भारत की वर्ण और जाति व्यवस्था सदियों से विवादों को जन्म देती रही है. आजादी के पहले जातियों का जो ताना-बाना था उसका विकृत-विकराल नया स्वरूप हर दिन बढ़ता जा रहा है. राजनीति तो जैसे जातियों के अंकगणित पर ही केंद्रित हो गई है. संसदीय शासन प्रणाली जातीय आधार पर ही खड़ी हुई दिखाई पड़ती है. कोई भी विवेकशील व्यक्ति देश में जातिवाद के अनंत जाल को देखकर दुखी और निराश हो सकता है.
जातिवाद की वास्तविकता और सच्चाई से मुंह मोड़ना आज असंभव सा हो गया है. कितना भी शिक्षित और प्रबुद्ध व्यक्ति हो वह भी जातिवाद के द्वन्द से बचा नहीं रह पा रहा है. जातिवाद देश के विकास को प्रभावित करने लगा है. जातिवाद के दंश को समाप्त करने के बजाय राजनीतिक कारणों से इसको लगातार बढ़ाया जा रहा है.
देश में आज एक नया विवाद खड़ा हो गया है. चिंतक विचारक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के इस बयान पर विवाद खड़ा हो गया है कि ‘कोई भी ऊंचा नीचा नहीं है शास्त्रों का आधार लेकर पंडित लोग जो ऊंच नीच की बात कहते है वह झूठ है, जाति की श्रेष्ठता की कल्पना में ऊंच नीच में अटक कर हम गुमराह हो गए हैं'.
इस बयान पर पंडितों (ब्राह्मण) में गहरी प्रतिक्रिया हुई है. कहीं-कहीं नाराजगी भी प्रगट की जा रही है. यद्यपि संघ की ओर से यह स्पष्टीकरण दिया जा चुका है कि ‘पंडित’ से आशय ‘विद्वान’ से रहा है.
जाति किसने बनाई इस पर ठीक-ठीक कुछ भी कहना तर्कसंगत नहीं होगा. सबसे पहला सवाल कि पंडितों ने जाति बनाई तो पंडितों को किसने बनाया? हिंदू समाज में तो जातियों के लिए पंडितों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है लेकिन विभिन्न धर्म किसने बनाए? हिंदू मुस्लिम सिख जैन यह तो पंडितों ने नहीं बनाई. इनके लिए भी क्या किसी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा?
वेद-उपनिषद और शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था की चर्चा है. वर्ण का निर्धारण कर्म के आधार पर होता रहा है, जो कालांतर में जाति के रूप में स्थापित हो गया. धीरे-धीरे उसका स्वरूप और जटिल होता गया. गूगल में सर्च करने पर पंडित शब्द का मतलब निपुण, कुशल, ज्ञानी और विद्वान बताया गया है. निपुणता, कुशलता, विद्वता और ज्ञान किसी जाति के लिए निर्धारित नहीं है. यद्यपि समाज में ऐसी धारणा बनाई गई है जैसे विद्वता और ज्ञान का क्षेत्राधिकार ब्राह्मण का है.
आधुनिक समय में तो तकनीकी और आधुनिक विषयों में निपुणता और कुशलता का अध्ययन किया जाएगा तो पता चलेगा कि सभी जातियों और समुदायों के लोग विशिष्टता के साथ समाज में स्थापित हैं और समानतापूर्वक सतत आगे बढ़ रहे हैं.
समाज में अनेक विकृतियां हैं. इसी में जाति व्यवस्था भी एक है. किसी भी विकृति के लिए किसी एक समूह को जिम्मेदार ठहराने से समाज में बिखराव बढ़ने की आशंका रहती है. कश्मीरी पंडितों के साथ जम्मू कश्मीर में क्या हुआ है, यह सब भारतवासी जानते हैं. कश्मीर फाइल्स फिल्म के जरिए कश्मीरी पंडितों के दर्द को हाल ही में भारत ने देखा है.
जम्मू कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को विलेन के रूप में देखा गया. उसके बाद ही वहां पर ऐसे हालात बने कि आज कश्मीरी पंडित कश्मीर घाटी में रहने के लिए तैयार नहीं हैं. इतने कटु अनुभव के बाद भी किसी समूह खासकर पंडित समुदाय को जाति व्यवस्था के लिए जिम्मेदार बनाना समाज हित में कैसे कहा जा सकता है?
आजादी के बाद से ही भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में बहुमत के लिए जातिवाद के जहर को बढ़ावा दिया जा रहा है. बहुत सारे राजनीतिक दल तो जाति के आधार पर ही खड़े किए गए हैं. चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत, जातिगत आधार पर राजनीतिक दलों में सत्ता हासिल करने की कोशिश में जाति के जहर को बढ़ाने का महापाप किया गया है.
उत्तरप्रदेश में तो एक दौर था, जब बहुजन समाज पार्टी तिलक-तराजू और तलवार के नारे के साथ पंडितों के खिलाफ आग उगल रही थी. जनसंख्या की दृष्टि से पंडितों की तादाद देश में तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक नहीं है. लोकतंत्र में संख्या ही महत्वपूर्ण है. जाति और धर्म का विभाजन सामाजिक जीवन में तो धीरे-धीरे कम होता जा रहा है लेकिन राजनीतिक कारणों से इसे लगातार हवा और पानी देने का काम किया जा रहा है.
सरसंघचालक मोहन भागवत विचारशील व्यक्ति हैं. इसलिए समाज से जुड़े मुद्दों पर अपनी राय बेबाकी के साथ रखते हैं. इसके पहले भी उनके द्वारा आरक्षण पर विचार रखे गए थे उस समय भी विरोध का सामना करना पड़ा था. उनकी ओर से भारत की संस्कृति हर भारतवासी के एक डीएनए की अवधारणा सामने रखी गई है.
जनसंख्या की दृष्टि से पंडितों की तादाद भले ही कम हो लेकिन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से समाज में पंडितों ने अपनी भूमिका को फेवीकोल जैसा स्थापित कर रखा है. समाज के सभी वर्गों को जोड़कर रखने का महत्वपूर्ण काम यह समाज करने में सक्रिय रहता है. देश की संस्कृति, शास्त्र और धार्मिक अनुष्ठानों का पंडितों द्वारा ही नेतृत्व किया जाता है.
आजादी के बाद से ही देश में जातियों के आधार पर पंडितों के साथ टकराव की परिस्थितियां देखी गई हैं. पंडितों द्वारा पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन और मंदिर प्रबंधन की ऐतिहासिक भूमिका को तोड़ने के लिए महात्मा गांधी ने भी अछूतोद्धार और मंदिरों में प्रवेश के आंदोलन चलाए थे. जब समाज में पंडितों द्वारा जो भी किया गया है उसे एक विकृति के रूप में देखा जा रहा है तो फिर पंडितों की आस्था और उनकी जीवन चर्या और कामकाज में अधिकार और भागीदारी की मांग कहां तक जायज मानी जाएगी?
आजादी के बाद सरकारों ने दलित और पिछड़ों को मंदिर में पुजारी बनाने के लिए बकायदा योजनाएं घोषित की थीं. अयोध्या में निर्माणाधीन भगवान श्री राम के मंदिर के लिए बनाए गए ट्रस्ट में भी जाति का संतुलन बनाने की पीछे शायद यही सोच हो कि हिंदू समाज एकजुट रहे. भारत में संसदीय शासन प्रणाली में केंद्र और राज्यों में आज जो संवैधानिक रूप से सरकारें और सिस्टम काम कर रहा है उसमें तो पंडितों की भूमिका लगातार कम होती जा रही है. आरक्षण के माध्यम से समानता के नाम पर जिस तरह की उपलब्धियां हासिल हो रही हैं उस पर पंडितों को तो कोई एतराज नहीं है.
जाति व्यवस्था कोई अभी का विषय नहीं है. त्रेता और द्वापर युग में भी जाति व्यवस्था थी. भगवान राम, रावण, शबरी, केवट अलग-अलग जातियों से आते हैं. इसी प्रकार द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने यदुवंश में अवतार लिया था. भारतीय संस्कृति में रावण को महापंडित माना गया है लेकिन देश में रावण की पूजा नहीं की जाती. बुराई के प्रतीक रावण का दहन हमारी परंपरा है. जाति व्यवस्था किसी ने भी बनाई हो लेकिन अगर यह बुराई है तो उसका दहन सबको मिलकर करना चाहिए.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश में हिंदू हितों की रक्षा के लिए काम कर रहा है. संघ नहीं होता तो शायद हिंदुओं की वर्तमान स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती थी. राजनीति में हिंदुत्व आज मुख्यधारा में है तो क्या हिंदुत्व की अवधारणा को पंडितों ने बनाया है? भारत की जीवन पद्धति जो सदियों के साथ विकसित हुई है उसके लिए किसी समुदाय को ना तो दोषी ठहराया जा सकता है और ना ही श्रेय दिया जा सकता है. समाज के विकास की यह परंपरा है. सामाजिक धारणाओं को इस ढंग से ना तो बनाया जा सकता है और ना ही तोड़ा जा सकता है.
राष्ट्रीय सेवक संघ में अभी तक जितने भी सरसंघचालक रहे हैं. हेडगेवार से शुरू होकर मोहन भागवत तक सभी सरसंघचालक ब्राहमण अथवा क्षत्रिय रहे हैं. इसका मतलब यह तो नहीं कि संघ को ब्राह्मणवादी कहा जा सकता है. संघ तो समाज के सभी समुदायों की सेवा के लिए काम कर रहा है. यहां तक कि संघ मुस्लिमों के बीच में भी सेवा को अंजाम देने में जुटा हुआ है. सेवा की न कोई जाति होती है और न कोई धर्म होता है.
आज देश में जरूरत एकात्म मानववाद की है. किसी जाति धर्म से पहले व्यक्ति इंसान हैं. मानव सबसे बड़ा धर्म है और मानव ही सबसे बड़ी जाति है. जातिवाद का जो विकराल स्वरूप राजनीतिक कारणों से पैदा किया जा रहा है उससे देश को बचाने की जरूरत है. संघ जैसे वैचारिक और सांस्कृतिक संगठन पर यह अहम जिम्मेदारी है कि समाज में एकजुटता के लिए काम को अब तेज़ करे.
पंडितों द्वारा जो प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जा रही है वह भी आवश्यक नहीं है. भले ही बुराई के रूप में सही लेकिन पंडितों की भूमिका को स्वीकार तो किया गया है कि उसने कुछ तो बनाया है. जिसमें बनाने की क्षमता है, सृजन की क्षमता है, बुरा काम करेगा तो दूसरा अच्छा काम भी करेगा. आज देश में जो अच्छी चीजें हैं उसके लिए भी पंडितों को श्रेय दिया जाना चाहिए. पंडितों का निष्ठापूर्वक अपनी भूमिका का निर्वहन करने में सलंग्न रहना ही समाज की एकजुटता और देश के विकास के लिए जरूरी है. मोहन भागवत पंडितों के खिलाफ वैसे भी कुछ नहीं कह सकते हैं क्योंकि वे स्वयं पंडितों के वंश के ही गौरव हैं.