इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज शेखर यादव के खिलाफ़ महाभियोग की प्रक्रिया का विपक्ष द्वारा नोटिस दिया गया है. शेखर यादव का पाप यह है, कि उन्होंने विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में यह कह दिया, कि यह देश बहुतसंख्यकों के मत पर चलेगा. उन्होंने कठमुल्ला शब्द का भी उपयोग किया..!!
इस शब्द को मुस्लिम समाज से जोड़कर उनके इंटेलेक्चुअल अधिकार को अस्वीकार किया जा रहा है. न्यायाधीश के पद की मर्यादा पद की शपथ होती है. पद कभी भी इंटेलेक्चुअल विजडम और अधिकार को नियंत्रित नहीं कर सकता.
पहली नजर में न्यायाधीश यादव के वक्तव्य का मतलब यह दिख रहा है, कि डेमोक्रेसी में वही होगा जो बहुसंख्यक मत चाहता है. बहुसंख्यक मत ही संसदीय प्रणाली का आधार है. जिसे बहुमत मिलता है, वही सरकार बनती है.
बहुमत का मतलब यह है, कि यह सरकार बहुसंख्यक मत पर बनी है. बहुसंख्यक मत में ना कोई जाति है, ना कोई धर्म है, ईवीएम बहुमत का आंकड़ा बताता है. उसमें किस जाति, किस धर्म के कितने वोट हैं. यह नहीं उपलब्ध होता, इसका सीधा मतलब है, कि जो भी सरकार देश में काम कर रही है, वह बहुसंख्यक मत पर ही बनी हुई है. बहुसंख्यक मत को तब से बहुसंख्यकवाद समझ लिया गया, जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार स्थापित हुई है.
ऐसे ही कठमुल्ला शब्द को मुस्लिम समाज से जोड़ दिया गया है, जबकि इस शब्द का मतलब किसी समाज से नहीं होता. गूगल में कठमुल्ला का अर्थ कम पढ़ा लिखा शिक्षक, अधूरे ज्ञान का उपदेशक, संकुचित विद्या का मालिक भी बताया गया है. ऐसा व्यक्ति एक ही समाज में नहीं होता. ऐसे लोग तो हर जगह हर समाज में पाए जाते हैं.
अधूरे ज्ञान के उपदेशक तो सबसे ज्यादा सियासत में पाए जाते हैं. संविधान की मर्यादा को खंडित करने की परंपरा की पैदाइश भी संविधान की रक्षा का कठमुल्लापन दिखाते हैं. अधूरा ज्ञान, अज्ञान से भी खतरनाक होता है. संकुचित विद्या हमेशा विध्वंसक होती है.
कठमुल्ला शब्द का जिन अर्थों में सियासत उपयोग कर रही है, यह उनका अज्ञान ही कहा जाएगा. विपक्षी सांसदों का महाभियोग का प्रस्ताव भी वोट बैंक की संकुचित विद्या और अधूरे ज्ञान के उपदेश से ज्यादा नहीं कही जा सकती.
न्यायाधीश महोदय ने पद की मर्यादा के विरुद्ध कोई आचरण किया होगा, तो निश्चित रूप से न्याय प्रणाली का अनुशासन उन पर लागू होगा. सुप्रीम कोर्ट ने मामले का संज्ञान लिया है, इसके बावजूद महाभियोग की राजनीतिक प्रक्रिया संविधान की रक्षा की प्रेरणा से ज्यादा वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित दिखाई पड़ती है.
जब वोट बैंक की राजनीति चालू होगी तो फिर सभी पक्ष कूदेंगे. न्यायाधीश महोदय यादव वर्ग से आते हैं,जो राजनीति में सबसे चर्चित और महत्वपूण वर्ग है. बीजेपी को तो इस वर्ग की लंबे समय से तलाश है. महाभियोग में निश्चित रूप से न्यायाधीश यादव को विरोधियों का आक्रमण झेलना पड़ेगा. तो बीजेपी का समर्थन मिलना भी लगभग तय दिखाई पड़ता है.
संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है. अभिव्यक्ति मौलिक अधिकार है. सनातन विचार बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक नहीं बल्कि हर नागरिक को पूर्ण अधिकार प्रदान करता है. बहुसंख्यक अल्पसंख्यक तो संकुचित सियासी सोच है. इंसानियत चेतना की सोच है. चेतना के आत्मज्ञान को सियासी सोच से बाधित नहीं किया जा सकता.
ऐसा लगता है, कि सियासत का नजरिया ही दूषित हो गया है. बांटकर ही सियासत को साधा जा सकता है. यही इस महाभियोग के प्रस्ताव के जरिए भी होता दिखाई पड़ रहा है.
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने मेनिफेस्टो में यह कहा था, कि इस देश में बहुसंख्यकवाद नहीं चल सकता. सियासी संकीर्णता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है, कि बहुसंख्यकवाद का तो भारत में विरोध किया जाता है, लेकिन वही बहुसंख्यकवाद पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं के विरुद्ध क़त्लेआम कर रहा है. विडंबना देखिए कि भारत के बहुसंख्यकवाद के विरोधियों के मुंह से एक आवाज़ तक नहीं निकल रही है.
बहुसंख्यकवाद, अल्पसंख्यकवाद और कठमुल्ला जैसे शब्दों पर संघर्ष की जरूरत नहीं है, बल्कि उन विचारों और सोच के खिलाफ लड़ाई की जरूरत है, जो किसी न किसी तरह से विभाजन कर अपना सियासी उल्लू सीधा करना चाहते हैं.
संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर लोकसभा में बहस हो रही है. पूरी बहस का लब्बोलुआव संविधान से ज्यादा वोट बैंक को साधने की चुनावी सभाओं से ज्यादा गंभीरता इसमें दिखाई नहीं पड़ रही है. समस्याओं के जो मूल हैं, उनको भटकाया जाता है.
संविधान की तो बात की जाती है, लेकिन धार्मिक मान्यताओं और पर्सनल लॉ को संविधान में अपनाए जाने की बात कर, संविधान की समानता की भावनाओं को कुचला जाता है.
भारत के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद उपराष्ट्रपति राज्यसभा के सभापति के विरुद्ध विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव पहली बार आया है. लेकिन इसके पीछे भी बहुसंख्यक मत को कुचलने का ही दुर्भाव दिखता है. जो निर्वाचित जनप्रतिनिधि संसद में संवैधानिक आचरण नहीं कर पाते, वह एक न्यायाधीश को मर्यादित आचरण के लिए महाभियोग का सहारा लेना चाहते हैं.
सुई की जगह तलवार का उपयोग करने की यह प्रवृत्ति चेतना की वैचारिक शक्ति को कुंद करेगी जो अंततःसभ्यता को ही नुकसान पहुंचाएगी. चारों तरफ जाति धर्म का ही सियासत में बोल वाला है. सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया तो उनके बचाव में उनकी जाति, जाट और किसान का सहारा लेकर वोट बैंक को मजबूत करने की गणित भी शुरू हो गई.
अडानी, सोरोस, महाभियोग, अविश्वास प्रस्ताव में कोई भी निर्णायक समाधान तक नहीं पहुंचेगा और संसद का सत्र समाप्त हो जाएगा. फिर सारे जनप्रतिनिधि संसदीय गरिमा को नुकसान पहुंचाने के लिए एक दूसरे पर आक्षेप लगाते हुए भोग-विलास में लग जाएंगे. फिर चुनाव के अखाड़े में सवालों की बौछार दिखाई पड़ेगी. समस्याओं के मूल पर कभी कोई समाधान खोजा नहीं जाएगा.
संवाद के लिए बनी संसद कम्युनिकेशन गैप का सबसे बड़ा केंद्र बन गई है. संसद में हर कदम चुनाव की तैयारी ही दिखाई पड़ती है. वन नेशन वन इलेक्शन का बिल इसी सत्र में आने वाला है. इसका अंतिम परिणाम क्या होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन अगर यह लागू भी हो गया, तब भी जैसी सियासी प्रक्रिया चल पड़ी है, उसमें तो पूरे 5 साल चुनावी काम ही दिखाई पड़ेंगे.
सरकार जो बनेगी वह तो अपने काम करने में लग जाएगी, लेकिन जब 5 साल में एक बार ही चुनाव होंगे, तो फिर विपक्ष सिवाय चुनावी सियासत को हर रोज नए अभिनय में प्रस्तुत करने के अलावा क्या कर सकेगी. वर्तमान हालात को देखकर यह सोचना तो काफी कठिन है, कि विपक्ष संसदीय मर्यादा का ध्यान रखते हुए सरकारों को राष्ट्र के विकास के लिए सकारात्मक सहयोग करेगा.
अलग-अलग दिशा में बहती नदियों को भले ही जोड़ा जा सकता हो, लेकिन सियासी दिशाएं तो महाभियोग ठप्प संसद, गेट पर प्रदर्शन, नारेबाज़ी और अविश्वास प्रस्ताव में ही बहती रहेगी.