संविधान दिवस पर संविधान के पथ पर पक्ष और विपक्ष एक मंच पर दिखे. पथ एक ही है लेकिन मान्यता पर विवाद है. 75 साल पहले संविधान सभा ने जहां संविधान को अंगीकार किया था, वही संविधान के सारे पथिक इस दिवस पर एकत्रित हुए. संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति थे तो संसद के संरक्षक लोकसभा अध्यक्ष थे. लोकसभा के नेता प्रधानमन्त्री भी थे, तो नेता प्रतिपक्ष भी उसी मंच पर उपस्थित थे.
संविधान के इस सबसे बड़े मंच पर संसदीय प्रणाली के पक्ष और विपक्ष, दोनों मौन थे, जबकि संविधान के नाम पर लड़ाई नुक्कड़ सभाओं तक हो रही है. यह नजारा ही संविधान पर मान्यताओं का विवाद दिखा रहा है. संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर उसकी उद्देशिका को दोहराया गया. संविधान भवन में इस संवैधानिक समारोह में संस्कृत और मैथिली भाषा में संविधान का लोकार्पण किया गया. मूल संविधान की कलाकृतियों पर भी एक पुस्तक प्रकाशित की गई है. यह सारे प्रकाशन संविधान की 75 साल की यात्रा में आए बदलाव को रेखांकित कर रहे हैं. इसी बदलाव में विवाद की बुनियाद भी छिपी है.
यह सोचने का विषय है कि भारत की देव भाषा संस्कृत में संविधान सामने आने में पूरे 75 साल का समय लग गया. संविधान में भारत की संस्कृति और सभ्यता को कला चित्रों के माध्यम से शामिल किया गया है. यद्यपि शब्दों को ही संविधान माना गया है. कला चित्रों को संविधान का हिस्सा नहीं मान्य किया गया.
संसदीय प्रणाली और संविधान जीवंत होता है. यह ऐसा दस्तावेज नहीं है, जिसमें एक बार जो लिख दिया गया, वहीं अंतिम है. संविधान बनाने वाले दूरदर्शी नेताओं ने जनकल्याण के लिए संविधान में बदलाव के अवसर दिए हैं. इतिहास बताता है कि, कई बार यह बदलाव नेगेटिव साबित हुए, फिर भी बदलावों को स्वीकार किया गया. इमरजेंसी भी संविधान की यात्रा का एक पड़ाव था.
संविधान का पथ एक है लेकिन संसदीय प्रणाली की राजनीतिक व्यवस्था की विचारधाराएं अनेक हैं. इन्हीं विचारधाराओं की मान्यता का विवाद संविधान के साथ जोड़ा जाता है. यह विवाद ऐसे ही हैं, जैसे आस्तिक और नास्तिक के विवाद. संविधान की वर्षगांठ पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की एक बहुत सार्थक टिप्पणी है कि, उन्हें संविधान पर नहीं सिखाया जाए. पार्टी ने बीते 75 साल में 54 साल तक संविधान पर सरकार चलाई है. इन्हीं वर्षों की एक तरफा सोच और सिलेक्टिव एक्शन, अब जब बदल रहे हैं तब विवाद होना स्वाभाविक है.
अब कम से कम यह कहा जा सकता है कि, भारत का संविधान पूरे देश में लागू है. संविधान की धारा तीन सौ सत्तर समाप्त होने के पहले जम्मू कश्मीर में भारत का संविधान लागू नहीं था. एक पक्ष इसको सही मानता है, दूसरा पक्ष इसे भारत के स्वाभिमान के खिलाफ मानता है. संसदीय प्रणाली के विभिन्न पक्षों की अपनी अपनी राय है लेकिन अंतिम निर्णय तो जनादेश की राय पर तय होगा. यूनिफॉर्म सिविल कोड पर विवाद है. एक पक्ष इसको संविधान की आत्मा मानता है तो दूसरा पक्ष सिविल कोड के मामले में एक विशेष समुदाय के धार्मिक कानून को मान्यता देना चाहता है.
सामाजिक न्याय के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था पर दोनों पक्ष ताकत के साथ एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं. इस पर संवैधानिक विवाद तो नहीं है लेकिन आरक्षण खत्म करने या कम करने के नाम पर राजनीतिक विवाद और फेक नेरेटिव चौक चौराहों तक फैलाए गए. हर पक्ष अगर अपने मन का संविधान चाहेगा तो फिर तो संविधान का अस्तित्व ही खतरे में पड़ना तय है.
संविधान एक है लेकिन इंसान अलग-अलग हैं. इंसानियत एक है लेकिन काम, क्रोध, मद, लोभ की सोच अलग-अलग है. बंधुता एक है लेकिन बंधु अलग हैं. समानता संविधान की मंशा है लेकिन एक ही देश में दो तरह के कानून चल रहे हैं. वक्फ़ बोर्ड के समान सनातन बोर्ड की मांग, संविधान का ही मार्ग है.
इंसानियत और मानवता सबसे बड़ा संविधान है. सभ्यता और संस्कृति से अलग कोई भी संविधान नहीं हो सकता. संसदीय प्रणाली बहुमत पर खड़ी है, इसलिए विभाजन मान्य मजबूरी है. अधिकारों पर सब सजग हैं लेकिन कर्तव्यों के प्रति ढीलापन साफ दिखता है. बिना कर्तव्य के अधिकार कोई भी संविधान गारंटी नहीं दे सकता.
संसदीय प्रणाली का मूल राजनीतिक दल है. राजनीतिक दलों के भी अपने संविधान हैं लेकिन कोई भी दल, संविधान पर चलता नहीं है. हर दल व्यक्तिवाद का शिकार है. परिवारवाद भी बड़ी संख्या में दलों को कब्जे में लिए हुए हैं. जातिवाद भी बहुमत पाने का ही तरीका बन गया है. हिंदू - मुस्लिम तुष्टिकरण, संतुष्टीकरण संविधान की मंशा नहीं है लेकिन संसदीय प्रणाली की बुनियादी बीमारी बन गई है.
संविधान पर चौक चौराहों पर सियासत पहली बार शुरू हुई है. जनादेश जब किसी को क्रोध पैदा करेगा तो फिर संविधान पर राजनीति होना स्वाभाविक है. जो लोग स्वयं को बचाने में सक्षम नहीं है वह संविधान को बचाने का दावा सभाओं में करते हैं. संविधान हमारा स्वाभिमान है लेकिन सभा में राजनीतिक किताब के रूप में संविधान का उपयोग, अज्ञानता का प्रतीक ही कहा जाएगा.
राजनीति की कीमत पर संविधान के मूल्यों को घटाया जा रहा है. विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र में लोक तो मजबूत हो रहा है लेकिन तंत्र चाहे वह राजनीतिक तंत्र हो, प्रशासनिक तंत्र और चाहे संसदीय तंत्र हो, उसको लोक के प्रति अधिक संजीदा होने का समय है.
मोहब्बत मस्तिष्क से नहीं होती उसके लिए साफ हृदय की जरूरत होती है. दुकान मोहब्बत की, पोस्टर संविधान का लेकिन पकवान नफरत का, शायद इसलिए होती क्योंकि जाति, धर्म, संप्रदाय में बाँट कर ही बहुमत जुटाया जा सकता है.
संविधान दिवस पर पक्ष-विपक्ष नेताओं के मौन की आवाज साफ-साफ सुनी जा सकती है. संविधान भवन में न पीएम मोदी ने भाषण दिया और ना ही राहुल गांधी का भाषण ही हुआ. प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के विचार संविधान भवन में आने चाहिए थे लेकिन शायद विवाद यही हुआ होगा कि, अगर प्रधानमंत्री के रूप में एक दल के नेता का भाषण होगा तो सभी दलों के नेताओं को बोलने का मौका भी देना होगा. अगर ऐसा हो गया होता तो संविधान दिवस पर संविधान भवन में सबके अपने-अपने मन के संविधान सामने आ जाते. राजनीति में तो पूरे साल यही होता है. कम से कम संविधान दिवस को तो इससे मुक्त रखा गया. लोकतंत्र इससे जरूर खुश हुआ होगा.