कोई भी कोण समझौते और सदन की कार्यवाही के सुचारू संचालन के पक्ष में नहीं लगता, संसद अखाड़ा बनकर रह गई है..!
ग़ज़ब है देश की राजनीति बहुत से त्रिकोणो में फँस गई है, ये सारे त्रिकोण कुछ नए परिणाम देंगे, इसमें संदेह नहीं है।संसद के दोनों सदनों में हंगामे, नारेबाजी की त्रिकोणीय स्थिति है। एक त्रिकोण के एक सिरे पर भाजपा, संभल, जॉर्ज सोरोस हैं। दूसरे सिरे पर अडाणी समूह और सोनिया-राहुल गांधी हैं। तीसरे सिरे पर राज्यसभा के सभापति एवं उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव की कवायद है। कोई भी कोण समझौते और सदन की कार्यवाही के सुचारू संचालन के पक्ष में नहीं लगता। संसद अखाड़ा बनकर रह गई है।
परंतु जॉर्ज सोरोस के परोक्ष हस्तक्षेप और भारत-विरोधी सोच और ऐसे ही संगठनों को आर्थिक मदद आदि देने का मुद्दा कुछ अधिक संवेदनशील और कूटनीतिक है। संभल, उप्र की सांप्रदायिक हिंसा पर सपा संसदीय बहस की पक्षधर है, तो कांग्रेस ‘अडाणी, अडाणी’ के अलावा किसी और मुद्दे पर संसदीय दखल के मूड में नहीं है। कांग्रेस को लगता है कि इसी मुद्दे पर जनादेश मिल सकता है, हालांकि पार्टी बार-बार नाकाम रही है। अडाणी समूह भारत के सर्वोच्च औद्योगिक समूहों में एक है। उस पर लगातार प्रहार करना और उसे अपमानित करने का एजेंडा चलाना देशहित में नहीं है। लोकतंत्र के मायने वाचालता नहीं हैं।
कांग्रेस की राज्य सरकारों ने हजारों करोड़ रुपए के ठेके अडाणी समूह को दिए हैं और आज भी ऐसे ठेके कर्नाटक, तेलंगाना की कांग्रेस सरकारों में जारी हैं। अडाणी समूह की काट के लिए एक पुराना मुद्दा, संसद में भी, गूंज रहा है। जॉर्ज सोरोस और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इसमें एक ही सिक्के के दो पहलू लगते हैं। हंगरी में जन्मे सोरोस अमरीका के उम्रदराज उद्योगपति हैं। वह 600 अरब रुपए के बाजार-मूल्य के उद्योगपति हैं। उन्होंने विश्व भर में करीब 90,000 करोड़ रुपए के दान विभिन्न संगठनों को दिए हैं।
सोरोस की मदद से ही 30 देशों के 150 खोजी पत्रकारों का एक संगठन बना-ओसीसीआरपी। इस संगठन के सौजन्य से अमरीकी प्रवास के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की उस प्रेस-वार्ता का आयोजन किया गया था, जिसकी विषय-वस्तु अडाणी समूह और प्रधानमंत्री मोदी के ही इर्द-गिर्द थी। प्रधानमंत्री मोदी को कई मौकों पर ओसीसीआरपी ने ‘अलोकतांत्रिक नेता’ करार दिया। इस संगठन के जरिए जम्मू-कश्मीर में ‘फोरम ऑफ डेमोक्रेटिक लीडर्स फाउंडेशन’ बनाया गया था। सोरोस मोदी-विरोध के इस चक्रव्यूह का बुनियादी दानदाता रहा है। ओसीसीआरपी और फोरम ने जम्मू-कश्मीर को ‘अलग देश’ माना था और प्रचारित कर उसकी व्याख्या भी की थी। आपत्तिजनक मुद्दा यह है कि 1997 में सोनिया गांधी जम्मू-कश्मीर वाले संगठन की सह-अध्यक्ष थीं। वह भारत-विरोधी प्रचार और सोच के संगठन में पदाधिकारी थीं, लिहाजा देशविरोधी गतिविधियों में संलिप्त थीं।
बहरहाल हम अडाणी समूह के खिलाफ दुष्प्रचार में सोरोस की वित्तीय और अन्य भूमिकाओं को एक तरफ रखते हैं, क्योंकि यह व्यक्तिगत औद्योगिक खुन्नस का मामला भी हो सकता है। यदि सोरोस भारत-विरोधी गैर-सरकारी संगठनों को, अलग-अलग कार्यों के लिए, पैसा मुहैया कराता रहा है, तो आज तक उसकी अनुमति किन आधारों पर दी जाती रही? क्या भारत सरकार के गृह और वित्त मंत्रालयों को जानकारी नहीं रही कि सोरोस किस मकसद से कुछ संगठनों को वित्त-पोषित करता रहा है ? क्या सोरोस और भारत के गांधी परिवार के बीच कोई सांठगांठ,मिलीभगत है, बेशक वह प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ रही हो? यदि किसी भारत-विरोधी अभियान, सर्वेक्षण, दुष्प्रचार में सोनिया गांधी की सवालिया, संदिग्ध भूमिका रही है, तो मौजू सवाल यह है कि 1997 के संदर्भ की याद 2024 में ही क्यों आई? क्या वह संदर्भ आज भी प्रासंगिक है? यदि वाकई ऐसा है, तो सोनिया गांधी के खिलाफ देशविरोध का केस दर्ज किया जाए। कुछ विषय जांच के हैं। संसद में कोहराम ‘देशविरोध’ का ही काम है।