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गठबंधन की रेस, गिरगिट का फेस

सार

​​​​​​​राजनीति में मोहब्बत और नफरत सिर्फ इमोशन नहीं बल्कि जरूरत होती है. गठबंधनों का बनना और बिखरना,यह सब जरूरत के आधार पर तय होता है..!!

janmat

विस्तार

    लोकसभा चुनाव में जिस गठबंधन की जरूरत थी वह दिल्ली के चुनाव में जरूरी नहीं लगता इसीलिए कांग्रेस और आप में दरार पड़ गई है. भले ही दोनों का बड़ा राजनीतिक दुश्मन बीजेपी हो, लेकिन यहां कोई भी दो दल एक साथ चुनाव लड़ नहीं सकते. त्रिकोणीय मुकाबले में कांग्रेस अगर थोड़ा बहुत भी दम दिखा पाई, तो इसका नुकसान आम आदमी पार्टी को होगा. उनको नुकसान होगा तो बीजेपी अपने लाभ की उम्मीद कर सकती है. यही चुनावी राजनीति इंडिया गठबंधन के बिखराव का कारण बन रही है. 

    छह महीने पहले ही एक गठबंधन में कांग्रेस और आप जब खडे़ हुए थे, तब भी राजनीतिक पंडितों ने ऐसे तकरार की कल्पना कर ली थी. जो आप, कांग्रेस को बदनाम कर उसके जनाधार को हथिया कर सत्ता हासिल कर सकी, उसके साथ कांग्रेस ने गठबंधन करने की गलती की तो इसका दुष्परिणाम सामने आना ही था. 

    कांग्रेस अब अरविंद केजरीवाल को एंटी-नेशनल कह रही है. अब उन्हें वह झांसालाल दिख रहे हैं. कांग्रेस आम आदमी पार्टी के खिलाफ़ थाने में एफआईआर कर रही है. दिल्ली की मुख्यमंत्री कांग्रेस और बीजेपी के बीच मिलीभगत का आरोप लगा रही हैं. दोनों दलों के बीच टकराव इस सीमा तक बढ़ गया है कि, आप कांग्रेस को इंडिया गठबंधन से निकलवाने की धमकी दे रही है.

    जब भी कांग्रेस सत्ता से दूर होती है, तब गठबंधन का सहारा लेती है. कांग्रेस और गठबंधन का इतिहास तो यही बताता है कि, कांग्रेस गठबंधन बनाती है और उसका उपयोग कर गठबंधन को ही खा जाती है. कांग्रेस के साथ बना कोई भी गठबंधन अब तक चल नहीं पाया है. इंडिया गठबंधन के साथ भी यही हो रहा है. 

    लोकसभा चुनाव में ना ममता बनर्जी ने बंगाल में गठबंधन किया, ना आम आदमी पार्टी ने पंजाब में किया. विधानसभा चुनाव के समय मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी को किनारे लगाया तो हरियाणा में कांग्रेस ने किसी भी दल को गठबंधन में शामिल नहीं किया. 

    दिल्ली का चुनाव मुख्यतः बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच लड़ा जाना है. कांग्रेस का बहुत ज्यादा जनाधार बचा नहीं है लेकिन अगर कांग्रेस ने ताकत के साथ चुनाव लड़ा तो फिर आम आदमी पार्टी को ही नुकसान होगा. आप यह अच्छी तरह से जानती है कि, कांग्रेस और उसके जनाधार में समानता है, खासकर मुस्लिम वोट बैंक पर दोनों दलों की नज़र है, बीजेपी इस वोट बैंक से दूर है.

    महाराष्ट्र चुनाव परिणाम के बाद इंडिया गठबंधन के नेतृत्व को लेकर भी सवाल खड़े हुए थे. राहुल गांधी की लीडरशिप पर गठबंधन में मतभेद हैं. ममता बनर्जी ने गठबंधन के नेतृत्व की मंशा जाहिर की थी. गठबंधन के अनेक सहयोगियों ने उनकी इस इच्छा का समर्थन किया था. यहां तक कि कांग्रेस के सबसे प्रबल समर्थक लालू प्रसाद यादव ने भी ममता बनर्जी के पक्ष में राय दी थी. अब आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच टकराव के कारण इंडिया गठबंधन में बिखराव साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है.

    दिल्ली के बाद बिहार में चुनाव होने हैं, उसके बाद उत्तर प्रदेश में पश्चिम बंगाल में भी चुनाव होंगे. इन तीनों राज्यों में कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दलों को टकराव निश्चित है. अखिलेश यादव तो कभी इंडिया गठबंधन की बात भी नहीं करते, वह तो हमेशा पीडीए की बात करते हैं. लोकसभा में जरूर कांग्रेस को उन्होंने सीटें दी थी लेकिन विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं दी.

    विधानसभा चुनाव में बंगाल में कांग्रेस से तो ममता बनर्जी के गठबंधन का तो सवाल ही नहीं है. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल भी कांग्रेस को गठबंधन में बहुत कम सीटें देने की कोशिश करेगा. पिछले विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के प्रत्याशियों की जीत का एवरेज, कांग्रेस से बहुत ज्यादा था. अगले लोकसभा चुनाव के पहले राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन का कोई दृश्य दिखाई नहीं पड़ रहा है. 

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि, बिना किसी राष्ट्रीय दल के कोई भी गठबंधन चल नहीं सकता है. राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस ही हैं, जो अपने साथ गठबंधन को चला सकते हैं. बीजेपी तो एनडीए चला रही, लेकिन कांग्रेस की गठबंधन की राजनीति फेल हो गई लगती है. जब तक कोई राष्ट्रीय दल नहीं होगा तब तक तीसरे मोर्चे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.  

    तीसरे मोर्चे  की कहानी हमेशा असफल ही रही है. बिहार में नीतीश कुमार महत्वपूर्ण फैक्टर बने हुए हैं, जो गठबंधन की धुरी को अपने साथ जोडे़ रखते हैं. फिलहाल वह एनडीए के साथ है. इंडिया गठबंधन के विचार की शुरुआत ही नीतीश कुमार ने की थी. जब शुरू करने वाला ही गठबंधन से बाहर चला गया था तभी यह लग रहा था कि, यह गठबंधन बहुत लंबा नहीं चलेगा. यद्यपि यूपी और महाराष्ट्र में कांग्रेस को गठबंधन का लाभ मिला और उसकी लोकसभा सीटों में अप्रत्याशित इजाफा हुआ. 

    विधानसभा चुनाव में गठबंधन इसलिए संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि क्षेत्रीय दल ही राज्य में ज्यादा ताकतवर हैं. कांग्रेस का जनाधार नगण्य स्थिति में है. राज्यों में गठबंधन से कांग्रेस को अलग रखने का एक कारण यह भी होता है कि, मुस्लिम वोट बैंक पर क्षेत्रीय दलों का कब्जा है, अगर कांग्रेस को क्षेत्रीय दल अपने साथ मौका देते हैं तो फिर मुस्लिम वोट बैंक खिसकने का ख़तरा पैदा हो जाता है. यह ख़तरा कोई भी क्षेत्रीय दल उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता.

    यह तो लगभग सुनिश्चित लग रहा है कि, कांग्रेस अपने अकेले बलबूते पर केंद्र की सरकार में वापसी नहीं कर सकती. कांग्रेस के गठबंधन की राजनीति पर क्षेत्रीय दलों को विश्वास नहीं है. गांधी परिवार की लीडरशिप कांग्रेस की नैया पार लगाने की अपनी क्षमता और दक्षता साबित नहीं कर पा रही है. बीजेपी का कट्टर विरोध ही कांग्रेस की गठबंधन सियासत को ताकत दे सकता है. 

    देश में केवल राष्ट्रीय जनता दल ही एकमात्र दल है, जिसने अभी तक बीजेपी के साथ कभी भी मिलकर सरकार नहीं चलाई है. इसके अलावा देश में कोई भी दल नहीं है जो बीजेपी के साथ सरकार में  नहीं रहा हो. यहां तक कि समाजवादी पार्टी और ममता बनर्जी भी बीजेपी के साथ सरकार में रह चुकी हैं. इसलिए बीजेपी का कट्टर विरोध कांग्रेस का पक्ष हो सकता है लेकिन बाकी दल ज़रूरत के हिसाब से अपना पाला बदलते हुए दिखाई पड़ सकते हैं. 

    गठबंधन की रेस को गिरगिट का फेस भी कहा जा सकता है. जिसको रंग बदलने में कुछ समय नहीं लगता. कांग्रेस और आप सीढ़ी और सांप जैसा एक दूसरे को साधने और डसने में लगे हुए हैं. साथ भी और डंक भी सियासत का ही रंग हो सकता है.