अभी तक चुनाव में आर्थिक मुद्दों के संदर्भ में ‘मुफ्त की रेवडिय़ों’ का शोर था। एक सामाजिक और विशेषज्ञ पक्ष इसे ‘रेवड़ी’ मानने को तैयार नहीं है..!!
दिल्ली में इस बार चुनाव ‘वर्ग’ पर आधारित होता दिख रहा है। यह पहली बार हो रहा है कि चुनाव में आर्थिक मुद्दों की गूंज है। पहली बार ही किसी राजनीतिक दल ने ‘मध्य-वर्ग’ पर विशेष घोषणा-पत्र जारी किया है। यह काम भी केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने किया है। अभी तक चुनाव में आर्थिक मुद्दों के संदर्भ में ‘मुफ्त की रेवडिय़ों’ का शोर था। एक सामाजिक और विशेषज्ञ पक्ष इसे ‘रेवड़ी’ मानने को तैयार नहीं है।
उसका मानना है कि जनता का पैसा जनता के कल्याण पर खर्च किया जा रहा है, वंचित और गरीब तबके की मदद की जा रही है, तो इसमें गलत, अनैतिक और अर्थव्यवस्था-विरोधी क्या है? दूसरा पक्ष इसे सरेआम ‘रिश्वतखोरी’ करार देता है, क्योंकि मतदाता को कुछ नकदी, मुफ्त का लालच देकर उसका वोट हासिल किया जा रहा है, लेकिन एक वर्ग ऐसा है, जो देश के आर्थिक संसाधनों की ‘रीढ़’ है, लेकिन चुनावों में अभी तक उपेक्षित रहा है। उस वर्ग में डॉक्टर, इंजीनियर, सरकारी कर्मचारी, सरकारी पेंशनभोगी, बैंकर, एक खास वर्ग के पत्रकार, अध्यापक, प्रोफेसर आदि ऐसे पेशेवर लोग आते हैं, जो आयकर और अन्य करों के रूप में देश को ‘खजाना’ मुहैया कराते हैं। औसतन 100 रुपए कमाते हैं, तो 30 प्रतिशत कर चुकाना पड़ता है। आयकर देने वाला यह वर्ग आबादी का मात्र 4-5 प्रतिशत ही है। कुछ और लोग भी हैं, जो परोक्ष रूप से करदाता हैं और देश की अर्थव्यवस्था के संचालक हैं। वैसे जीएसटी और कुछ उपकर ऐसे हैं, जो देश की करीब 65 प्रतिशत आबादी को चुकाने ही पड़ते हैं।
इनमें आम आदमी भी शामिल है, लेकिन मध्य-वर्ग ऐसा है, जिसे निचोड़ा जाता रहा है, लेकिन बदले में वह ‘रेवडिय़ों’ की अपेक्षा भी नहीं करता। वह मुफ्तखोरी का पक्षधर नहीं है। अरबपति उद्योगपतियों का एक खास वर्ग है, जिसे किसी भी पार्टी की सत्ता पाल-पोस कर रखती है। इस वर्ग के 14.56 लाख करोड़ रुपए से अधिक के कर्ज बैंकों को ‘बट्टे खाते’ (राइट ऑफ) में डालने ही पड़ते हैं।
एक अरबपति को 6500 करोड़ रुपए का कर्ज मिला, लेकिन जब यह मामला आपस में सैटल किया गया, तो अरबपति को 1500 करोड़ रुपए का ही भुगतान करना पड़ा। देश में 400-500 ‘औद्योगिक मित्र’ ऐसे हैं, जिनके 10 लाख करोड़ रुपए का कर्ज सरकार ने माफ करा दिया। बेशक यह वर्ग भी मतदाता है, लेकिन यह वर्ग सरकारें संचालित करता है। सरकार से सिर्फ इतनी अपेक्षा रखता है कि वह उसके मोटे कर्जों को ‘बट्टे खाते’ में डलवाती रहे अथवा हजारों करोड़ रुपए के कर्ज के बदले उसे कुछ सौ करोड़ रुपए ही चुकता करने पड़ें।
मध्य-वर्ग में भी अपर, अर्ध अपर, मिडिल और लोअर वर्ग हैं। उनका मूल्यांकन उनके वेतन के आधार पर किया जाता है, क्योंकि आयकर भी उसी के अनुसार तय होता है। मध्य-वर्ग ऐसा है, जो गेहूं के साथ घुन की तरह पिसता रहा है। हालांकि यह वर्ग परिभाषित नहीं है, लेकिन माना जाता है कि दिल्ली में करीब 67 प्रतिशत आबादी मध्य-वर्ग के दायरे में आती है। देश में औसतन 31 प्रतिशत मध्य-वर्ग माना जाता है। बहरहाल यह मुद्दा दिल्ली के चुनाव की दिशा और दशा मोड़ भी सकता है।