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आक्रांता बीज के समर्थन से उठेगा, राष्ट्रभक्ति पर प्रश्न

सार

शहरों, गांवों, सड़कों, स्टेशन के नाम बदलने की राजनीति कोई नई नहीं है. एमपी के सीएम मोहन यादव ने उज्जैन के तीन गांव के नाम बदलने की जब से घोषणा की तब से नाम बदलने की राजनीति फिर से चर्चा में है..!!

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विस्तार

    सीएम के ऐलान के मुताबिक बड़नगर के गजनी खेड़ीगांव का नाम चामुंडा माता नगर, मौलाना गांव का नाम विक्रम नगर और जहांगीरपुर का नाम जगदीशपुर किया जाएगा.  इस घोषणा के बाद प्रदेश में पचपन स्थानों से नाम बदलने की मांग उठी है. पहले भी शहरों के नाम बदलते रहे हैं. इस्लामनगर का नाम जगदीशपुर, होशंगाबाद का नाम नर्मदापुरम और नसरुल्लागंज का नाम भैरुंदा किया गया था. साथ ही हबीबगंज स्टेशन का भी नाम बदलकर रानी कमलापती कर दिया गया.  

    नाम बदलने की बात जब आती है, तब विवाद शुरु हो जाते हैं. एक पक्ष इसका विरोध करने लगता है. पूरे देश में नाम बदलने की प्रक्रिया आजादी के बाद से ही चल रही है. मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, तिरुवंतपुरम के वर्तमान नाम पुराने नाम को बदलकर ही रखे गए हैं. तीर्थराज प्रयागराज का नाम भी इलाहाबाद को बदलकर ही रखा गया है. जो महाकुंभ के कारण आज विश्व में सबसे ज्यादा चर्चित है.

    नाम पहचान होती है, जहां साकार और निराकार परम शक्ति की धारणा है, वहां नाम और चेहरा नाचीज ही कहा जाएगा. आक्रांता, स्मृतियां और नाम बदलने की मांग का विरोध उस बीज की ओर इशारा करते हैं, जो भले ही अभी मिट्टी में दबा हो लेकिन उसके वृक्ष बनने की संभावनाएं समाप्त नहीं हुई है. बीज में वृक्ष समाया होता है. वृक्ष बीज की खबर देता है.

    जो भी नाम बदलने की बात उठती है, वह आक्रांताओं के अतीत की स्मृतियों से ही जुड़े हुए होते हैं. यद्यपि नाम बदलने से अतीत नहीं बदल जाएगा. नाम बदलने की वृत्ति इतना ही इशारा करती है कि, आक्रांता बीज की स्मृतियां समाप्त कर दी जाए. ऐसे बीज को ही समाप्त कर दिया जाए जो भविष्य में वृक्ष बनने की संभावना रखता है.

    कृषि विज्ञानी और वनस्पति शास्त्री बखूबी जानते हैं कि, बीज ही वृक्ष और फल का आधार होता है. बीज में सुधार वैज्ञानिक प्रक्रिया है. इसी सुधार के कारण इन क्षेत्रों में ऐसी प्रगति हासिल की गई है कि, आज भारत खाद्यान्न निर्यातक देश बन गया है.

    राष्ट्र, संस्कृति और भविष्य का बीज भी सुधार की मांग करता है. सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि, आक्रांताओं के बीज की स्मृतियों  का समर्थन करने वाले बीज अभी भी उपलब्ध हैं. बदलना ऐसे बीजों को है, जो आक्रांताओं की स्मृतियों और स्मारकों को अपनी आस्था नहीं बल्कि राष्ट्रभक्ति को अपना लक्ष्य बनाएं.

    नाम को बदलने को लेकर विचार विभाजित है. मध्य प्रदेश में भी जहां-जहां से नाम बदलने की मांग उठ रही है, उनका विरोध इसीलिए हो रहा है कि,  पुराने नाम मुगल आक्रांताओं से जुड़े हुए हैं. इन नामों के साथ वह स्मृतियां जुड़ी हुई है, वह इतिहास जुड़ा हुआ है, जो देश को वेदना देता है. धार्मिक स्मृतियों की पूर्ण स्वतंत्रता पर देश में सर्वानुमति है. विवाद आक्रांताओं की स्मृतियां पर उठते हैं. 

    कोई शहर ऐसा नहीं बचा होगा जहां नाम बदलने का विवाद ना खड़ा हुआ हो. कई तो ऐसे शहर हैं, जहां अगर कोई अनजान आदमी पहुंचे तो उसे ऐसे-ऐसे नाम देखने-सुनने  को मिलेंगे, जिससे वह कन्फ्यूज हो जाए कि, वह भारत के किसी नगर में है या मुगल साम्राज्य के किसी नगर में.

    दिल्ली में मुगल और गुलामी की स्मृतियां लंबे समय से गौरव के रूप में पढ़ाई और दिखाई जा रही थी. राष्ट्रपति भवन में मुगल गार्डन का नाम 75 साल बाद बदलकर अमृत उद्यान किया जा सका है. गुलामी का प्रतीक राजपथ, कर्तव्य पथ के रूप में अब जाकर बदल सका है. अब तो इंडिया गेट का नाम बदलने की भी मांग हो रही है. नाम बदलने से कुछ नहीं होगा, मानसिकता बदलने से बदलाव आएगा.

    दिल्ली का कोई कोना ऐसा नहीं मिलेगा, जहां मुगल बादशाहों के नाम चौक, चौराहों पर दिखाई ना पड़े. दिल्ली की सड़कें अकबर रोड, शाहजहां रोड, जहांगीर रोड, तुगलक रोड मानो भारतीयता को चिढाती हुई दिखती है. जो देश के लिए आक्रांता थे, जिन्होंने आक्रमण किया, जिन्होंने भारत की संस्कृति को नष्ट किया, जिन्होंने भारत की अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया, जिन्होंने अनाचार और अत्याचार किया, उनकी स्मृतियों को उनके नाम को भारत कैसे बर्दाश्त करेगा?

  अगर एक तरफ उन स्मृतियों के विरुद्ध एकजुटता है, तो दूसरी तरफ उनका समर्थन करने के लिए भी लोग तैयार हैं. विवाद की जड़ यही है, भारत का हर निवासी देश के आक्रमणकारी का विरोधी होना चाहिए. विरोधी होने के बजाय समर्थन में खड़े होने की मानसिकता का बीज ही चिंता का कारण है.

    इसी बीज को बदलने का सकारात्मक प्रयास नाम में बदलाव का विचार है. शहरों, सड़कों के नाम मंत्र जैसे उच्चारित किए जाते हैं. जो चीज बार-बार दोहराई जाती है, वह आदत बन जाती है. आक्रांताओं के नाम पर शहर और गांव दोहराते-दोहराते आदत का ही रूप ले चुके हैं. इसी आदत के कारण नाम बदलने के विचार का विरोध होता है. आदत का बदलना सबसे कठिन होता है. 

    भोपाल का ही उदाहरण लिया जाए तो समझ आ जाएगा कि नाम बदलने की कितनी प्रासंगिकता है. भोपाल में जिन जगहों के नाम बदलने की मांग हो रही है, उनमें जहांगीराबाद, शाहजहांनाबाद, नजीराबाद, मुबारकपुर, बरखेड़ा याकूब, हबीबगंज, पिपलिया हसनाबाद,औबेदुल्लागंज, पिपलिया जाहिर, पीरबरखेड़ी हजम जैसे नाम हैं. इसी से मिलते जुलते नाम दूसरे शहरों में भी बदलने की पुरजोर आवाज उठ रही है.

    जिन जगहों के नाम बदलने की बात हो रही है, उन जगहों पर उनके विरोध की मानसिकता को नाम बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता. नाम बदलने के विरोधी उस बीज को जीवित रखना चाहते हैं, जो उनमें साम्राज्य की भावना जीवित रखे. नाम बदलने के विवाद सहमति से सुलझाना बेहतर है.

    अतीत के आक्रांताओं के नाम को नायक समझना बड़ी भूल है. बदलाव प्रकृति है. अतीत पर अड़े रहना वर्तमान की अवनति है. हर सोच, हर कदम वर्तमान पर बढ़ना चाहिए. आक्रांता हमारे पूर्वज नहीं हो सकते. आक्रांताओं के नाम पर वर्तमान में विरोध समझदारी नहीं है. मुगल साम्राज्य के समय के शहरों, कस्बों और गांव का तो रूप भी अब वैसा नहीं है तो फिर, उनके नाम वैसे के वैसे कायम रखकर उन्हीं को अपना भविष्य बनाना, वर्तमान के साथ अन्याय होगा.