वित्त वर्ष 2024-25 की विकास दर 6.4 प्रतिशत आंकी गई है, जो बीते चार साल में सबसे धीमी और निम्न स्तर पर रहेगी।
देश के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने जीडीपी की विकास दर का जो अनुमान बताया है, वह खतरे की घंटी है। ‘विकसित भारत’ के संकल्प और लक्ष्य को पीछे धकेल सकती है। यह अनुमान भारतीय रिजर्व बैंक, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, एडीबी और एसएंडपी एजेंसी के अनुमानों से भी कम है।
चालू वित्त वर्ष 2024-25 की विकास दर 6.4 प्रतिशत आंकी गई है, जो बीते चार साल में सबसे धीमी और निम्न स्तर पर रहेगी। भारतीय स्टेट बैंक की एक रपट में तो यह दर घटकर 6.3 प्रतिशत हो गई है। अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्रों के कुल 8 उप-क्षेत्रों में से कृषि और लोक प्रशासन को छोड़ कर शेष 6 क्षेत्रों में विकास दर में गिरावट आंकी गई है। विनिर्माण, सेवा, निर्माण, खनन, बिजली-गैस, होटल-परिवहन और औद्योगिक वृद्धि में वित्त वर्ष 2024 की तुलना में चालू वित्त वर्ष में गिरावट के पूरे आसार हैं।
कृषि में 1.4 प्रतिशत की तुलना में 3.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी और लोक प्रशासन में 7.8 प्रतिशत के स्थान पर 9.1 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। दरअसल नीतिकारों को यह चिंता करनी चाहिए कि भारत की वास्तविक मिश्रित सालाना विकास दर, बीते 10 सालों के दौरान, घटकर 5.9 प्रतिशत रह गई है। बीते 4 सालों में तो यह 4.8 प्रतिशत ही रह गई है। ऐसा देश ‘विकसित’ बनने का लक्ष्य कैसे हासिल कर सकता है।
भारत को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि उसकी विकास दर अमरीका, चीन, जापान सरीखे देशों की तुलना में ज्यादा है। अमरीका की अर्थव्यवस्था हमसे 8 गुना अधिक है, जबकि आबादी 33 करोड़ के करीब है। चीन की अर्थव्यवस्था हमसे 5 गुना ज्यादा है और जापान में आबादी कम है और वह विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत को आत्मचिंतन करना चाहिए कि सरकार 7-8 प्रतिशत विकास दर के दावे करती रहती है और हकीकत बहुत कम है।
दरअसल कोरोना महामारी के बाद यह भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे धीमी गति साबित हो सकती है। इस कथित मंदी का आधार व्यापक है। इसी अवधि में विनिर्माण क्षेत्र में 9.9 से घटकर विकास दर 5.3 प्रतिशत हो सकती है, जिसका असर रोजगार सृजन पर पड़ेगा। ऐसे में सरकार को खपत बढ़ाने के लिए कदम उठाने चाहिए।
विकास दर लुढक़ने के बावजूद निजी उपभोग में उछाल आएगा, यह एक अच्छी खबर है, लेकिन फिक्स्ड पूंजी निर्माण में बढ़ोतरी 6.4 प्रतिशत ही होगी, जो वित्त वर्ष 2024 में 9 प्रतिशत थी। निजी उपभोग व्यय और फिक्स्ड पूंजी निर्माण किसी भी अर्थव्यवस्था में क्रमश: 60 प्रतिशत और 30 प्रतिशत के योगदान के साथ बढ़ोतरी के इंजन होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि दोनों में गिरावट देखी जा रही है। सारांश यह है कि निवेश अर्थव्यवस्था को कई गुना बढ़ाने वाली ताकत के तौर पर काम नहीं कर रहा है। अर्थात निवेश पर्याप्त नहीं मिल पा रहा है। हालांकि भारत में कॉरपोरेट कर अन्य देशों की तुलना में कम है और उत्पादन से जुड़ी योजनाओं के तहत प्रोत्साहन दिए जाते हैं, फिर भी अपेक्षाकृत निवेश कम आ रहा है।
कोरोना महामारी के बाद वित्त वर्ष 2020-21 में हमारी अर्थव्यवस्था में 5.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। उसके बाद 2021-22 में यह 9.7प्रतिशत , 2022-23 में 7 प्रतिशत और 2023-24 में 8.2 प्रतिशत की विकास दर दर्ज की गई, लेकिन अनुमानित गिरावट बहुत ज्यादा है और हमें चेतावनी देती है। अर्थव्यवस्था में संभावित गिरावट के प्रमुख कारण ये बताए जा रहे हैं-वैश्विक मंदी का असर, महंगाई से राहत नहीं, उपभोक्ता व्यय में कमी, देश के व्यापार घाटे में लगातार बढ़ोतरी और ऊंची ब्याज दरों का मांग पर प्रभाव।
क्या इस घटती विकास दर के लिए रिजर्व बैंक, उसकी मौद्रिक नीति और गैर-लचीली ब्याज दरों को दोषी ठहराया जा सकता है? कुछ हद तक यह सवाल सही है, क्योंकि दिल्ली में हुई बैठक के दौरान यह आकलन सामने आया था। भारत में मुद्रास्फीति भी बहुत अहम कारण है। मुद्रास्फीति अधिकतर खाद्य पदार्थों की कीमतों के कारण बढ़ती है, तो ऊंची ब्याज दरें भी जिम्मेदार हैं। इन दोनों ही स्थितियों में सरकार को कारगर और आम आदमी-समर्थक कदम उठाने चाहिए। बहरहाल जागने और सचेत होने की घंटी बजी है, तो सरकार को यथासमय नींद से उठना चाहिए।