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गुरूर का कसूर, आगे भी असर डालेगा जरूर

सार

प्रियंका गांधी ने मोहनखेड़ा में कांग्रेस सरकार के पतन के लिए रिश्वतखोरी को जिम्मेदार बताया है. कमलनाथ तो हर सभा में कहते हैं कि उनका क्या कसूर था? उन्होंने क्या पाप किया है? उन्होंने क्या गलती की है जिसके कारण उनकी सरकार गिराई गई? वे भी सौदेबाजी को सरकार के पतन का कारण बताते हैं..!

janmat

विस्तार

सरकार के पतन के लिए जनता की सहानुभूति के नजरिये से कुछ भी कहा जाए लेकिन बगावत कभी भी एकतरफा नहीं होती. एक हाथ से ताली नहीं बजती. जब भी किसी सरकार का पतन होता है तो सरकार के लीडर मुख्यमंत्री की गलतियां, ठसक,  जनभावनाओं की अवहेलना और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और समन्वय की कमी ही जिम्मेदार होती है. केवल रिश्वतखोरी और सौदेबाजी के कारण कभी भी कोई भी सरकार का अब तक तो पतन नहीं हुआ है. पतन का बीज मुख्यमंत्री और बगावती नेताओं के अहंकार, ईगो और स्वाभिमान की टकराहट से चालू होता है. भले ही बाद में इस बगावत के लाभार्थी धन के लेनदेन का घी भी डालते होंगे.

 एमपी में कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया से बड़ी बगावत कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता अर्जुन सिंह ने 1996 में तिवारी कांग्रेस बनाकर की थी. तब अर्जुन सिंह के समर्थक दिग्विजय सिंह ही मुख्यमंत्री थे. उन्हें अर्जुन सिंह का करीबी माना जाता था. तिवारी कांग्रेस के गठन के बाद अर्जुन सिंह जब पहली बार भोपाल आए तब ऐसा माना जा रहा था कि कांग्रेस सरकार के मंत्री और विधायक अर्जुन सिंह की सभा में जरूर जाएंगे. उनके कई कट्टर समर्थक दिग्विजय मंत्रिमंडल में शामिल थे. दूसरी तरफ उस समय के पीएम नरसिंहराव एमपी की कांग्रेस सरकार और नेताओं की गतिविधियों पर नजर बनाए हुए थे. 

उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपनी राजनीतिक सूझबूझ और समन्वय से अर्जुन सिंह समर्थक नेताओं को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे थे कि अगर अर्जुन सिंह के साथ जाना ही होगा तो मुख्यमंत्री सहित पूरा मंत्रिमंडल जाएगा. सारे नेताओं को विश्वास में लेकर उन्होंने ऐसी व्यूहरचना रची कि अर्जुन सिंह के कट्टर समर्थकों ने भी कांग्रेस पार्टी का साथ दिया. अपनी सूझबूझ और समन्वय से दिग्विजय सिंह ने अर्जुन सिंह जैसे कद्दावर नेता की बगावत को हंसते-हंसते संभाल लिया था. 

मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार के साथ जो बगावत हुई अगर वैसी ही परिस्थितियों में दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री होते तो बगावत को सूझबूझ और समन्वय के साथ संभाल लिया जाता और कांग्रेस की सरकार नहीं गिरती. कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति में कमलनाथ समर्थक उनकी सरकार गिरने का दोष दिग्विजय सिंह को देने से भी नहीं हिचकिचाते हैं. दिग्विजय सिंह और सिंधिया घराने के राजनीतिक रिश्ते कभी भी बहुत बेहतर नहीं माने जाते रहे हैं लेकिन इसके बाद भी दिग्विजय सिंह ने माधवराव सिंधिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया को मान सम्मान देने में कोई कमी नहीं रखी. दिग्विजय सिंह ने राजनीति के चलते मान सम्मान को कभी बलि नहीं चढ़ाया.

कमलनाथ सरकार के असमय पतन और विधायकों की बगावत को सौदेबाजी और रिश्वतखोरी से जोड़कर सहानुभूति और राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश से यह सवाल खड़ा हो रहा है कि कांग्रेस सरकार गिरने का वास्तविक कारण क्या अभी तक जनता के सामने नहीं आया है?

कांग्रेस सरकार के पतन के बाद उपचुनाव के समय भी विधायकों की खरीद फरोख्त को लेकर कांग्रेस द्वारा मुद्दा बनाया गया था लेकिन दल बदलने वाले विधायक बड़ी संख्या में निर्वाचित होकरआए थे. सिंधिया खेमे की ओर से उस समय यह स्पष्टता के साथ बताया गया था कि जनता से वायदाखिलाफी और सरकार में भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगाने के कारण सरकार से विधायकों को अलग होना पड़ा. 

रिश्वतखोरी और सौदेबाजी की बात इसलिए भी गले नहीं उतरती है क्योंकि दल बदलने वाले सभी विधायक सत्ताधारी दल के थे. उनमें से कई विधायक तो मंत्री पद छोड़कर गए थे. सरकार में उन सभी विधायकों की सौदेबाजी की ताकत उनका उज्जवल वर्तमान सुनिश्चित कर रही थी. जब वर्तमान में ही सभी साधन सुविधा और सत्ता हाथ में हो तो कोई भी केवल कुछ पैसों के लिए अपना वर्तमान दांव पर क्यों लगाएगा?

ऐसा लगता है कि कमलनाथ सरकार के पतन के वास्तविक कारण अभी तक छिपे हुए हैं. जो लोग आज सरकार गिरने की सहानुभूति पाने के लिए जनता से अपना कसूर जानने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें 15 महीने के एक-एक क्षण में अपनी गलतियों और पाप देखने की जरूरत है. जो अपनी गलती नहीं देख सकता वह कुछ भी सही देख नहीं सकता.

दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि भगवान करे कि भविष्य में कांग्रेस में कोई दूसरा सिंधिया पैदा ना हो. उनका मतलब ऐसे व्यक्तित्व से है जो पार्टी से बगावत न करे. जो भी नेता बगावत के लिए एक पक्ष को ही जिम्मेदार मानता है, वह निष्पक्ष दृष्टि से तथ्यों को शायद नहीं देखना चाहता है. जहां तक कांग्रेस में बगावत का प्रश्न है तो सिंधिया की बगावत न तो पहली थी और ना ही आखिरी होगी. 

पहले भी मध्यप्रदेश में बड़े-बड़े नेताओं ने कांग्रेस छोड़ी है. जहां सत्ता प्राथमिकता हो वहां पार्टी तभी तक सिर आंखों पर होती है जब तक उससे सत्ता हासिल होती हो. कांग्रेस तो सत्ता की राजनीति का एक फार्मूला जैसे बन गई है. पार्टी या सरकार का नेतृत्व करने वाले जब तक आम कार्यकर्ता को समान दृष्टि और समन्वय के साथ व्यवहार नहीं करेंगे, जब तक सेवा की राजनीति को पार्टी का मूल आधार नहीं बनाया जाएगा, तब तक बगावत की संभावनाओं को नहीं रोका जा सकेगा.

कांग्रेस में तो इसी दौरान राष्ट्रपति के निर्वाचन में आदिवासी विधायकों ने भी पार्टी के खिलाफ बगावत करके एनडीए उम्मीदवार के पक्ष में मतदान किया था. जब यह वाकया सामने आया था तब भी यह कहा गया था कि पार्टी इसकी जांच कराएगी और ऐसे लोगों को चिन्हित कर उनके खिलाफ कार्रवाई करेगी. बगावती मानसिकता वाले यह सारे विधायकों को फिर से चुनाव मैदान में उतारने के लिए कांग्रेस पार्टी मजबूर होगी और जब ऐसे लोग आएंगे तो फिर सौदेबाजी और रिश्वतखोरी की संभावनाएं सतत बनी रहेंगी. जब बिकने वाला उपलब्ध है तभी खरीदने और कीमत का प्रश्न उपस्थित होता है. कोई कितनी भी कीमत देने को तैयार हो जब कोई नहीं बिकना चाहता तो कोई भी ताकत उसको कैसे खरीद सकती है?

गुरूर, ठकुरास और व्यापारिक मानसिकता से ना पार्टियां चलती हैं और ना सरकारें चल सकती हैं. सार्वजनिक जीवन में जो भी नेतृत्व कर रहा है उसमें शिष्टता, शालीनता और जनता के लिए सुलभता सबसे ज्यादा जरूरी है. राजनीतिक सच्चाई और सूझबूझ अंतर्मन से निकलती है. बनावटी और दिखावटी प्रयास कभी ना कभी अंतर्मन की कमजोरी को सामने ला ही देते हैं. कांग्रेस को जब पिछली गलती ही समझ में नहीं आई है तो फिर उसमें सुधार का तो कोई सवाल उत्पन्न ही नहीं होता है. फिर वही हो रहा है कि जो हमने कहा वही सही और बाकी सब नासमझी की बही.