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उत्तर-दक्षिण में खाई जनसंख्या पर आई

सार

अभी तक कम बच्चे पैदा करने की ही अपीलें सुनीं गई थी. इसके बावजूद भारत इस समय जनसंख्या के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देश है. पहली बार ऐसा हुआ है, कि दक्षिण भारत के दो राज्यों आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं..!!

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विस्तार

    यह अपील दूसरे के लिए नहीं खुद की सियासी भलाई के लिए की जा रही है. उत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों में जनसंख्या में अंतर आ गया है. दक्षिण भारत के राज्यों में प्रजनन दर कम होने के कारण उत्तर भारत के राज्यों की तुलना में वहां बच्चों की संख्या कम हो रही है.       

    संसाधन और संसदीय सिस्टम में भागीदारी जनसंख्या के आधार पर होती है. इसलिए दक्षिण भारत के राज्यों के मुख्यमंत्री इस आशंका से घिर गए हैं कि भविष्य में उनके राज्य की राजनीतिक भागीदारी कम हो सकती है. जिससे उनका राजनीतिक अस्तित्व प्रभावित हो सकता है. इसीलिए अपने राज्य के लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं. 

    यह इतना जटिल विषय है, कि मुख्यमंत्री तो क्या सामाजिक रूप से प्रजनन की मान्य व्यवस्था में भी बच्चे पैदा करने में स्त्री की स्वतंत्रता पर सवाल खड़े करना अब असंभव हो गया है. मुख्यमंत्री की ऐसी अपील का ना कोई मतलब है और ना ही इसका कोई प्रभाव होगा. इसका केवल सियासी तांडव में उपयोग होगा.

    इसके पहले भी हम दो हमारे दो के नाम पर देश में सियासी तांडव हो चुका है. किसी ने भी इस नारे का पालन करके बच्चों के जन्म में कोई भी निर्णय नहीं किया. इंदिरा गांधी के कार्यकाल में संजय गांधी द्वारा बच्चों के जन्म के नियमन के लिए सख्त सरकारी प्रावधानों पर अमल शुरु किया था. लेकिन इसका परिणाम कुछ भी नहीं निकला. इसके विपरीत उनके सत्ता का एकाधिकार प्रभावित हुआ. कम बच्चे पैदा करने की अपील भी काम नहीं आई थी और ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील भी काम नहीं आएगी. 

    सबसे आश्चर्यजनक यह है, कि मुख्यमंत्री के पदों पर बैठे हुए नेता ऐसा मान लेते हैं, कि उनका भाषण ही शासन है. उनके नारे और अपील पब्लिक के लिए मानना जरूरी है. आए दिन पलटते सत्ता प्रतिष्ठान के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी का ही यह दुष्प्रभाव कहा जाएगा, कि जो भी इस पर बैठता है, वह स्वयं को जनता का मालिक समझ लेता है. ज्यादा या कम बच्चे पैदा करने की अपील ऐसी ही मालिकाना गलतफहमी, कही जा सकती है.

    परिवार में बच्चे का जन्म एक जटिल विषय है. कभी इसे ईश्वर की देन माना जाता था. गर्भनिरोधक उपायों के बाद प्रजनन के नियंत्रण पर स्वेच्छा से कदम उठाए गए. अभी भी कुछ धर्म मानने वाले गर्भनिरोधक अपनाने को पाप मानते हैं. इसके कारण जनसंख्या का संतुलन विभिन्न धर्मों के बीच प्रभावित हो रहा है. यह विषय अक्सर राजनीतिक जगत में चर्चा में बना रहता है. 

    देश में जनसंख्या नियंत्रण नीति के लिए कई बार मांग तो उठी है, लेकिन अभी तक इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया है. संसदीय प्रणाली के लिए जनसंख्या सबसे महत्वपूर्ण है. संख्या का अधिक समर्थन ही सरकार की चाबी की गारंटी देता है. जन्म और मृत्यु में स्पष्ट रूप से ईश्वर दिखता है. प्रजनन नियंत्रण ईश्वर पर नियंत्रण नहीं है. कोई भी बच्चों का जन्म ना किसी सरकार के लिए ना ही राज्य के लिए करता है. इस विषय पर बहस का कोई अंत नहीं है. 

    आंध्र और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के ज्यादा बच्चा पैदा करने की, अपील इसलिए चर्चा में आ गई है, क्योंकि इसके पीछे सियासी कारण स्पष्ट दिखाई पड़ रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर जनगणना की प्रक्रिया प्रारंभ होने वाली है. इस जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभा की सीटों का परिसीमन भी पाइपलाइन में है.

    महिलाओं को विधायिका में रिजर्वेशन भी उसके बाद ही मिल सकेगा. परिसीमन में राज्यों में लोकसभा-विधानसभा की सीटों का निर्धारण जनसंख्या के आधार पर किया जाएगा. जिस राज्य में जितनी जनसंख्या होगी उतनी ही लोकसभा की सीटें उस राज्य के लिए निश्चित होंगी. दक्षिण भारत के राज्यों को यही आशंका है, कि उत्तर भारत के राज्यों में अधिक जनसंख्या होने के कारण लोकसभा की सीटें बढ़ जाएंगी और राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता संतुलन में दक्षिण भारत के राज्यों की भूमिका कमजोर हो जाएगी. 

    इसी के साथ ही भारत सरकार के स्तर पर संसाधनों को बंटवारे में नीति निर्धारण के समय जो भी आधार तय किए जाते हैं, उसमें जनसंख्या एक प्राथमिक आधार माना जाता है. दक्षिण भारत के राज्य इस स्थिति को कम जनसंख्या वाले राज्यों के लिए अहितकर मान रहे हैं.

    आंध्र-तमिलनाडु सहित देश के सभी राज्य बेरोजगारी और गरीबी से गुजर रहे हैं. यह बात सही है, कि दक्षिण भारत के राज्यों में उत्तर भारत के राज्यों की तुलना में प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा की स्थिति, भोजन की स्थिति सब कुछ बेहतर है. दक्षिण के राज्यों में जनसंख्या पर नियंत्रण किसी सरकार के कारण नहीं आया है. बेहतर शिक्षा और बेहतर जागरूकता के कारण लोगों ने अपने बच्चों के भविष्य के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण किया है. 

    इसी कारण वहां बच्चों को सारी सुविधाएं दूसरे राज्यों से बेहतर मिलती हैं. सभी राजनीतिक दल गरीबी, बेरोजगारी और दरिद्रता का सत्ता दोहन करने में कोई कमी नहीं छोड़ते. मुक्तखोरी की योजनाएं इसके उदाहरण हैं. जब वर्तमान जनसंख्या में ही ऐसी हालत है, तो फिर जनसंख्या बढ़ने से तो हालात और बिगड़ेंगे. कोई भी परिवार अपना और अपने बच्चों का भविष्य खराब करने के लिए ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए किसी कीमत पर तैयार नहीं हो सकता.

    तमाम मेडिकल सुविधाओं के बाद भी बहुत सारे परिवार ऐसे हैं, जिन्हें बच्चों का सुख नहीं मिलता. इस दिशा में सरकारों को प्रयास करना चाहिए, कि हर परिवार को यह सुख नसीब हो. इसके लिए चाहे चिकित्सा सुविधाएं हों चाहे अन्य सुविधाएं उनके विस्तार करने की तरफ, सरकारों को कदम उठाना चाहिए. इससे जहां सभी परिवारों को बच्चों का सुख मिलेगा, वहीं जनसंख्या अपने आप बढ़ सकती है. इसके साथ ही जनसंख्या नियंत्रण और संतुलन भी जरूरी है. 

    कई राज्यों में पहले ऐसे प्रावधान किए गए थे, कि दो बच्चों से ज्यादा बच्चों के अभिभावक स्थानीय चुनाव में शामिल नहीं हो सकते. यद्यपि बाद में ऐसे प्रावधानों को वापस ले लिया गया था. लेकिन अधिकतम संख्या तो निश्चित रूप से निर्धारित की जानी चाहिए.

    यह विचार भी कई बार आया कि कोई ज्यादा बच्चे पैदा करता है, तो करे लेकिन शासन की ओर से मिलने वाली सुविधाएं नीति के अनुरूप निर्धारित बच्चों की संख्या तक ही मिलेगी. इसके बाद उस परिवार को सुविधा नहीं मिलेगी. इस पर धार्मिक स्तर पर विवाद है. अल्पसंख्यक विशेष कर मुस्लिम समुदाय को इस पर आपत्ति है. 

    आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की अपील के बाद मुस्लिम समाज की ओर से कई धर्म गुरुओं के ऐसे बयान आ रहे हैं, जिसमें कहा जा रहा है, कि उनका समाज तो पहले से ही ज्यादा बच्चों की हिमायत करता रहा है. अब देखो सियासी नेता भी इसे स्वीकार कर रहे हैं. 

    देश की प्रजनन दर 1980 में 4.6 से घटकर 2021 में 1.91 हो गई है. यह किसी सरकारी प्रयास से संभव नहीं हुआ है. शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार तथा लोगों की जागरुकता से यह संभव हुआ है. 

    स्त्रियों के लिए परिवार और केरियर के बीच संतुलन भी एक महत्वपूर्ण विषय है. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने बिना महिलाओं की समानता की कल्पना बेमानी होगी. ज्यादा बच्चे की अपेक्षा स्त्रियों को समानता से पीछे धकेलता है.

    उत्तर और दक्षिण में खाई के कारण ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील केवल सियासी डील बनकर रह जाएगी. ऐसे नारे ना पहले कोई मानता था, ना आगे कोई मानेगा. लोग अपने फैसले खुद लेने में सक्षम हैं,यही सक्षमता देश की जनसंख्या नीति का आधार है और रहेगी.