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गठबंधन का बिखरता धागा, बचेगा या टूटेगा?

सार

लोकसभा चुनाव में गठबंधन के सहारे 99 पर पहुंचे राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य का भाव यह चुनाव तय करेंगे.  हरियाणा से बिखरना चालू हुआ गठबंधन का धागा, इन चुनावों में टूटने लगा है. समाजवादी पार्टी ने यूपी उपचुनाव में कांग्रेस को अंगूठा दिखा दिया. क्योंकि हरियाणा में ऐसा ही कांग्रेस ने किया था..!!

janmat

विस्तार

    महाराष्ट्र और झारखंड में राहुल गांधी का गठबंधन चुनाव मैदान में है, लेकिन इनके बंधन का ढीलापन साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है. झारखंड में आरजेडी आंखें दिखा रही है, तो महाराष्ट्र में सपा मैदान में उतर गई है. गठबंधन के तीनों प्रमुख सहयोगी कांग्रेस, एनसीपी शरद पवार और शिव सेवा उद्धव के बीच भी कई विधानसभा सीटों पर टकराहट देखी जा रही है. 

      बगावत बीजेपी की महायुति में भी है. बागियों के कारण परिणामों में उलटफेर होने की पूरी उम्मीद है. महाराष्ट्र में लोकसभा के नतीजे राहुल गांधी के लिए उत्साहजनक थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में माहौल बदला हुआ लग रहा है. चुनावी एजेंडा परिवर्तित हो गया है. इन दोनों राज्यों के परिणाम राजनीतिक दलों से ज्यादा राहुल गांधी के भविष्य का भाव बताएंगे.

    गांधी परिवार का दूसरा वारिस प्रियंका गांधी भी लोकसभा में पहुंच जाएंगीं. अभी तक तो राहुल गांधी अकेले सामने थे, अब प्रियंका गांधी भी संसद में होंगी. दोनों के परफॉर्मेंस के आंकलन होंगे. गांधी परिवार की नई सांसद अगर बेहतर कर पाईं तो फिर बीस  साल से ज्यादा के सांसद राहुल गांधी नेतृत्व की दौड़ में कांग्रेस के भीतर पिछड़ जाएंगे.

   झारखंड के नतीजे तो समझे जा सकते हैं. महाराष्ट्र में जरूर स्थितियां ज्यादा उलझी हुई हैं. दोनों गठबंधनों में शिवसेना है और एनसीपी भी है. दोनों शिवसेना और दोनों एनसीपी के सामने अपने वजूद की चुनौती है. दोनों को अपना अस्तित्व इन चुनाव में साबित करना है. लोकसभा चुनाव में अजीत पवार फेल हो गए थे. जन समर्थन शरद पंवार के साथ था. 

    शिवसेना का जहां तक सवाल है, एकनाथ शिंदे ने, अपनी शिवसेना का वजूद लोकसभा में भी कायम रखा था. उद्धव ठाकरे की शिवसेना को टूटने का कोई भावनात्मक लाभ नहीं हुआ. बगावत करने वाले महाराष्ट्र की सरकार में भी आ गए और लोकसभा के जनादेश में भी आगे निकल गए.

   महाराष्ट्र के चुनाव उद्धव ठाकरे के लिए निर्णायक साबित होंगे. चुनाव वह लड़ नहीं रहे हैं. महाविकास अघाडी गठबंधन ने उनको  मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया है. मुख्यमंत्री बनने के लिए ही उद्धव ठाकरे बीजेपी का साथ छोड़कर धुर वैचारिक विरोधियों के साथ चले गए थे. ऐसा लग रहा है, कि उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री बनकर राजनीतिक उपलब्धि हासिल करने की बजाय अपनी पारिवारिक राजनीतिक और वैचारिक विरासत को बड़ा नुकसान पहुंचा दिया है. 

    एकनाथ शिंदे ने शिवसेना तोड़ी. बीजेपी के साथ मिलकर मुख्यमंत्री बन गए और मूल शिवसेना का सिम्बल भी हासिल कर लिया. उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने शिंदे के साथ गए लोगों को गद्दार के रूप में प्रचारित किया लेकिन महाराष्ट्र के लोगों ने ऐसा स्वीकार नहीं किया. बल्कि इसके उलट लोकसभा में एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने अच्छा प्रदर्शन किया. ऐसे ही अजीत पवार के लिए भी यह चुनाव निर्णायक रहेंगे. लोकसभा चुनाव में तो वह फेल हुए थे. अगर वैसा ही परिणाम विधानसभा चुनाव में आता है, तो अजीत पवार का राजनीतिक सितारा भी गर्दिश में चला जाएगा. 

     बीजेपी के महायुति गठबंधन को एकनाथ सरकार की योजनाओं का भी फायदा मिलता दिखाई पड़ रहा है. लाड़ली बहना और लाड़ला भाई योजना चुनावी नतीजे को प्रभावित कर सकती हैं. एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी इमेज को सुधारा है. मुख्यमंत्री निवास को उनके द्वारा आम लोगों के लिए खोल दिया गया. गवर्नेंस में जिस सहजता का एकनाथ शिंदे ने परिचय दिया है, इसका असर मैदान में दिखाई पड़ रहा है. 

    दोनों गठबंधनों में बीजेपी सर्वाधिक 148 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. इसलिए यह तो लगभग तय माना जा रहा है कि बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी. जीत की संख्या कहां जाकर रुकेगी इस पर ही महाराष्ट्र के भविष्य का मुख्यमंत्री तय होगा. अगर महायुति गठबंधन सत्ता में वापसी करता है, तो मुख्यमंत्री के दो चेहरे एक देवेंद्र फडनवीस और दूसरे वर्तमान सीएम एकनाथ शिंदे  मुख्य दावेदार होंगे. 

    इंडिया ब्लॉक के रूप में राहुल गांधी द्वारा जो विपक्षी गठबंधन तैयार किया गया था, वह बिखरता हुआ दिखाई पड़ रहा है. दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम अगर इस गठबंधन के खिलाफ चले जाते हैं, तो गठबंधन की राहुल राजनीति समाप्त हो जाएगी. जिस नेरेटिव का उपयोग राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में कर चुके हैं, वह नेरेटिव विधानसभा चुनाव में कारगर होने की कोई उम्मीद नहीं है. 

    मराठा आरक्षण के नाम पर उभरे मनोज जरांगे जरूर महा विकास अधाड़ी के पक्ष में काम करते दिखाई पड़ रहे हैं. भाजपा गठबंधन में इसके जवाब में हरियाणा के तर्ज पर गैर मराठी मतदाताओं को एकजुट करने की रणनीति पर मजबूती से काम किया है.

  देश की आर्थिक राजधानी मुंबई, औद्योगिक घरानों की नगरी भी है. उद्योगपतियों का महाराष्ट्र में अच्छा खासा प्रभाव है. राहुल गांधी ने उद्योगपति विरोधी स्टैंड हमेशा दिखाया है, जिसका दुष्परिणाम भी इन चुनाव में दिखाई पड़ सकता है. महाराष्ट्र और झारखंड के बाद आगे जिन भी राज्यों में चुनाव होना है, उनमें भाजपा और कांग्रेस की सीधी लड़ाई नहीं है. यहां गठबंधन की लड़ाई है. 

    बीजेपी और कांग्रेस के सीधे संघर्ष में कांग्रेस पिछड़ जाती है, लेकिन गठबंधन की राजनीति में भाजपा कमजोर पडने लगती है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में सीधी लड़ाई में बीजेपी ने कांग्रेस को पराजित किया. इन दोनों राज्यों के अलावा आगे जो चुनाव होने है, उनमें बिहार और दिल्ली प्रमुख हैं. इन दोनों राज्यों में बीजेपी का मुकाबला राष्ट्रीय जनता दल और आम आदमी पार्टी से होगा. बिहार में तो कांग्रेस का गठबंधन है लेकिन दिल्ली में शायद ही आम आदमी पार्टी के साथ अब कांग्रेस का गठबंधन हो सके?

    यह बात तो लगभग साबित हो चुकी है कि राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस अपने बलबूते पर बीजेपी का मुकाबला करने में सक्षम नहीं है. गठबंधन की राजनीति के चलते कांग्रेस का जो भी राजनीतिक आधार बढा था वह गठबंधन के उनके सहयोगियों को रास नहीं आ रहा  है. कांग्रेस और गठबंधन के सहयोगियों की मुस्लिम वोटों पर नज़र भी एक बड़ा फेक्टर है. धीरे-धीरे गठबंधन की गांठे खुल रही हैं. महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणाम गठबंधन के बंधन को पूरा खोल देंगे.

    लोकसभा चुनाव में नाराजगी के बाद विधानसभा के चुनाव में मूड बदला-बदला सा दिखाई पड़ रहा है. बंटेंगे तो कटेंगे नारे का खुलकर प्रयोग इन दोनों राज्यों के चुनाव में भी हो रहा है. दोनों गठबंधन जातियों के नाम पर लोगों को बांट रहे हैं. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के नाम पर ‘बटेंगे तो कटेंगे’ नारे  को भुनाया जा रहा है.

   चाहे राहुल गांधी की जातिगत जनगणना हो? चाहे योगी आदित्यनाथ का बटेंगे तो कटेंगे का नारा हो? यह दूसरे को डराने से ज्यादा खुद के डर के लिए लगाया  जा रहा हैं . दूसरे को धोखे में रखने की सियासत करते-करते कई बार खुद को धोखा देना शुरू कर दिया जाता है. अडानी और अंबानी को बेईमान, भ्रष्ट्र बताते-बताते, राहुल गांधी खुद के ईमानदार होने का धोखा, खुद को ही देने लगे. जब भी कोई दूसरे को बेईमान बताता है? तो इसमें खुद के ईमानदार होने का अहंकार छुपा होता है. यही अहंकार, सियासी अंधकार का द्वार होता है. 

    गठबंधन की सियासत पर जब भी आफत आई है, तब कांग्रेस उसके पीछे होती है. इस बार भी आगे जाने के फेर में बिखरते गठबंधन के पीछे कांग्रेस ही दिखाई पड़ रही है. पूरी दुनिया में हिंदुत्व की लहर आ रही है, तो भारत के चुनाव में राहुल गांधी जातिवाद लहराने में लगे हुए हैं.  कमांडो की सुरक्षा में भीड़-भाड़ वाली सड़कों पर ट्रेफिक रोककर, दीपावली का दीपक खरीदते हुए आम आदमी होने का धोखा, सियासत किसको देना चाहती है. पब्लिक तो सब जानती है, धोखे में तो सियासत ही लगती है.