वक़्फ़ संशोधन बिल संसद से पास हो चुका है. अब इसे कानून बनने में केवल राष्ट्रपति के हस्ताक्षर की देर है. इसमें ज्यादा विलंब नहीं होगा. वक़्फ़ पर संसद में बहस में वोट बैंक की सियासत और छद्म धर्मनिरपेक्षता का पर्दाफाश हो गया है..!!
वक़्फ़ की लड़ाई हिंदू-मुस्लिम से ज्यादा गरीब और अमीर मुसलमान के बीच लड़ी जा रही है. बिल का विरोध हो रहा है, तो मुस्लिम समाज के लोग ही बिल का समर्थन कर रहे हैं. मुसलमानों से ज्यादा राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट जाने का ऐलान कर रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है, कि वक़्फ़ संशोधन बिल को सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक कसौटी को पार करना होगा. सुप्रीम अदालत से संशोधनों की वैधता अनुमोदित होने के बाद ही सही मायने में इस पर अमल हो सकेगा.
संसद में विरोध हो गया. अब सुप्रीम कोर्ट में विरोध की लड़ाई शुरु होगी. सड़कों पर लड़ाई से सबको बचना होगा. संविधान-संविधान खेलने वाले संवैधानिक आजादी का गौरव गान करने वाले, संविधान की सीमा में ही विरोध को सीमित रखेंगे तभी संविधान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता साबित होगी. वक़्फ़ संशोधन के प्रावधानों पर बहस में यह बात लगभग क्लियर हो गई है, कि कोई भी संशोधन धार्मिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर रहा है. वक़्फ़ बोर्ड और वक़्फ़ काउंसिल धार्मिक बॉडी नहीं हैं. यह वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन के लिए गठित स्टेटरी बॉडी है. इसमें जो भी बदलाव किए जा रहे हैं, उसका दृष्टिकोण वक़्फ़ में दान देने वाले दानदाताओं के धार्मिक और परमार्थिक उद्देश्यों को पूरा करना है.
वक़्फ़ संपत्तियां के नाजायज़ उपयोग, अवैध कब्जा और वक़्फ़ के नाम पर संपत्तियों को हथियाने के गैरकानूनी प्रयासों को रोकने के साथ ही गरीब मुसलमानों को वक़्फ़ का लाभ सुनिश्चित करने का पवित्र उद्देश्य दिखाई पड़ता है. संशोधन बिल को असंवैधानिक इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पूर्व में हुए संविधान संशोधन को ही संशोधित करने के लिए यह बिल लाया गया है.
संशोधन प्रस्तावों के विरोधियों को अदालत के निर्णय का इंतजार करना चाहिए. संशोधन बिल के प्रावधानों की अदालत से संवैधानिकता प्रमाणित होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए.
संसद में बहस में सरकार की ओर से जो तथ्य रखे गए उनको अतार्किक तो नहीं कहा जा सकता. उन पर अविश्वास विपक्षी राजनीति और मुसलमानों के विरोध का आधार है. अगर किसी को नीयत पर ही शक है, तो फिर अच्छाई और बुराई देखने की जरूरत ही नहीं है.
देश में वक़्फ़ संशोधन बिल पास होने की जितनी चर्चा हो रही है, उससे ज्यादा चर्चा सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की सदन में चुप्पी पर हो रही है. जिस संशोधन विधेयक को संविधान पर हमला बताया जा रहा है, धार्मिक आजादी के खिलाफ़ बताया जा रहा है, मुसलमानों की संपत्तियों पर कब्जा करने की नीयत बताया जा रहा है, उस पर नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का सदन में बोलना उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी बनती है. गांधी परिवार के किसी भी सदस्य का लोकसभा और राज्यसभा में रिकॉर्ड पर वक़्फ़ संशोधन विधेयक के खिलाफ़ कोई भी विचार इतिहास में उपलब्ध नहीं होगा.
सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए विरोध प्रदर्शित किया जा रहा है. देश यह समझने की कोशिश कर रहा है, कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने सदन में बोलने से क्यों परहेज किया. इसका कारण तो वही बता सकते हैं, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से जो कारण समझ आ रहा है, उसमें ऐसा लगता है, कि वक़्फ़ संशोधन बिल का समर्थन क्रिश्चियन समाज के लोगों द्वारा भी किया जा रहा है. केरल के कैथोलिक चर्च संगठन द्वारा इस बिल के पक्ष में राय दी गई है.
राहुल गांधी रायबरेली से पहले केरल के वायनाड से ही सांसद रहे हैं. अभी वहां से प्रियंका गांधी सांसद हैं. केरल और दक्षिण भारत में ईसाई अल्पसंख्यकों की तादात बहुत है. मुसलमान भी पर्याप्त हैं, लेकिन दक्षिण के राज्यों में ईसाई समुदाय के लोग भी मुस्लिम समाज के मुकाबले में मजबूती से खड़े हुए हैं. वहां हिंदुत्व की राजनीति अभी अपने पैर नहीं जमा पाई है. बीजेपी ने नॉर्थ ईस्ट में ईसाई समुदाय पर अपना प्रभाव स्थापित करने में सफलता हासिल की है. दक्षिण के राज्यों में भी जिस तरह से उनका वोट प्रतिशत बढ़ रहा है, उसके कारण भविष्य में बीजेपी के मजबूत होने की संभावनाएं देखी जा सकती हैं.
वक़्फ़ संशोधन बिल पर चर्च प्रशासन जिस तरह से समर्थन कर रहा है, उससे कांग्रेस खासकर राहुल गांधी और गांधी परिवार को चुप्पी साधनी पड़ी होगी. हालांकि राहुल गांधी ने लोकसभा में वक़्फ़ संशोधन बिल के विरोध में मतदान किया है.
अगर कांग्रेस 2013 में वक़्फ़ कानून में तानाशाही पूर्ण संशोधन नहीं किया होता, तो फिर बीजेपी को उसे बदलने का आज अवसर नहीं मिलता. राहुल गांधी ने वही गलती की है, जो राजीव गांधी ने शाहबानो केस और राम जन्मभूमि का ताला खुलवाने के समय की थी. कांग्रेस ने जब वक़्फ़ में अपनी सरकार में संशोधन किया था, उसके बाद चुनाव में कांग्रेस को पूरे देश में 44 सीटें मिली थीं. मुसलमान ने भी उनका समर्थन नहीं किया था. कांग्रेस अपना यह दर्द भी शायद याद कर रही होगी. कांग्रेस सदन में विरोध की औपचारिकता निभाती दिखी और अब सुप्रीम कोर्ट में लड़ने का ढोंग करने जा रही है.
वक़्फ़ कानून में तानाशाही पूर्ण संशोधन से कांग्रेस ने जो गलती की थी, उसी गलती के सहारे बीजेपी मुसलमानों के बीच अमीर-गरीब के विभाजन को खड़ा करने में सफल होती दिख रही है. पसमांदा और बोहरा मुसलमानों के बीच बीजेपी पहले से ही पैठ बनाने में लगी है. तीन तलाक का कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं को पहले ही पॉजीटिव संदेश दिया गया. अब वक़्फ़ संशोधन से गरीब मुसलमान के कल्याण का अपना एजेंडा चालू किया गया. सरकारी योजनाओं में मुसलमानों को बिना भेदभाव समानता के साथ लाभ देकर बीजेपी पहले ही गरीब मुसलमान का भरोसा अर्जित कर चुकी है.
वक़्फ़ संशोधन के विरोध के साथ ही मुस्लिम समाज से समर्थन भी हो रहा है. वह मुसलमान जो वक़्फ़ संपत्तियों पर नाजायज़ रूप से काबिज़ होकर लाभ ले रहे है, उनका विरोध तो स्वाभाविक है, लेकिन आम मुसलमान को भ्रमपूर्ण जानकारी से बचाना बीजेपी का दायित्व है.
वक़्फ़ संशोधन, राम जन्मभूमि आंदोलन से, ज्यादा मारक लगता है. इससे मुस्लिम समाज में बिखराव होना निश्चित है. वक़्फ़ से संबंधित जो मुकदमे अदालत में चल रहे हैं उसमें एक-तिहाई मुस्लिम समाज के लोग ही लड़ रहे हैं.
सुधार के अलावा कोई रास्ता नहीं है. मुसलमान को भी आत्मविश्लेषण करना होगा. कानून के राज को समझना होगा. सबको अपनी स्वतंत्रता के साथ दूसरे की स्वतंत्रता का भी सम्मान करना होगा. वक़्फ़ संशोधन पर अगर ईमानदारी से अमल हो गया तो मुस्लिम समाज में बहुत सारे कल्याणकारी बदलाव दिखाई पड़ेंगे.