• India
  • Sat , Feb , 22 , 2025
  • Last Update 10:59:AM
  • 29℃ Bhopal, India

भारतीय राजनीति का एक घिनौना चेहरा

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 22 Feb

सार

बहस के दौरान जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भाजपा सरकार द्वारा संविधान के कथित उल्लंघनों की सूची प्रस्तुत की, तो प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस नेताओं जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए विभिन्न उल्लंघनों को याद करा इसका जवाब दिया। वाह री राजनीति..!!

janmat

विस्तार

सड़क से संसद तक चर्चा है कि क्या देश का 74 वर्ष पुराना संविधान अभी भी प्रभावी है और क्या इसका पालन हो रहा है? यह बहस अब कीचड़ उछालने में बदल गई है। बहस के दौरान जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भाजपा सरकार द्वारा संविधान के कथित उल्लंघनों की सूची प्रस्तुत की, तो प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस नेताओं जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए विभिन्न उल्लंघनों को याद करा इसका जवाब दिया। वाह री राजनीति।

सबसे बड़ी पंचायत में चर्चा बिल्कुल निष्फल रही,परंतु जब दोनों दलों ने संविधान के मुख्य प्रारूपकार बीआर अंबेडकर का नाम लिया, तो उत्पात और राष्ट्रव्यापी विवाद की चिंगारी भडक़ उठी। राहुल गांधी ने अंबेडकर द्वारा 1950 में की टिप्पणी, ‘‘अगर देश में सामाजिक और आर्थिक समानता नहीं है…तो राजनीतिक समता नष्ट हो जाएगी’’, को सरकार को सुनाया। इसके उत्तर में गृहमंत्री अमित शाह ने ताना मारा : ‘‘अंबेडकर, अंबेडकर, अंबेडकर कहना फैशन बन गया है…। अगर कांग्रेस इसी प्रकार भगवान का नाम लिया होता, तो स्वर्ग प्राप्त कर लिया होता।’’ इस टिप्पणी का व्यापक विरोध हुआ और देश भर में विपक्षी दलों ने शाह पर अंबेडकर का अपमान करने का आरोप जडऩा शुरू कर दिया।

संविधान के मूल्यांकन के लिए यह घटनाक्रम बेशक कोई मायने न रखता हो, लेकिन इसने भारत की राजनीति का एक घिनौना चेहरा सामने रख दिया है। विभिन्न राजनीतिक पार्टियां दलित वोट, जो भारत की जनसंख्या का लगभग 17 प्रतिशत है, पाने के लिए अंबेडकर के नाम का इस्तेमाल करती हैं। ये पार्टियां अंबेडकर …जो अभी भी सर्वाधिक श्रद्धेय दलित नेता हैं …को एक परमात्मा सदृश व्यक्तित्व के रूप में चित्रित करती हैं, जिन्होंने भारत का संविधान बनाया, जिसे वे पवित्र और परिपूर्ण बताती हैं। हर पार्टी दलितों को विश्वास दिलाना चाहती है कि वही अंबेडकर की विरासत की मुख्य रक्षक है, और उनकी प्रमुख हितरक्षक।

भारत के विभाजित राजनीतिक परिदृश्य में दलित वोट इतना महत्त्वपूर्ण है कि ऐसी परिस्थितियां बन गई हैं जिनसे देश का किसी भी सूरत में भला नहीं हो सकता। यदि भारत संविधान की त्रुटियों को संबोधित करने के लिए खुला रवैया रखता तो देश कहीं अधिक तरक्की कर पाता। परंतु यदि कोई भी पार्टी इस दस्तावेज की आलोचना करने का साहस करेगी, उसका राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना असंभव है। 

विडंबना यह है कि यह गतिरोध दलितों को ही सर्वाधिक हानि पहुंचाता है, क्योंकि वे हमारे संविधान द्वारा निर्मित अत्यधिक केंद्रीकृत व्यवस्था में सर्वाधिक उत्पीडि़त समूहों में एक बनकर रह जाते हैं। फिर भी, सभी पार्टियों ने वर्षों से दलितों को यही कहा है कि अंबेडकर का संविधान सर्वोत्तम है और इससे कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।

यह समझने की आवश्यकता है कि अंबेडकर ने दरअसल संविधान के मूलभूत ढांचे और प्रावधानों का निर्माण नहीं किया, बल्कि यह नेहरु ने किया। अंबेडकर को संविधान निर्माण सभा, जो नेहरु के नेतृत्व के अधीन कांग्रेस के नियंत्रण में थी, ने प्रारूपण समिति का अध्यक्ष बनाया था। कालातीत में कई पुस्तकों और लेखों से पता चला कि वह नेहरु थे जिन्होंने संविधान के मूल ढांचे को आकार दिया। 

वर्ष 1997 में अपनी पुस्तक, ‘वर्शिपिंग फॉल्स गॉड : अंबेडकर एंड द फैक्ट्स व्हिच हैव बीन इरेज्ड’ (नकली भगवान की पूजा : अंबेडकर और वे तथ्य जो मिटा दिए गए), में अरुण शौरी ने विस्तार से बताया है कि किस प्रकार अंबेडकर की मुख्य भूमिका सभा के निर्णयों को लागू करने की थी। 

सुधींद्र कुलकर्णी ने भी इस पर विस्तृत रूप से लिखा है। इसमें उनका वर्ष 2024 का लेख है, ‘हू कान्ट्रिब्यूटेड मोर टू द कांस्टीट्यूशन एंड इट्स प्रीएम्बल? नेहरु, नॉट अंबेडकर’ (संविधान और इसकी प्रस्तावना में किसका योगदान अधिक था? अंबेडकर का नहीं, नेहरु का)। वह लिखते हैं, ‘‘संविधान की प्रस्तावना और अधिकतर अन्य निर्धारक विशेषताएं कांग्रेस…मुख्यत: नेहरु की देन हैं।’’

सच्चाई यह है कि अंबेडकर का भारत के संविधान के लिए एक अलग दृष्टिकोण था और उन्होंने संविधान सभा द्वारा अंगीकृत दस्तावेज का पूरा समर्थन नहीं किया था। मेरे वर्ष 2016 के लेख, ‘अंबेडकर का संयुक्त राज्य भारत’, में मैंने उनकी इस परिकल्पना का उल्लेख किया है, जो उन्होंने प्रारूपण समिति का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने से सात महीने पहले संविधान सभा की मूलभूत अधिकारों पर गठित उपसमिति को सौंपी थी। अंबेडकर का प्रस्ताव था कि भारत को संयुक्त राज्य अमरीका के समान संघ बनना चाहिए, जिसका संघीय ढांचा, एक तय अवधि वाले कार्यकारी सहित, अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली की तरह कार्य करे।

मैं पूर्व प्रकाशित एक लेख में यह चर्चा भी कर चुका हूं कि अंबेडकर ने नेहरु का संविधान क्यों अस्वीकार किया। 

संविधान अंगीकृत किए जाने के मात्र तीन वर्ष बाद संसद में सार्वजनिक रूप से इसे त्यागते हुए अंबेडकर ने कहा, ‘‘महोदय, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया। परंतु मैं यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार हूं कि मैं इसे जला देने वाला पहला व्यक्ति रहूंगा। यह किसी के अनुकूल नहीं है।’’ अंबेडकर ने संविधान की अत्यधिक केंद्रीकृत व्यवस्था, जिसने सब शक्तियां कार्यपालिका (प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री) के हाथ सौंप दीं, और इसके अंतर्निहित बहुसंख्यकवाद का विरोध किया था। उनका मानना था कि एक स्थायी हिंदू बहुसंख्य देश के लिए बहुसंख्यक शासन पर आधारित प्रणाली अनुपयुक्त थी।

अंबेडकर के दोनों आकलन … शक्तियों का केंद्रीकरण और बहुसंख्यकवाद … सही थे, जैसा भारत के इतिहास ने दिखाया। शक्तियों के केंद्रीकरण ने प्रधानमंत्रियों को मनमाने निर्णय लेने की अनुमति दी। जैसे कि मोदी का विमुद्रीकरण, और मर्जी से संविधान संशोधन, जैसे नेहरु का प्रथम संशोधन, जिसने कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाने के लिए नई अनुसूची तैयार की, या इंदिरा गांधी का 42वां संशोधन, जिसने राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री का मातहत बना दिया। इंदिरा गांधी के आपातकाल को भी न भूलें। संविधान की ‘बहुसंख्यक का सब कुछ’ वाली विशेषता भारत के सामाजिक सौहार्द को कमजोर करती जा रही है, जैसा कि कश्मीर और मणिपुर में जारी संघर्षों से जाहिर है।