केंद्र ने ‘समग्र शिक्षा योजना’ के तहत तमिलनाडु के हिस्से के आर्थिक संसाधन फिलहाल रोक दिए हैं। यह रोक तब तक जारी रहेगी, जब तक तमिलनाडु भारत सरकार की भाषायी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता। तमिल सरकार हिंदी के अध्ययन को छात्रों पर अतिरिक्त मानसिक बोझ और ‘सांस्कृतिक आक्रमण’ करार दे रही है, लिहाजा समग्र शिक्षा के बजट को रोकना संघीयवाद का उल्लंघन मान रही है। शायद राज्य सरकार सर्वोच्च अदालत की चौखट भी खटखटाए! हालांकि हम बजट को रोकना ‘असंसदीय’ मानते हैं और इसे अनधिकार चेष्टा भी करार देते हैं। इस संदर्भ में शैक्षणिक योग्यता ही मानदंड होना चाहिए।
एक रपट में खुलासा किया गया है कि तमिलनाडु में सरकारी स्कूल की 5वीं कक्षा के 36 प्रतिशत छात्र कक्षा 2 के स्तर के पाठ्य को ही पढ़ पाते हैं, जबकि 21 प्रतिशत छात्र ही भाग का सवाल कर पाते हैं। ऐसे छात्रों का राष्ट्रीय औसत क्रमश: 49 प्रतिशत और 31 प्रतिशत है। साफ है तमिलनाडु का भविष्य कमजोर और अक्षम है। हिंदी बनाम तमिल की तुलना में यह बेहद संवेदनशील स्थिति है।