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जीवंत आध्यात्मिक हवाई अड्डा है, तीर्थराज प्रयागराज

सार

तीर्थों का राजा प्रयागराज, महाकुंभ पर्व के लिए सज धज कर तैयार है. खास ग्रह, नक्षत्र और घड़ी आने को बेकरार है. विज्ञान, सूरज और चांद के पास पहुंच रहा है तो सूर्य और चांद महाकुंभ पर्व पर धरती को अमृत लाभ देने आ रहे हैं..!!

janmat

विस्तार

    सनातन संस्कृति की विरासत के इस महापर्व में अलग-अलग दृष्टियों का भी समागम है. अक्सर सवाल पूछा जाता हैकि, तीर्थ की भीड़ भाड़ में जाने का क्या लाभ है? 

    विमान से यात्रा करने के आकांक्षी को विमानतल ही जाना पड़ेगा. भौतिक यात्रा के लिए जो भूमिका हवाई अड्डों की है, वही भूमिका आध्यात्मिक यात्रा में तीर्थ स्थलों की है. तीर्थ स्थल आध्यात्मिक टेक ऑफ के विमानतल है. महाकुंभ आध्यात्मिक उड़ान का दुर्लभ अवसर है. तीर्थ स्थलों से आध्यात्मिक टेक ऑफ लगातार होते रहते हैं. वहां प्रवाहित ऊर्जा में यह टेक ऑफ ज्यादा सुगमता और सुविधाजनक तरीके से हो सकता है. 

    महाकुंभ को जो भीड़भाड, प्रबंधन की उत्कृष्टता, उत्सव धर्मिता, मेला या दूसरी दृष्टि से देखते हैं, वह इस दुर्लभ स्थल पर पहुंचकर भी अभागे ही रह जाते हैं. महाकुंभ आंख खोल कर नहीं बल्कि आँखे बंद कर अनुभूति का पर्व है. जो मात्र शरीर से गंगा और संगम में पवित्र स्नान करेंगे, वह कुछ पाकर नहीं लौटेंगे बल्कि समय गँवा कर लौटेंगे.

    भीड़ का पाप और पुण्य अलग है. जीवन का पाप और पुण्य बाहर नहीं बल्कि भीतर से निर्मित होता है. सागर मंथन में निकला विष और अमृत कलश एक संदेश है. हर इंसान के भीतर यह कलश मौजूद है. कस्तूरी कुंडल के साथ ही जीवात्मा आती है. खुद का मंथन करने की जरूरत है. गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम खुद के भीतर प्रवाहित है. गंगा किसी का पाप नहीं धोती, हम भीतर का दिया जलाकर जब अपने अमृत कलश से जुड़ जाते हैं तो पुण्य का उदय होता है. यही सूर्योदय पाप धोता है.   

    विश्व के सबसे बड़ा सनातन संस्कृति का समागम महाकुंभ में आध्यात्मिक आकांक्षी हैं तो साइबर अपराधी भी अपनी नजर गड़ाए हुए हैं. व्यवसायियों और व्यापारियों की अपनी दृष्टि है. प्रबंधन में लगे प्रशासन की नज़र अलग है. ठग और भिखारी भी अपनी अपनी नज़रों से महाकुंभ को देख समझ और उपयोग कर रहे हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि, महाकुंभ में दो लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था समाहित है. 

    महाकुंभ का बहुत बड़ा हिस्सा इस दुर्लभ अवसर में भी धन कमाने की वृत्ति को ही साध रहा है. व्यवस्था के लिए ऐसा प्रबंधन जरूरी है लेकिन यह अवसर केवल प्रबंधन का अवसर नहीं हो सकता. महाकुंभ सांस्कृतिक विरासत और जीवन के रहस्य को समझने का अवसर है.खुद के भीतर झांकने और जागरण का अवसर है. ज्ञान को छोड़कर अज्ञान और शून्यता से कनेक्ट होने का अवसर है. ऐसी आध्यात्मिक पात्रता विकसित करने का अवसर है, जिससे परम सत्य चेतना  पर उतर सके.

    शरीर और चेतना के अलग-अलग स्वरूप को अनुभव करने का अवसर है. जो भी श्रद्धालु और आध्यात्मिक आकांक्षी अपने भीतर की शून्यता शरीर और चेतना में विभेद के प्रति जागृत हो जाएगा, वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाएगा. यही जीवन का परम रहस्य और लक्ष्य है. 

    मृत्यु शरीर की होती हैऔर वह हर दिन हो रही है. धर्म और शास्त्र लगातार यह संदेश देते हैं कि, आत्मा नहीं मरती, शरीर मरता है. हम यह सुनते जरूर हैं, लेकिन शरीर और आत्मा की अलग अनुभूति करने में समर्थ नहीं होते. सारा जीवन शरीर को ही समर्पित रहता है. महाकुंभ का अवसर अगर शरीर और आत्मा को पहचानने में रत्ती भर भी दृष्टि को निर्मल कर सके तो इस अलौकिक और अनुपम अवसर का इससे दुर्लभ लाभ कुछ नहीं हो सकता.

    जीवात्मा, अमृत और विष के स्तर पर किसी में कोई भेद नहीं है. सारे भेद संसार में निर्मित किए गए हैं. महाकुंभ पर्व का सनातन संदेश यही हैकि, खुद अपना अमृत और विष खोंजे. खुद अपने पाप और पुण्य का सृजन और प्रक्षालन करें. गंगा, यमुना और हमारी दूसरी नदियां तो खुद ही गंदगी के पाप से मृत्यु की ओर बढ़ रही हैं. किसी भी भौतिक वस्तु से जीवन के परम सत्य और आध्यात्मिक यात्रा का संबंध केवल साधन तक ही हो सकता है, साध्य तो हम स्वयं हैं.

    साधु-संत,मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, शंकराचार्य और दूसरे ज्ञानियों, ध्यानियों का अपना दृष्टिकोण है, अपनी दृष्टि है. परम सत्य यही हैकि,  खुद का कल्याण खुद की ही दृष्टि से संभव है. किसी दूसरे की उधार की दृष्टि कोई भी कल्याण नहीं कर सकती. 

    जीवन की अंतिम यात्रा में भले ही चार कांधों की जरूरत होती है लेकिन आध्यात्मिक यात्रा खुद अकेले के कंधे पर ही करनी होती है. वैसे तो सत्य खोजने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है. सत्य हम स्वयं साथ में लेकर चल रहे हैं. बस जरूरत केवल यह है कि, हम उसके प्रति जागरूक हो, उसकी तरह देखे उसकी अनुभूति करें.

    नींद की अचेतन स्थिति में इंसान अपने अस्तित्व से कनेक्ट हो जाता है. जो परम शांति नींद की अचेतन अवस्था में मिलती है, वही परम शांति जागृत स्थिति में प्राप्त करने का प्रयास तीर्थ और महाकुंभ की सार्थकता होती है. काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार विहीन श्रद्धा अगर हम महाकुंभ में जागृत कर सकें तो यह जीवन को अलौकिक आनंद दे सकता है. 

    महाकुंभ की संस्कृति जीवन के रहस्य को समझने की संस्कृति है. खुद को मथते हुए विष और अमृत को पहचान करने की संस्कृति है. सागर मंथन तो एक संदेश है. जल और जीवन का वैज्ञानिक संबंध है. मानव शरीरमें 70% जल है. समुद्र में ज्वार-भाटा जल पर ग्रह नक्षत्र चांद सूरज के प्रभाव का वैज्ञानिक स्वरूप है. मानव भी इसी प्रकार चांद सूरज से प्रभावित होता है. प्रवाहित जल खास नक्षत्र ग्रह और घड़ी में ऐसे संयोग निर्मित करता है, जो शरीर के साथ ही आत्मा को भी जागृत कर देते हैं.

    अमृत स्नान की बात केवल प्रतीक है. सारी बातें, संस्कृति, प्रतीक, संदेश, तीर्थ स्थल की अनुभूति हमें खुद करनी होगी. मेले की भीड़भाड़ और उत्सव धार्मिता संसार का ही एक रूप है. खुली आंखों से हर दर्शन संसार की तरफ ही ले जाएगा. महाकुंभ में चालीस करोड़ लोगों के आने का अनुमान लगाया गया है. इतनी बड़ी भीड़ को एक साथ देखने से थ्रिल हो सकती  है लेकिन इससे कोई भी आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो सकती. आध्यात्मिक यात्रा तो अकेले की यात्रा है. 

    धर्म धारण करने का नाम है.हम अक्सर सुनते हैं, अकेले आए हैं और अकेले जाना है, खाली हाथ आए हैं और खाली हाथ जाना है. इन बातों का अगर हम इस महाकुंभ की अवधि में अपने जीवन आचरण में उपयोग कर सकें तो हमारे लिए महाकुंभ जीवन का सबसे बड़ा उत्सव होगा. पूरी जीवन यात्रा अकेले ही करना है, यह बात ही अगर भीतर से अनुभूति हो जाए तो इससे बड़ी उपलब्धि कुछ नहीं होगी. केवल कहने - सुनने से कुछ नहीं होगा, इसको अनुभूति करने से ही बदलाव आएगा.

    महाकुंभ को बुद्धि से नहीं, भाव से समझा जा सकता है. यह भाव का ही जगत है, जो लोग बुद्धि से इसे समझने की कोशिश करेंगे वह धोखे में ही रहेंगे. समय भी बर्बाद करेंगे और  धन भी लेकिन मिलेगा कुछ भी नहीं. महाकुंभ के दुर्लभ अवसर को भी संसार के एक बाजार के रूप में मात्र उपयोग कर पाएंगे. 

    महाकुंभ में जाने का भाव पैदा हुआ है तो इसका मतलब है कि, चेतना जागना शुरू हुई है. जागृति की इस यात्रा को आध्यात्मिक उड़ान बनाएं. तीर्थों के राजा प्रयागराज से महाकुंभ के अवसर पर आध्यात्मिक जीवन की अपनी सुनिश्चित और सुरक्षित उड़ान भरी जा सकती है. बस केवल दृष्टि बदलना है. दृष्टि,  अगर निर्मल हो गई, दृष्टि अगर संसार से हटकर खुद के भीतर चली गई तो फिर पात्रता अपने आप आ जाएगी और परम सत्य खोजने के लिए कहीं जाना नहीं होगा. यह सत्य स्वयं उतरकर चेहरे पर देदीप्यमान हो जाएगा.