बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में 10 हाथियों की मौत का रहस्य अभी खुला नहीं है. भविष्य में हाथियों को बचाने के एक्शन प्लान बनाए जा रहे हैं. टास्क फोर्स बन गई है,वन विभाग के अफसर दूसरे राज्यों में हाथी प्रबंधन का अध्ययन करने जा रहे हैं. हाथियों के मौतें पहले भी होती रही हैं. इस बार एक साथ ज्यादा हाथी मौत का शिकार हुए हैं. हाथियों की मौत वन्यप्राणी प्रबंधन राणनीतियों की मौत कही जाएगी..!!
सर्वाधिक पावरफुल हाथी को भी महावत नियंत्रित कर लेता है. जंगल और वन्यप्राणी मध्य प्रदेश की शान हैं. प्रदेश में पर्यटन की जान हैं. कहने के लिए तो जंगल का राजा शेर होता है, लेकिन वनप्रबंधन के अफसरों के आगे वन्यप्राणी रंक जैसे ही रहते हैं. वन अफसरों के संरक्षण में लगातार बढ़ रहे जंगल में मंगल से वन्य प्राणियों का अमंगल हो रहा है.
जंगल के अफसरों में प्राकृतिक ऊर्जा ज्यादा होना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से पाशविक ऊर्जा अधिक बढ़ जाती है. वनों के प्रबंधन में लापरवाही अक्सर सामने आती है. वन्यप्राणियों का शिकार भी मिली भगत का ही नतीजा होते हैं. बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व तो जैसे दुर्भाग्य का शिकार है. 3 साल में 93 बाघ इस टाइगर रिजर्व में मरे हैं.
टाइगर रिजर्व के आसपास जिस तरीके से मानव बसाहट विकसित हुई है, होटल और रिसॉर्ट धनपतियों के धन भंडार में लगातार बढ़ोतरी कर रहे हैं. जब भी वन्य प्राणियों की मौत होती है, ऐसे ही हंगामा बरपता है. फिर धीरे-धीरे जंगल में मंगल के रास्ते पर सब वापस आ जाते हैं.
सियासी शूरवीर भी एक्शन प्लान के सारे तीर छोड़ते हैं. अब तक का अनुभव तो यही बताता है, कि सभी तीर हवा में ही करतब दिखाते हैं. जमीन पर तो वही होता है, जो हमेशा होता रहा है. वन्य प्राणी पहले भी मरते रहे हैं. बड़ी तादात में मरते रहे हैं और आज भी ऐसी घटना हुई है. अब तो ऐसा लगने लगा है, कि जो भी वन्य प्राणी बचे हैं, वह सब अपने भाग्य और प्रकृति की व्यवस्था के कारण बचे हैं.
इसमें वन प्रबंधन की कोई भूमिका नहीं है. किसी भी घटना के बाद प्रतिक्रिया का कोई औचित्य नहीं है. अगर कोई व्यवस्था ऐसा दावा कर सकती है, कि उसके प्रबंधन के कारण घटना हो ही नहीं सकती तब तो प्रबंधन का कोई औचित्य है, अन्यथा केवल वेतन पर नौकरी ही कही जाएगी.
जंगल महकमा अपने खुद के सियासी सूरमाओं के और ब्यूरोक्रेटिक शूरवीरों के प्रियजनों को जंगल में मंगल कराने में ज्यादा व्यस्त रहते हैं. जंगल पर जो आबादी अपने जीवन निर्वहन के लिए निर्भर है, उसकी तो मजबूरी कहीं जा सकती है. बांधवगढ़ को टाइगर रिजर्व में हाथियों की मौत पर जो एक्शन लिया गया है, वह भी सिस्टम की मौत का ही इशारा कर रहा है, जो अधिकारी अपनी मां के इलाज के लिए पहले से ही अवकाश स्वीकृत कराकर गया हुआ है, उसको निलंबित कर दिया गया है.
वैसे निलंबन कोई सजा नहीं है, फिर भी जो जिम्मेदार है उस पर ही कार्रवाई होना चाहिए. जो ड्यूटी पर ही नहीं है, सरकार की अनुमति से कार्य से अनुपस्थित है, तो फिर उस पर ठीकरा फोड़कर दंडित करने का तो मतलब केवल इतना है, कि तात्कालिक रूप से यह दिखा दिया जाए, कि कार्रवाई कर दी गई है. बाद में तो निलंबन समाप्त ही हो जाएगा.यह कार्रवाई ही जंगल प्रबंधन का सबसे बड़ा उदाहरण है.
सरकारी सिस्टम अपनी वांछित सफलता शायद इसीलिए नहीं प्राप्त कर पाते, क्योंकि सब कुछ तदर्थ रूप से चलता है. सुंदर-सुंदर पोस्टर और पब्लिकेशन में सरकार की योजनाएं और रणनीतियां जितनी सुंदर दिखती हैं, अगर वह जमीन पर उतर जाएं तो कोई भी राज्य विकास की अपनी मंशा पूरी कर सकता है.
मध्य प्रदेश तो इस मामले में कुछ ज्यादा ही सौभाग्यशाली है. समय-समय पर सरकारों की विकास योजनाओं और रणनीतियों को अगर देखा जाए, तो मध्य प्रदेश 'स्वर्णिम' बन चुका है. 'आत्मनिर्भर' बन चुका है. अब विकसित मध्य प्रदेश की कार्य योजना बनाने की तरफ मध्य प्रदेश बढ़ रहा है.
स्वर्णिम और आत्मनिर्भर मध्य प्रदेश का ब्रांड विकसित करने के लिए करोड़ों रुपए का जनधन खर्च किया गया. सरकारी सिस्टम पूर्व में किए गए, ऐसे किसी भी प्रयास की, जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता. जब तक कुर्सी पर हैं, तब तक ही पद की जिम्मेदारी निभाना उसका दायित्व है. उसके पहले क्या हुआ था,उस कमिटमेंट के बारे में वह या तो अनभिज्ञ रहता है, या जानबूझकर आंखें मूंदे रहता है.
मध्य प्रदेश सरकार का 'आत्मनिर्भर मध्य प्रदेश रोड मैप 2023' अगर कोई देख ले, तो उसकी आंखें भर आएंगी. कितनी मेहनत से इस दस्तावेज को बनाया गया था. इसी दस्तावेज़ में बफर में सफ़र मुहिम के माध्यम से मॉनसून पर्यटन को बढ़ावा देने की गतिविधियां निश्चित की गई थीं.
'अमरकंटक, रामायण सर्किट, तीर्थंकर सर्किट ओमकार सर्किट, नर्मदा परिक्रमा रूरल सर्किट एवं ट्राइबल सर्किट' जैसे थीम आधारित सर्किट को विकसित करने के लिए समय सीमा निर्धारित की गई थी. मध्य प्रदेश में यह सारे सर्किट केवल नाम में ही सुने जा सकते हैं, जमीन पर इनके अभी कोई भी चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते हैं.
वन्य प्राणी संरक्षण के लिए भी ना मालूम कितनी योजनाएं बनाई गई हैं. इन कार्य योजनाओं पर जनता का धन खर्च भी हो जाता है, लेकिन उनके परिणाम तभी समझ आते हैं, जब हाथियों की मौत जैसी घटनाएं सामने आती हैं.
हाथियों की मौत पर जो भी हाहाकार मच रहा है, वह शमशान वैराग्य जैसा ही लगता है. मौत की सुर्खियां दब जाएंगी. फिर रिएक्शन-एक्शन प्लान के कागज भी इधर-उधर बिखरे मिल जाएंगे. वन्य प्राणी और मानव द्वंद से जनहानि भी एक अहम मुद्दा है. इसके बीच में संतुलन ही वन प्रबंधन का अहम दायित्व है.
जंगल विभाग के जितने भी रेस्ट हाउस हैं, उनमें कभी जगह नहीं मिलती. हमेशा कोई ना कोई व्हीआईपी या उनके प्रियजनों के सम्मान में आरक्षित रहते हैं. जंगल विभाग के अफसर के लिए तो जंगल ही घर है. जब हाथियों की यह हालत है, तो चीटियों की क्या विसात है.
पदों की ही चिंता है. पावर की ही चिंता है. जो संवेदना और रिएक्शन हाथियों की मौत पर दिख रहा है, वह भी पद की ही चिंता है. फॉरेस्ट विभाग के अफसरों और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर पावर के लिए लड़ रहे हैं. वन विभाग के अफसर की सीआर का अप्रेजल वैसे तो जंगल के रंक वन्य प्राणियों को करना चाहिए. हाथियों की मौत से बड़ा अप्रेजल क्या हो सकता है. मध्य प्रदेश सरकार ने आईएएस अफसर को इस अप्रेजल की प्रक्रिया में जोड़ दिया है, तो वन अफसर हाय तौबा मचा रहे हैं.
जंगल खुशी देते हैं. ऊर्जा देते हैं. वन प्रबंधन के लिए जिम्मेदार अफसरों में ना यह खुशी दिखती है, ना यह ऊर्जा दिखती है, दिखता है तो केवल पावर का संघर्ष और खुदगर्जी का विमर्श.