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लोकतंत्र का महासमर, नेता-मुद्दे किसका कितना असर?

सार

लोकतंत्र के महासमर में चुनाव की घड़ी आ गई है. लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है. जनादेश के लिए दावे और हकीकत का प्रचार-प्रसार चरम पर है. सरकारी प्रचार अब बंद हो जाएगा.पार्टियों का प्रचार अपनी पूरी कला के साथ मैदान में आ जाएगा..!!

janmat

विस्तार

चुनाव घोषणा के साथ आदर्श आचरण संहिता की बंदिशों को तोड़ने-मरोड़ने, और शिकवा-शिकायतों का दौर शुरू हो जाएगा. चुनावी वायदों और गारंटियों का मार्केट पहले से ही सजा हुआ है. अब तो उसकी दीपावली शुरू हो जाएगी. हर बार चुनाव के समय ऐसे ही दृश्य बनते हैं और नतीजे के साथ चुनावी बुलबुले स्वयं मिट जाते हैं. संसदीय व्यवस्था के संवाद और डेमोक्रेटिक सहयोग से शासन की शैली, राजनीतिक संघर्ष और वोट बैंक की राजनीति में बदल जाती है.

पांच साल बाद हो रहे चुनाव राजनीतिक दलों के साथ जनादेश के रखवालों के लिए पक्ष और विपक्ष के परफॉर्मेंस के विश्लेषण का समय होता है. पिछले चुनाव में वायदों और अगले चुनाव के बीच सरकार और विपक्ष ने कैसी भूमिका निभाई है? मैदान में लोकतंत्र के सत्य के साथ कौन खड़ा है? किसने अपनी भूमिका को निभाया है? किसने अपनी भूमिका को जनभावनाओं से जोड़ा है? जनादेश तो हमेशा सही निर्णय लेता है लेकिन निर्णय प्रक्रिया में उन्हें जागरुक करने और तथ्यों से अवगत कराने की भूमिका भी संसदीय व्यवस्था की बड़ी सेवा है.

चुनाव में बहुत सारे मुद्दे होते हैं. पॉलिटिकल पार्टियों की प्रशासनिक संरचना और संगठन भी इन मुद्दों को प्रभावित करता है.  इस लोकसभा चुनाव में नेता, मुद्दे, देश की ज़रूरतें और राजनीतिक दलों की भूमिका में पिछले चुनाव के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ रहा है. पांच साल पहले राष्ट्रीय स्तर पर सरकार बनाने के लिए जिन नेताओं के बीच चुनाव हुए थे कमोबेश परिस्थितियां वही हैं.

एनडीए और इंडी गठबंधन के बीच में यह चुनाव होने जा रहा है. एनडीए गठबंधन नेता की दृष्टि से काफी मजबूत है. एनडीए के नेता पीएम नरेंद्र मोदी की तुलना में इंडी गठबंधन में नेता के नाम पर कोई स्पष्टता नहीं है. कांग्रेस राहुल गांधी को मोदी के मुकाबले पेश कर रही है तो गठबंधन में शामिल दूसरे दल इस पर अपना रुख साफ नहीं कर रहे हैं. 

गठबंधन की राजनीति में भी एनडीए गठबंधन का कुनबा थोड़ा बढ़ता दिखाई पड़ रहा है. वहीं इंडी गठबंधन तमाम प्रयासों के बाद भी मजबूत आकार नहीं ले सका. नीतीश कुमार विपक्षी गठबंधन की राजनीति के सूत्रधार थे जो एनडीए में चले गए. ममता बनर्जी भी गठबंधन से बाहर चली गई हैं. सीट शेयरिंग के मामले में दोनों गठबंधनों में कई राज्यों में स्थितियां अभी स्पष्ट नहीं है. इसके बावजूद एनडीए गठबंधन सीट शेयरिंग में आगे दिखाई पड़ रहा है.

देश में राष्ट्रीय चुनाव उत्तर भारत और दक्षिण भारत में शुरू से ही अलग-अलग परिणाम देते रहे हैं. दक्षिण भारत क्षेत्रीय दलों के कब्जे में है तो उत्तर भारत बीजेपी को भरपूर समर्थन देता दिखाई पड़ रहा है. बीजेपी दक्षिण भारत में अपनी संभावनाओं को मजबूत करने की उम्मीदें पाले हुए है. आंध्र प्रदेश में TDP के साथ बीजेपी का समझौता इन उम्मीदों को हवा दे रहा है. तमिलनाडु में बीजेपी अपने दम पर चुनाव लड़ने जा रही है.

तेलंगाना में भी बीजेपी ने अपनी स्थिति को मजबूत किया है. कर्नाटक में बीजेपी पहले से ही सशक्त है. केरल में भी बीजेपी ने अपनी संभावनाओं को थोड़ा उज्जवल किया है. पश्चिम बंगाल में सीधा मुकाबला भाजपा और टीएमसी में है. टीएमसी के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी बीजेपी को लाभ पहुंचा सकती है. उड़ीसा में बीजेपी के साथ बीजेडी का समझौता अभी फाइनल नहीं हो पाया है. अगर यह समझौता होता है तो दोनों दलों को इसका लाभ होगा. दक्षिण भरत में सनातन विरोधी बयानों का भी भाजपा को फायदा होता दिख रहा है. 

जहां तक उत्तर भारत का सवाल है, बीजेपी उत्तर के राज्यों की 195 लोकसभा सीटों में पिछले चुनाव में ही 175 सीट जीतने में सफल रही थी. उत्तर भारत में बीजेपी की स्थिति पांच साल पहले की तुलना में और भी मजबूत हुई है.

कांग्रेस का जहां तक सवाल है राष्ट्रीय स्तर पर मोदी विरोधी  गठबंधन बनाने की कांग्रेस की रणनीति सफल नहीं हो सकी है. उत्तरप्रदेश में भी बसपा अलग चुनाव लड़ रही है. आरएलडी भी सपा से अलग होकर भाजपा के साथ जा चुकी है. सपा और कांग्रेस का समझौता जरूर हुआ है लेकिन इसका चुनावी असर बहुत फेरबदल करने में सफल होगा इसमें संशय है क्योंकि पहले एक बार दोनों दलों में समझौता हुआ था लेकिन उसके परिणाम नहीं मिले थे. 

जिन राज्यों में कांग्रेस का बीजेपी के साथ सीधा मुकाबला है वहां भाजपा जहाँ सशक्त हुई है वहीं कांग्रेस में बिखराव हुआ है. कांग्रेस लगातार टूटी है. कांग्रेस के कई नेता बीजेपी के साथ चले गए हैं. ऐसी स्थिति में संगठन की दृष्टि से अगर पांच साल पहले कांग्रेस और बीजेपी की परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाए तो बीजेपी मजबूत हुई है और कांग्रेस संगठन की दृष्टि से भी कमजोर हुई है.

अब सरकार और विपक्ष की भूमिका के रूप में अगर पांच साल के कामकाज का विश्लेषण किया जाए तो सरकार अपने अनेक बुनियादी मुद्दों को पूरा करने में सफल हुई है. इसी पांच साल के दौरान कश्मीर में धारा 370 हटाई गई, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हुआ, राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हुई. समान नागरिक संहिता के मामले में भी बीजेपी ने एक कदम बढ़ाया है. उत्तराखंड में उसकी सरकार ने राज्य में UCC लागू कर दिया है. 

भाजपा समर्थकों में यह विश्वास मजबूत हुआ है कि भाजपा अपने बाकी चुनावी वादों के समान ही UCC लागू करने में भी सफल होगी. भारत में रह रहे हिंदू जैन सिख बौद्ध ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता देने का कानून बनाकर बीजेपी हिंदुत्व की राजनीति को नई धार देने में सफल होती दिखाई पड़ रही है. बीजेपी को यह सफलता विपक्ष की मूढ़ता और विरोधी बयानों के कारण ज्यादा मिलती दिखाई दे रही है. विपक्ष अगर इस कानून पर सकारात्मक रहता तो शायद यह चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता. 

विकास के जहां दूसरे वायदों का सवाल है उसमें भी बीजेपी की सरकार काफी सफल दिखाई पड़ रही है. नेशनल हाईवे और इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में तो भारत जैसे नए दौर में पहुंच चुका है. देश में नेशनल हाईवे का निर्माण सारे रिकॉर्ड तोड़ रहा है. सोशल सेक्टर की योजनाओं में भी बीजेपी जन अपेक्षाओं पर खरा उतरती दिखाई पड़ रही है. किसानों को सम्मान निधि और मुफ्त राशन देने की योजना ने लाभान्वितों के बहुत बड़े वर्ग को बीजेपी के साथ जोड़ दिया है.

दूसरी तरफ विपक्ष की भूमिका का अगर विश्लेषण किया जाए तो विपक्ष पांच साल बिखरा हुआ नजर आया. चुनावी मुकाबले के लिए गठबंधन की राजनीति जरूर शुरू हुई लेकिन वह भी परवान नहीं चढ़ सकी. पूरे पांच साल कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी जन मुद्दे उठाने की बजाय ऐसे मुद्दों पर सरकार से टकराते रहे जिनका जनादेश को प्रभावित करने में कोई खास असर नहीं होता. अडानी और अंबानी के खिलाफ राहुल का स्टैंड का जनता को प्रभावित नहीं करता. राहुल की संसद सदस्यता जाना और फिर बहाल होना कांग्रेस के लिए बड़ा मुद्दा हो सकता है लेकिन चुनावी समर में जनता के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है. विपक्ष जनता से जुड़े मुद्दों को स्थापित करने में सफल नहीं हो पाया है.

परीक्षा तो परीक्षा होती है. सबसे फिसड्डी और सबसे टॉपर दोनों को परीक्षा का भय होता है. परिणाम ही उसकी मेहनत, क्षमता और सेवा को मान्यता देते हैं. जनादेश के परिणाम के पहले सरकार और विपक्ष माहौल बनाने में तो अपनी विजय का शंखनाद करते हैं लेकिन भारत का यह लोकसभा चुनाव राजनीतिक पंडितों के लिए बिल्कुल स्पष्टता लिए हुए है. किसी ज्योतिषी की गणना की आवश्यकता नहीं है. दीवार पर लोकतंत्र की इबारत लिखी हुई है. 

जनादेश के पहले कुछ भी निर्णायक कहना जनादेश का सम्मान नहीं होगा.इसलिए केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि भारत में अगला जनादेश मजबूत सरकार बनाएगा. मजबूत सरकार मतलब मजबूत नेता और कमजोर विपक्ष. संख्याबल की द्रष्टि से कमजोरी मुद्दों और मेहनत से पार पाई जा सकती है लेकिन इसके लिए विपक्ष को अपनी रणनीतियों में बदलाव करना होगा. नेता भी तलाशना होगा, मुद्दे भी तराशने होंगे. ईमानदारी से सेवा का जनादेश को भरोसा भी देना होगा. हर नेता चुनाव की घड़ी में अपनी अपनी राजनीतिक छडी  मैदान में लेकर घूम रहा है लेकिन चुनाव परिणाम बताएंगे कि किसकी छड़ी और छवि  भारत के लोकतंत्र में कितनी मजबूती से गड़ी और बड़ी हुई है.