चुनाव हो तो हर दांव आजमाए जाते हैं. लव और वार में जैसे सब कुछ जायज़ है, वैसे ही चुनाव में भी जीत लक्ष्य है इसमें अस्त्र गौण है .लोकसभा चुनाव हर चुनाव जैसा दूसरा चरण आते-आते मुस्लिम तुष्टिकरण और हिंदू ध्रुवीकरण पर सिमट गया है. तुष्टिकरण की संपूर्ण कोशिशें भी जीत की गारंटी नहीं हैं. लेकिन ध्रुवीकरण जीत की गारंटी बन गया है..!!
चुनाव में तुष्टीकरण के हथियार का दो तरफा उपयोग किया जाता है. तुष्टीकरण के पक्षधर खास समुदाय के लिए बातें करके वोट बैंक मजबूत करते हैं. तो इसके विरोधी तुष्टीकरण के नाम पर ही दूसरे समुदाय का ध्रुवीकरण कर अपना चुनावी गणित साधते हैं. तुष्टिकरण का सियासी व्यापरीकरण हो गया है. चुनावों के समय तुष्टीकरण करण का सज़दा किया जाता है, तो तुष्टिकरण का विरोध सियासी व्यापार का स्वरूप ले लेता है. तुष्टीकरण पक्षधर और विरोधी दोनों के लिए राजनीतिक लाभ का सौदा ही साबित होता है.
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपने घोषणा पत्र के कारण, तुष्टिकरण का शिकार हो गई है. कांग्रेस ने सोचा भी नहीं होगा, कि वेल्थ सर्वे करने और जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसको उतना हक़ देने का उसका वायदा, तुष्टिकरण की भेंट चढ़ जाएगा. राहुल गांधी जातिगत जनगणना को और अमीरी-गरीबी के सर्वे को, देश का एक्सरे करने की बात करते हैं.
मुस्लिम पर्सनल लॉ का समर्थन करने के कारण कांग्रेस के घोषणापत्र को भाजपा पहले ही मुस्लिम लीग की छाप बता चुकी है. अब तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पुराने बयान और कांग्रेस के जनगणना और संपत्ति के सर्वे के वायदों को जोड़कर बीजेपी की ओर से ऐसा चुनावी विस्फोट कर दिया गया है, कि बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की संपत्तियां, यहां तक कि महिलाओं के स्त्री धन का भी सर्वे किया जाएगा.
ज्यादा संपत्तियों को लेकर जिनकी आबादी ज्यादा है, उनको हिस्सेदारी के नाम पर दे दिया जाएगा. पीएम नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभा में, जब से संपत्ति के सर्वे के कांग्रेस के वायदे को महिलाओं का मंगलसूत्र तक, छीनने की कोशिश के रूप में उजागर किया है, तब से राजनीतिक वार-पलटवार तूफानी रूप ले चुका है.
मनमोहन सिंह ने पीएम के रूप में कहा था, कि देश के रिसोर्सेस पर पहला हक़ मुसलमानों का है. कांग्रेस ने कभी नहीं सोचा होगा, कि जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसको उतना हक़ देने का उसका वायदा, मनमोहन सिंह के इस हक़ से जोड़ दिया जाएगा. देश में मुस्लिम राजनीति के कई अलग-अलग वफादार हैं. क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के बीच मुस्लिम वोट बैंक के लिए शह और मात का खेल चलता रहता है.
ऐसा लगता है की तुष्टिकरण अब केवल राजनीति के घोषणा पत्रों वादों और चुनावी बयानों तक सीमित रह गया है. ज़मीन पर वास्तविकता उसके बिल्कुल विपरीत है. कांग्रेस भले ही तुष्टिकरण की चैंपियन बनती हो, लेकिन 'सबका साथ सबका विकास' की राजनीति के चलते लाभार्थी वर्ग में मुसलमानों की बड़ी भागीदारी उसकी तुष्टिकरण की राजनीति को केवल कागज़ी ही साबित कर रही है.
बीजेपी तुष्टिकरण का तो लगातार विरोध करती है, लेकिन जहां-जहां भी बीजेपी की सरकार है, वहां मुस्लिम समुदाय को शासन की सभी योजनाओं में बिना भेदभाव के बराबरी से हिस्सेदारी देकर मुस्लिम वोट बैंक को छिन्न-भिन्न कर दिया है. तीन तलाक के कानून के कारण जहां मुस्लिम महिलाएं बीजेपी कीओर आकर्षित हुईं हैं. वहीं दाऊदी, बोहरा और पसमांदा मुसलमान भी बीजेपी को परखने लगे हैं.
बीजेपी ने लाभार्थियों का जो बड़ा वोट बैंक डेवलप किया है, उसमें मुस्लिम लाभार्थी भी शामिल हैं. जब भी चुनाव अंतिम चरण की ओर बढ़ते हैं, तब हिंदू-मुस्लिम की राजनीति तुष्टिकरण पर आकर सिमट जाती है. यूपी सहित जब चार राज्यों के चुनाव हो रहे थे, तब कर्नाटक से शुरू हुआ हिज़ाब का विवाद पूरे देश में आग की तरह फैल गया. ऐसी ही आग संपत्ति के सर्वे और उसको लेकर ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले समुदायों को देने के आरोपों के साथ फिर तेजी से फैल गई है. चुनाव समाप्त होते ही तुष्टीकरण की बातें भी समाप्त हो जाएगी.
मुस्लिम समुदाय तुष्टीकरण के नाम पर दो तरफ़ा नुक़सान उठा रहा है. एक पक्ष जो उसके लिए तुष्टीकरण का प्रयास करता है, उससे भी वह खुश नहीं है औरदूसरा पक्ष जो तुष्टिकरण का विरोध करता है. वह भी उसे राजनीतिक बाजार में तुष्टिकरण का ग्राहक ही स्थापित करता है.
अस्तित्व हिंदू मुस्लिम में भेद नहीं करता. तब फिर सियासी व्यापार के लिए तुष्टिकरण के ज़रिए भेदभाव की राजनीति क्यों की जानी चाहिए. यह वामपंथी सोच का हिस्सा है, कि संपत्तियों को अमीर-गरीब में बराबरी के साथ बांट दिया जाए. नक्सलवाद का विचार भी इसी वैचारिक आधार पर खड़ा हुआ है. अन्याय और शोषण से लड़ने के लिए सशस्त्र संघर्ष की नक्सलवादी विचारधारा की बीमारी राजनीतिक विचारधारा में तेजी से प्रवेश करने लगी है.
संपत्ति का सर्वे और बंटवारे का सोच भी इसी का हिस्सा लगता है. पीएम नरेंद्र मोदी आरोप लगाते हैं, कि कांग्रेस अर्बन नक्सलियों के चंगुल में फंसी हुई है. कांग्रेस ने जितने चुनावी वायदे अपने घोषणा पत्र में किए हैं, उनके लिए कई बार भारत के संविधान को बदलना पड़ेगा. संविधान के ख़तरे में होने की बात करने वाली कांग्रेस स्वयं संविधान को बदलने वाली बातों के चुनावी वायदे कर रही है.
मज़हब के नाम पर आरक्षण देने की मंशा भी कांग्रेस के ही इतिहास से जुड़ी हुई है. आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने मुस्लिम आरक्षण देने की शुरुआत की थी. कर्नाटक में भी मुस्लिम आरक्षण की पहल की गई थी. कानूनी बंदिशों के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया था. अब कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में आरक्षण की सीमा 50% सीमित रखने के प्रावधान को बढ़ाने का वायदा किया है. इसके लिए भी संविधान संशोधन करना पड़ेगा. सुप्रीम कोर्ट आरक्षण की सीमा 50% से अधिक करने पर रोक लगाए हुए है. सुप्रीम कोर्ट की रोक को नजरअंदाज करते हुए चुनावी वायदा आरक्षण में तुष्टिकरण की कोशिश हो सकती है.
चाहे इधर की हो चाहे उधर की हो सब बातें केवल चुनावी बिसातें ही कहीं जाएंगी. जहां चुनाव होता है, वहां एक को पसंद किया जाता है, तो दूसरे को रिजेक्ट किया जाता है. बहुमत की पसंद पाने के लिए ही तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण का व्यापार चलता है. विकास की बातें तो इन आरोपों के बीच छिप सी गई हैं.
यद्यपि पब्लिक जब अपने घर से निकलती है. हाईवे पर जाती है.ट्रेन पकड़ती है. हवाई जहाज से कहीं जाती है, तो विकास दिखता है. लेकिन उसको दिखाने के लिए चुनाव में बहुत ज्यादा प्रयास नहीं किया जाता. प्रयास ऐसे मुद्दों को ही उछालने के किए जाते हैं. जिसमें थोड़ा भावनात्मक मसाला हो. लोग भावना के आधार पर मतदान कर सकें और गुण-अवगुण पर ध्यान ही ना जाए.
मुस्लिम राजनीति बिखर रही है. मुस्लिम राष्ट्रवाद की ओर भी नज़रे दौड़ा रहा है. शास्त्रों से ज्यादा अनुभव महत्वपूर्ण होता है. घोषणा पत्र और चुनावी वायदों से ज्यादा विकास के मुसलमानों के अनुभव कुछ अलग कहानी बयां कर रहे हैं. अनुभव पर जो चलता है, वही जीवन में सफल होता है. मुस्लिम राजनीति को भी किसी की बातों पर नहीं अपने अनुभवों पर भविष्य की राजनीति तय करने की जरूरत है.
तुष्टिकरण का सियासी व्यापरीकरण अंतत: तो समाप्त ही होना है. जितनी जल्दी तुष्टिकरण के राजनीतिक फर्जीवाड़े को समझ लिया जाएगा, उतनी जल्दी तुष्टिकरण की राजनीतिक संस्कृति समाप्त हो जाएगी.