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सत्ताविरोधी मतों के विभाजन पर टिका सिंहासन

सार

मध्यप्रदेश के संभावित चुनाव नतीजे पर चर्चाओं के बीच पार्टियों द्वारा दावों के मामले में कड़ी टक्कर ही बताई जा रही है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 140 सीट जीतने का दावा कर रहे हैं तो दिग्विजय सिंह 130 सीटों पर कांग्रेस की जीत बता रहे हैं. चुनाव के एग्जिट पोल 30 नवंबर की शाम को ही आएंगे. इसके बाद ही नतीजों के पहले हवा का रुख थोड़ा बहुत समझा जा सकेगा.

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विस्तार

फिलहाल, दोनों दलों के दावों में 10 सीटों का अंतर दिखाई पड़ रहा है. मतदाताओं की खामोशी से पूरा चुनाव सत्ताविरोधी लहर और ‘लाडली बहना योजना’ के बीच सिमट गया है. दोनों दलों ने अपने-अपने मुद्दों का घूंट मतदाताओं के गले में उतारने की पूरी कोशिश की लेकिन मतदान के बाद दोनों दलों की बेचैनी कम होने की बजाय बढ़ती हुई दिखाई पड़ रही है. मत प्रतिशत और सीटों के गणित के एग्जिट पोल के पहले अगर चुनावी अभियान में प्रभावी मुद्दों और प्रबंधन का एग्जिट पोल ईमानदारी से किया जाये तो जनादेश की दिशा साफ तौर से देखी जा सकती है.

मध्यप्रदेश के इस चुनाव में सत्ता के सिंहासन की चाबी सत्ता विरोधी मतों के विभाजन पर टिकी है. यह चुनाव एमपी में हुए 2008 के चुनाव की बानगी पेश कर रहा है. 2008 के चुनाव में तीसरे दल, निर्दलीय और अन्य प्रत्याशियों को करीब 27.15% मत प्राप्त हुए थे. यह ऐसा चुनाव था जब बीजेपी में उमा भारती के रूप में सबसे बड़ी बगावत हुई थी. ऐसा माना जा रहा था कि उमा भारती की ‘भारतीय जनशक्ति पार्टी’ के कारण बीजेपी को भारी नुकसान होगा लेकिन चुनाव नतीजे ने यह साबित किया कि सत्ता विरोधी मतों का विभाजन हो जाने के कारण मुख्य विपक्षी दल को लाभ नहीं मिला.

कमोबेश ऐसे ही हालात मध्यप्रदेश के इस चुनाव में भी देखे जा रहे हैं. मध्यप्रदेश में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच में ही होता रहा है. 2003 में तीसरे दल और निर्दलियों को 21.94% मत प्राप्त हुए थे. साल 2013 में तीसरे दल और निर्दलियों को 18.75 प्रतिशत और 2018 में 18.1 प्रतिशत मत तीसरे दल और निर्दलीय प्रत्याशियों को मिले थे. वर्तमान चुनाव में सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी और दोनों दलों से बगावत कर निर्दलीय उतरे प्रत्याशियों की भारी संख्या को देखते हुए ऐसा पूर्व अनुमान किया जा सकता है कि तीसरे दल और निर्दलियों को 20% से अधिक मत मिलने जा रहे हैं.

कांग्रेस के इस चुनाव के मुख्य रूप से दो मुद्दे रहे हैं. पहला सत्ताविरोधी लहर और दूसरा जनता में बदलाव की बयार. चुनावी प्रबंधन और वित्तीय मैनेजमेंट की दृष्टि से कांग्रेस का चुनावी अभियान ‘अप टू द मार्क’ नहीं रहा है. कांग्रेस को OPS के मुद्दे का सबसे बड़ा लाभ होता दिखाई पड़ रहा है. कर्मचारियों में भाजपा सरकार के खिलाफ नाराजगी देखी गई है. इसका कारण प्रमोशन का रुका होना भी माना जा रहा है. कांग्रेस की ओर से चुनावी अभियान में स्थानीय मुद्दे और राज्य सरकार के गवर्नेंस को प्रमुखता नहीं मिल पाई है. कांग्रेस की ओर से पूरा चुनाव जातिगत जनगणना और मोदी विरोधी भाषणों तक ही सीमित रहा है.

विधानसभा चुनाव में स्थानीय नेतृत्व और गवर्नेंस जहां सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए था वहीं कांग्रेस नेता बदलाव के सबसे बड़े कारक कर्मचारियों को भी अपने साथ जोड़े रखने की बजाय कई जगहों पर उनके साथ धमकी भरे लहजे में व्यवहार करते देखे गए हैं. मतदान के बाद भी कांग्रेस की ओर से कथित रूप से कांग्रेस के खिलाफ काम करने वाले कर्मचारियों-अधिकारियों की सूची तैयार करने के लिए बाकायदा परिपत्र जारी किया गया है, जो शायद मतगणना में कर्मचारियों को दबाव में रखने के लिए किया गया होगा लेकिन जो वर्ग सबसे ज्यादा खुलकर कांग्रेस के समर्थन में रहा है इस कर्मचारी वर्ग को विलेन के रूप में पेश करने की कांग्रेस की रणनीति समझ के बाहर है.

इस चुनाव में दोनों दलों की ओर से किसानों और महिलाओं को सुविधा और सहूलियतें देने को बड़े मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया . यह चुनाव ‘किसान वर्सेस लाडली बहना योजना’ के बीच होता दिखाई पड़ रहा है. किसानों के मामले में कांग्रेस जहां पहले बढ़त में दिखाई पड़ रही थी वहीं इस चुनाव में किसान कर्जमाफी का मुद्दा बहुत अधिक प्रभावी दिखाई नहीं पड़ा. बीजेपी ने अपने संकल्प पत्र में किसानों के लिए एमएसपी गेहूं 2700 रुपए प्रति क्विंटल और धान ₹ 3100 प्रति क्विंटल घोषित करके कांग्रेस के किसान हितैषी कदमों को कुंद करने की कोशिश की. 

मतदान के एक दिन पहले ही भारत सरकार की ओर से मिलने वाली सम्मान निधि किसानों के खाते में भेजी गई. इसका भी इस चुनाव में असर दिखाई पड़ सकता है. चुनावी अभियान के दौरान ही पीएम मोदी द्वारा गरीबों को हर माह मिल रहे मुफ्त राशन को अगले 5 साल तक और देने की घोषणा की गई. इसका भी असर मतदाताओं पर पड़ा है. जनता से जुड़ी योजनाओं के लाभार्थियों के वर्ग का मतदान पर असर ही बढ़े मतदान के रूप में देखा जा रहा है.

इस चुनाव में महिलाओं का कॉन्ट्रीब्यूशन सर्वाधिक होने जा रहा है. महिलाओं के मतों में वृद्धि के कारण राजनीतिक विश्लेषकों के सारे गणित गड़बड़ाते दिखाई पड़ रहे हैं. जो कांग्रेस समर्थक पहले एक तरफा जीत का दावा कर रहे थे अब उनकी ओर से भी टक्कर की बात कही जा रही है. शिवराज सरकार की लाडली बहना योजना’ ने इस चुनाव में कमाल का परफॉर्मेंस किया है. लाडली बहना योजना की नवंबर माह की राशि मतदान के एक सप्ताह पहले लाडली बहनों के खाते में डाली गई थी. इसका भी चुनाव नतीजे पर असर  दिखाई पड़ेगा.

कांग्रेस द्वारा महिलाओं को लुभाने के लिए ‘नारी सम्मान योजना’ की भरपूर मार्केटिंग की गई लेकिन ‘लाड़ली बहना योजना’ की हवा में ‘नारी सम्मान योजना’ टेकऑफ ही नहीं कर सकी. लाभार्थी वर्ग में मुस्लिम महिला लाभार्थियों द्वारा भी बीजेपी के पक्ष में मतदान की खबरें चौंका रही हैं. चुनाव परिणाम से इसको समझना काफी महत्वपूर्ण होगा.

कांग्रेस का सबसे बड़ा सुनिश्चित जनाधार मुस्लिम वर्ग में ही माना जा रहा था. मध्यप्रदेश में भोपाल उत्तर, भोपाल मध्य दो सीट हैं, जहां कांग्रेस की ओर से मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं. इन दोनों सीटों पर मुस्लिम जनसंख्या पर्याप्त है फिर भी मतदान में मुस्लिम इलाकों में अति उत्साह नहीं देखा गया. मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने स्वयं को हिंदूवादी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसको लेकर भी मुसलमानों में निराशा का भाव हो सकता है.

मध्यप्रदेश चुनाव में अभियान की शुरुआत और मतदान की तिथि आते-आते जमीनी हकीकत काफी बदल गई है. जमीनी पॉलिटिक्स की नब्ज़ पर हाथ रखने वाले राजनेता यह बात बखूबी समझ रहे हैं. सत्ताविरोधी रुझान बहुत पहले से स्पष्टता से महसूस किया जा रहा था. इसलिए बीजेपी ने योजनाबद्ध तरीके से सत्ताविरोधी मतों को विभाजित करने की रणनीति पर काम किया. 2008 में इसी रणनीति पर मिली सफलता को बीजेपी ने फिर से अपनाया है. लाडली बहना योजना का अंडर करंट नतीजों को उलटफेर करने में सक्षम दिखाई पड़ रहा है. महिलाओं का बढ़ा मत प्रतिशत इसी ओर इशारा कर रहा है कि महिलाओं ने बढ़-चढ़कर मतदान में हिस्सा लिया है.

ग्वालियर-चंबल अंचल में भी कांग्रेस अपनी बढ़त देख रही है. इस अंचल में पिछले चुनाव में कांग्रेस ने अच्छी सफलता हासिल की थी. इस चुनाव के जो संकेत सामने आ रहे हैं उसमें यह तो निश्चित है कि कांग्रेस इस अंचल में अपनी पुरानी सफलता नहीं दोहरा पा रही है. बीजेपी को इस इलाके में जितना फायदा होगा उतना ही उसका भविष्य सुरक्षित हो सकेगा.

कई दिग्गजों के विधानसभा क्षेत्र में मत प्रतिशत 5% के आसपास बढ़ा है. इसके कारण भी सारे गणित गड़बड़ाते दिखाई पड़ रहे हैं. चुनाव में पैसों का उपयोग और महत्व सर्वविदित है. इस मामले में भी कांग्रेस कमजोर पड़ती दिखाई पड़ी है. अगर कांग्रेस सूत्रों पर भरोसा किया जाए तो पार्टी की ओर से प्रत्याशियों को भोपाल से कोई पैसा नहीं दिया गया. एआईसीसी से सीधे प्रत्याशियों के खाते में पैसे दिए जाने की खबर है. दूसरी तरफ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ही भाजपा पर पैसा पावर और प्रशासन का दुरुपयोग करने का आरोप लगा रहे हैं.

चुनावी प्रबंधन, चुनावी अभियान और चुनावी मुद्दों का अगर एग्जिट पोल किया जाए तो कांग्रेस के लिए कोई खुशी की खबर दिखाई नहीं पड़ रही है. सारा दारोमदार तीसरे दल और निर्दलियों के बीच सत्ता विरोधी मतों के विभाजन पर टिका है. जो पूर्वानुमान लगाए जा रहे हैं अगर वह सही बैठते हैं तो इस चुनाव में बीजेपी को 42% मत और कांग्रेस को 38% मत मिलने की संभावना है. शेष 20% मत तीसरे दलों और  निर्दलियों के खाते में जा सकता है. इसी गणित में सत्ता की चाबी है. सीटों का एग्जिट पोल 30 नवंबर तक प्रतिबंधित है. सीटवार संभावित नतीजे उसके बाद ही दिए जा सकेंगे.