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वही तरीका, वही तश्तरी 

सार

यह कमाल ब्यूरोक्रेसी ही कर सकती है, जहां एक ही तरीके से एक ही तस्तरी में अनेकों को खुश किया जा सकता है. मुख्यमंत्री की यूके और जर्मनी के छह दिवसीय यात्रा के दौरान 78 हजार करोड़ का निवेश प्रस्ताव मिला. मुख्यमंत्री भी खुश और प्रदेश के भविष्य की खुशखबरी से जनता भी खुशमखुश..!!

janmat

विस्तार

    निवेश प्रस्तावों पर स्वागत, सत्कार, सम्मान और अभिनंदन का वही तरीका, जो पहले भी मध्य प्रदेश देखता रहा है. बदला है तो सिर्फ, सम्मान पाने वाले का चेहरा बदला. सम्मान करने वाले  भी वही हैं, सम्मान का तरीका भी पुराना है और सम्मान की वजह भी पुरानी जैसी है.

    इन्वेस्टर्स सम्मिट और इन्वेस्टमेंट के नाम पर मध्यप्रदेश को धोखा ही मिलता रहा है. अब तक सम्मिट के आयोजन और इन्वेस्टमेंट के प्रस्तावों  को अगर, गौर से देखा जाए तो मध्यप्रदेश औद्योगिकरण के मामले में बहुत आगे निकल चुका है. लेकिन जमीनी हकीकत इससे मेल नहीं खाती. जो भी नेतृत्व मध्यप्रदेश में आता है,  ब्यूरोक्रेसी उसे पहले दिन से पृथ्वीराज चौहान और सिकंदर महान जैसे स्थान पर बैठाने का अभिनय करने लगते हैं.

    लीडर को ऐसे घेर लिया जाता है कि, वह अपने अनुभव, इमोशन और अनूठेपन को भी संभाल नहीं पाता. प्रस्ताव की चकाचौंध में परिणाम भटक जाते हैं. ब्यूरोक्रेसी का तो सामान्य तरीका है, पुरानी फाइल और रेफरेंस देखो और नया प्रस्ताव तैयार करो, इसीलिए सरकार की कार्य शैली में नयापन दिखाई नहीं पड़ता. मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव के व्यक्तित्व में मौलिकता है. जो प्रस्ताव उनके इमोशन और अनुभव के साथ सरकार में आते हैं, उनमें मौलिकता साफ दिखाई पड़ती है. 

    इंदौर और भोपाल में डेवलपमेंट के नाम पर बीआरटीएस एक अभिशाप  बन गया था. यह मोहन यादव का ही प्रैक्टिकल सोच था,  जो बीआरटीएस का हर्डल खत्म हो पाया. भगवान कृष्ण का मध्य प्रदेश से गहरा नाता है. मोहन का गृह नगर उज्जैन, कृष्ण की शिक्षास्थली है. श्री कृष्ण पाथेय का विकास, मोहन का अनूठापन है.

   सीएम यादव ने राजस्व मामलों में जनता की परेशानी को स्वम अनुभव किया था, इसीलिए राजस्व महा-अभियान  के जरिए जनसाधारण की समस्या के समाधान का यह  मार्ग प्रशस्त कर पाए.   मिल मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान मोहन का इमोशन है. रातापानी टाइगर रिजर्व का मामला मोहन यादव की लीडरशिप में ही नोटिफाई हो पाया है, तो यह भी उनकी मौलिक सोच का ही नतीजा है. 

   इन्वेस्टमेंट नम्बर और इन्वेस्टमेंट सम्मिट की बातें मुख्यमंत्री के रूप में दिग्विजय सिंह ने पहली बार शुरू की थी. शिवराज सिंह चौहान ने तो हर साल ग्लोबल इन्वेस्टर सम्मिट आयोजन का रिकॉर्ड बनाया है. विदेश से पूँजी निवेश लाने में भी चौहान की विदेश यात्राएं और निवेश प्रस्ताव के प्रयास कम नहीं है. 

   सबसे पहला सवाल ब्यूरोक्रेसी से यही पूछा जाना चाहिए कि, अभी तक जितने भी निवेश प्रस्ताव ग्लोवल सम्मिट या विदेशी यात्राओं में मिले हैं, उनमें से कितने जमीन पर आकार ले सके हैं. निवेश प्रस्ताव के आंकड़ों को अगर जोड़ा जाएगा तो वह कम से कम पंद्रह से बीस लाख करोड़ तक पहुंच जाएंगे लेकिन जमीन पर हजार करोड़ की उपलब्धियां भी दिखाई नहीं पड़ सकती. लोकल इन्वेस्टर्स भटकते हुए देखे जा सकते हैं. औद्योगिक केंद्रों पर जिनके उद्योग स्थापित हैं, उनकी कराह  सुनने वाली  वही ब्यूरोक्रेसी है, जो कोई भी निदान देने में सफल नहीं हो पाती.

    दूसरे राज्यों के समान मध्यप्रदेश में भी इन्वेस्टमेंट के विदेशी दौरे और ग्लोवल इन्वेस्टर सम्मिट सिर्फ और सिर्फ  इंडस्ट्री पार्टनर और नॉलेज पार्टनर के भरोसे ही  चलते हैं. सीआईआई इंडस्ट्री पार्टनर और ई.एंड.वाय, नॉलेज पार्टनर में कोई बदलाव नहीं आया. मुख्यमंत्री बदलते गए लेकिन इन्वेस्टर सम्मिट के आयोजन में इन दोनों संस्थाओं की भूमिका में कोई बदलाव नहीं आया.

    इससे तो ऐसा लगता है कि, इन्वेस्टमेंट के विदेशी दौरे और इन्वेस्टर सम्मिट केवल इन संस्थाओं की हे उपलब्धि मानी जा सकती है. राज्य के लिए उनकी उपलब्धि, जब तक सरकार की ओर से स्पष्टता  के साथ जमीन पर उपलब्धियां नहीं प्रदर्शित की जाएगी तब तक आंकड़े तो केवल खुशफहमी पैदा कर सकते हैं. फ्यूचर रेडी स्टेट का नारा भी सिर्फ ब्यूरोक्रेसी का ही भुलावा कहा जा सकता है, जो वर्तमान में निराश है, वह भविष्य में आशावान कैसे हो सकता है? वर्तमान से ही भविष्य निकलता है. 

    यह बात भी समझ से परे है कि, इन्वेस्टमेंट प्रस्ताव पर ही स्वागत, सम्मान और अभिनंदन का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है. यह अभिनंदन भी एक तरह से खुद के द्वारा खुद का ही अभिनंदन दिखाई पड़ता है. पार्टी के नेता और कार्यकर्ता फूल माला पहनाते हैं. यह एक अजीब स्थिति बनी हुई है, जहां मेरी मानो और मेरा सम्मान पाओ योजना मिलजुल कर चल रही है. कोई किसी का सम्मान बिना स्वयं की स्वार्थ पूर्ति के नहीं कर सकता. सबसे बड़ा सम्मान आत्म सम्मान है, जो आत्म सम्मान से ही अनभिज्ञ है, वह दूसरों का सम्मान क्या करेगा और इस सम्मान का औचित्य भी क्या होगा? सरकारी सिस्टम एक दूसरे को खुश कर सम्मानों के आदान-प्रदान का सिस्टम बन गया है.

    ईश्वर दोहराव नहीं करता फिर भी कार्य शैली में दोहराव ही सरकारी सिस्टम बना हुआ है. दो चेहरे नहीं मिलते, दो हाथ की लकीरें नहीं मिलती, यहां तक की वृक्ष के पत्ते भी एक समान नहीं होते फिर ऐसा क्यों होता है कि, वर्किंग स्टाइल एक जैसी ही सामने आने लगती हैं. इसका कारण ब्यूरोक्रेसी हो सकती है. पॉलिटिकल लीडर जहां अपने अनुभव, इमोशन को शामिल कार्यशैली पर आगे बढ़ता है, वहां नवीनता स्पष्टता के साथ दिखाई पड़ती है.

    सीएम मोहन यादव के कार्यकाल के एक साल पूरे हो रहे हैं. सिस्टम को नई दिशा देने के लिए यह कार्यकाल बहुत अधिक नहीं कहा जा सकता फिर भी व्यक्तित्व का अनूठापन तो कार्य शैली में अब तक स्थापित होना ही चाहिए. समय के बहाव में वक्त तो बीत जाएगा. मध्य प्रदेश ने तो सोलह साल तक एक ही लीडर को मुख्यमंत्री के रूप में भी देखा है. उस लीडर के जाने के बाद मुख्यमंत्री के रूप में उसकी असेंबली कांस्टीट्यूएंसी में बीजेपी की जीत का अंतर, योजना और व्यक्तित्व के दूरगामी परिणामों को समझने के लिए पर्याप्त होगा.

    सीएम डॉक्टर मोहन यादव के अनुभव, इमोशन और जिस अनूठेपन को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने देखा,  महसूस किया वही अनूठापन मध्यप्रदेश उनकी कार्यशैली में देखना चाहता है. ब्यूरोक्रेसी का घेरा तो हमेशा से यही प्रयास करता है कि, सिस्टम उसके हिसाब से चले. पॉलिटिकल लीडर को खुशफहमी की गुदगुदी होती रहे.

    इन्वेस्टर सम्मिट और इन्वेस्टमेंट के नंबर पर ब्यूरोक्रेसी की हकीकत सामने आ जाएगी तो फिर सब कुछ आईने की तरह साफ हो जाएगा. गीता जयंती पर धूमधाम मोहन की कर्मप्रधानता का ही पैगाम होगा. अनूठापन ही व्यक्तित्व गढ़ेगा और निःसंदेह, जो गढ़ेगा वही आगे बढ़ेगा.