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फिर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कम क्यों?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 06 Jul

सार

हाल के आंकड़े निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं..!!

janmat

विस्तार

कोई भी सरकार केंद्र में रही हो हर केंद्र सरकार एक वांछित निवेश केंद्र के रूप में भारत की स्थिति को लेकर काफी आशान्वित रही हैं, यह मोदी सरकार भी उनसे अलग नहीं है। मजबूत वृहद आर्थिक प्रदर्शन और वैश्विक निवेशकों के सकारात्मक वक्तव्यों की वजह से सरकारी अधिकारी हमेशा आश्वस्त रहे और उन्हें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए किसी बदलाव की आवश्यकता नहीं महसूस हुई। 

इसके बावजूद हाल के आंकड़े निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। हाल में संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन (अंकटाड) के आंकड़ों ने दिखाया कि वर्ष 2022 और 2023 के बीच देश में एफडीआई में 43 प्रतिशत की कमी आई।

यह कोई अपवाद आंकड़ा नहीं है। देश के आधिकारिक स्रोतों के आंकड़े भी संकेत देते हैं कि देश में एफडीआई 2007 के बाद सबसे निचले स्तर पर है। कई लोग इसके लिए वैश्विक कारण गिना सकते हैं। शायद बात यह हो कि औद्योगिक नीतियों और व्यापक सब्सिडी के दौर में विकसित बाजार अधिक आकर्षक प्रतीत हो रहे हैं। 

संभव है कि पश्चिमी देशों की कंपनियां अमेरिका के मुद्रास्फीति न्यूनीकरण कानून जैसे लाखों करोड़ डॉलर के कानून से लाभान्वित होने के लिए ऑफशोरिंग का रुख कर रही हों लेकिन आंकड़े ऐसे कथानक को सही नहीं ठहराते। निश्चित रूप से यह भारत से जुड़े आंकड़ों का किसी प्रकार का बचाव नहीं है।

अंकटाड के आंकड़े यह भी बताते हैं कि दक्षिण एशिया के अन्य देशों के आंकड़े मोटे तौर पर स्थिर बने रहे। चीन को एफडीआई की आवक में कुछ हद तक कमी आई जिससे पूर्वी एशिया में नौ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। परंतु दक्षिण पूर्व एशिया के एफडीआई में स्थिरता देखने को मिली।

वैश्विक स्तर पर एफडीआई की आवक में केवल दो प्रतिशत की गिरावट आई। इससे संकेत मिलता है कि समग्र रूप से कोई जोखिम का माहौल नहीं है। जहां तक देश के पड़ोसियों और दक्षिण पूर्व तथा पूर्वी एशियाई समकक्ष देशों की बात है, एफडीआई को यह झटका केवल भारत में ही दिख रहा है। नई सरकार को इसे गंभीरता से लेना होगा।

यह दलील बहुत लंबे समय से दी जा रही है कि निवेश को लेकर सुर्खियां बटोरने वाले जो इरादे जाहिर किए जाते हैं वे हकीकत में फलीभूत नहीं होते। बहुत कम समझौता ज्ञापन जमीनी हकीकत में तब्दील होते हैं।

घरेलू कंपनियों के प्रति सरकार की प्राथमिकता उतनी भी छिपी नहीं है, नए व्यापार समझौते तथा वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में शामिल होने की उसकी अनिच्छा तथा प्रशासनिक एवं न्यायिक सुधारों को आगे ले जाने में उसकी नाकामी आदि बातों को निवेश में इस कमी के लिए वजह ठहराया जा सकता है।

यह बात भी ध्यान देने लायक है कि भारत के निजी क्षेत्र का निवेश किसी भी स्थिति में उस स्तर पर नहीं पहुंच सका है जो हमने वित्तीय संकट के दौर में देखा था। उस कमी को कुछ हद तक सरकारी निवेश से पूरा किया जा सकता है तथा एक हद तक विदेशी निवेश से,परंतु सरकारी निवेश अनंत काल तक नहीं चल सकता है अगर विदेशी निवेश पर भरोसा नहीं किया जा सकता है तो यह भी बहुत चिंतित करने वाली बात होगी। नीतियों में बदलाव करना होगा।

निवेशकों के अनुकूल सुधारों से लेकर कर कानूनों, कर प्रशासन और नियमन तक सबकुछ तेज करना होगा। व्यापार नीति को भी बदलना होगा ताकि भू राजनीतिक हकीकतों का ध्यान रखा जा सके। जाहिर है भारत का बाजार इतना आकर्षक एकदम नहीं है कि हर कोई यहां आना चाहे। 

व्यापार समझौते, खासकर यूरोपीय संघ और यूनाइटेड किंगडम के साथ होने वाले व्यापार समझौते काफी समय से लंबित हैं। सरकार इस गिरावट को कम करने के लिए बहुत कुछ कर सकती है। ताजा आंकड़े यह दर्शाते हैं कि आत्म संतुष्टि का वक्त बीत चुका है।