वैसे लोकतंत्र में ‘शहजादे’ और ‘शहंशाह’ की कोई गुंजाइश नहीं है। अब सवाल यह है कि आम चुनाव की सियासत इन सांकेतिक शब्दों पर क्यों आ गई?
आम चुनाव लगभग सिमटने की कगार पर है। इस बार चुनाव में कुछ नए शब्द प्रयुक्त हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए ‘शहजादे’ सांकेतिक शब्द का इस्तेमाल करते रहे हैं। इस श्रेणी में अब उन्होंने तेजस्वी यादव को भी ‘बिहार का शहजादा’ करार दिया है। चुनाव आयोग को इन सांकेतिक शब्दों पर आपत्ति क्यों नहीं है अथवा ये शब्द आचार संहिता का उल्लंघन किस तरह नहीं करते हैं, इसका स्पष्टीकरण तो चुनाव आयोग को आज नहीं तो कल देना ही देगा। देश हैरान है कि क्या इन शब्दों पर भी जनादेश मांगा या दिया जा सकता है?
‘शहजादे’ की प्रतिक्रिया में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को ‘शहंशाह’ करार दिया है। उन्होंने पलटवार की भाषा में कहा है कि वे उनके भाई को ‘शहजादा’ बुलाते हैं। उस ‘शहजादे’ ने ही कन्याकुमारी से कश्मीर तक 4000 किलोमीटर की यात्रा की है। ‘शहजादे’ ने भाइयों, बहनों, किसानों और मजदूरों से उनकी तकलीफें, समस्याएं पूछी हैं तथा यह भी जानने की कोशिश की है कि उन्हें कैसे हल किया जा सकता है? प्रियंका ने प्रधानमंत्री पर हमला भी किया है कि वह तो महलों में रहते हैं। उन्हें देश के आम आदमी की मुश्किलों का एहसास कैसे होगा?
वैसे लोकतंत्र में ‘शहजादे’ और ‘शहंशाह’ की कोई गुंजाइश नहीं है। अब सवाल यह है कि आम चुनाव की सियासत इन सांकेतिक शब्दों पर क्यों आ गई? शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी ने ही की और फिर भाजपा के अन्य प्रचारक नेता भी व्यंग्य कसने लगे। मोदी को इसकी जरूरत क्यों आन पड़ी? जबकि उनके पक्ष में ऐसा 10-साला जनादेश रहा है, उसकी स्थिरता और विकास के मुद्दे आज कहां हैं?
क्या प्रधानमंत्री ने चुनाव को ‘मोदी बनाम राहुल गांधी’ बना दिया ? क्या सरकार की महत्वपूर्ण उपलब्धियों के बजाय प्रधानमंत्री मोदी चुनाव को अपने ही इर्द-गिर्द केंद्रित कर देना चाहते हैं? क्या वह कांग्रेस की जातीय जनगणना और मुस्लिम आरक्षण का मुकाबला हिंदू धर्म की राजनीति से करना चाहते हैं? क्या चुनावी एजेंडा कांग्रेस ने तय किया और भाजपा ने उसकी प्रतिक्रिया में अपना चुनाव प्रचार जारी रखेखा ? प्रधानमंत्री 2002 के गोधरा कांड सरीखे पुराने मुद्दों को सतह पर लाकर अतीत के आधार पर नया जनादेश मांगना चाहते हैं?
2014 और 2019 के आम चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ही भाजपा-एनडीए ने तत्कालीन और प्रासंगिक मुद्दों पर ही लड़े थे और शानदार जनादेश हासिल किए थे। इस बार भी जनादेश को लेकर कोई संशय नहीं है। आंकड़े कम हो सकते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी से जिन मुद्दों पर चुनाव लडऩे की अपेक्षाएं थीं, वे गौण हैं या हाशिए पर सरका दिए गए हैं। फोकस ‘शहजादे’ और उनकी सियासत पर आ गया ।
प्रधानमंत्री मोदी भाजपा-एनडीए के लिए आज भी ‘तुरुप का पत्ता’ हैं, लेकिन ऐसे आकलन सामने आए हैं कि जब भी वह ‘शहजादे’ शब्द बोलते हैं, तो वोट बढ़ जाते है। ‘शहजादा’ कहने से बात मुस्लिम बादशाहत से जुड़ी और हिंदू-मुस्लिम मुद्दा ने भाजपा को ताकत और ध्रुविकरण दिया है।
बेशक प्रधानमंत्री की निजी, पारिवारिक पृष्ठभूमि ‘गरीबी’ की रही है, लेकिन बार-बार उसका राग अलापने से सहानुभूति मिली होगी , ऐसा नहीं लगता। वैसे कांग्रेस इतनी मजबूत भी नहीं है और 300 से कुछ ज्यादा सीटों पर ही उसने उम्मीदवार खड़े किए हैं, कांग्रेस में ही पार्टी छोडऩे वालों की भगदड़ मची है, फिर भी प्रधानमंत्री मोदी को निजी, आक्रामक, सांकेतिक शब्दों की राजनीति करनी पड़ी है, समझ के बाहर है।