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यही आशा, यही निराशा

सार

बीजेपी की एमपी सरकार अभी तो दो तिहाई बहुमत से चल रही है. लेकिन इसके अतीत की शुरुआत कांग्रेस में दल-बदल से हुई थी. कांग्रेस से इतने विधायक और नेता बीजेपी में शामिल हो गए थे, कि कमलनाथ की सरकार गिर गई थी और बीजेपी की सरकार बन गई थी. तीन  साल बाद चुनाव में बीजेपी ने फिर से भारी बहुमत हासिल कर लिया. यहीं से बीजेपी में बाहरी और भीतरी का द्वंद शुरू हुआ..!!

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विस्तार

    पूर्व मंत्री और सागर के वरिष्ठ नेता भूपेंद्र सिंह फिलहाल बाहरी और भीतरी द्वंद्व के प्रखर प्रवक्ता बनकर उभरे हैं. उनकी नाराजगी पहले भी सामने आती रही है. विधानसभा में भी उन्होंने अपने तेवर दिखाये. वह यहां तक कह रहे हैं कि, सागर में तो कांग्रेस की सरकार है.

    उनकी इस बात का इशारा निश्चित रूप से कांग्रेस से आए बीजेपी के वर्तमान  मंत्री गोविंद सिंह की ओर है. संगठन दोनों नेताओं के बीच के विवाद को निजी मानता रहा है, लेकिन वरिष्ठ नेताओं में निजी विवाद भी पार्टी को नुकसान तो पहुंचाते ही हैं.

    राजनीति सत्ता के लिए होती है. सत्ता के जरिए सेवा लक्ष्य होता है लेकिन पहला टारगेट सत्ता हासिल करना होता है. सामान्य कार्यकर्ता हो या वरिष्ठ नेता, सब की भूमिका पार्टी को सत्ता में लाने में होती है. शिवराज सिंह चौहान की सरकार जब चुनाव में पराजित हो गई थी और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार मामूली अंतर से बनी थी तब बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने अन्याय अत्याचार भोगा था.

    कांग्रेस में भी घुटन का वातावरण था. ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ एक धड़ा कांग्रेस से टूटा और बीजेपी ने उसका लाभ उठाकर अपनी सरकार स्थापित की. फिर तो सब कुछ जनादेश से ही हुआ. उपचुनाव हुए सरकार बहुमत में आई. फिर विधानसभा चुनाव हुआ और बीजेपी को दो तिहाई बहुमत मिला. 

    इसमें एक बात तो स्पष्ट है कि, जो नेता कांग्रेस से बीजेपी में शामिल हुए वह भले ही बाहरी हों, लेकिन जनादेश में हारने के बाद बीजेपी को दोबारा सत्ता दिलाने में यह नेता नींव के पत्थर माने जाएंगे. अगर ऐसा नहीं होता तो शायद बीजेपी की सरकार नहीं बनती. जब पांच  साल कांग्रेस की सरकार चलती, उसके बाद चुनाव होते तो फिर जनादेश वैसा ही होता जैसा अभी है, इस पर तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता.

    संगठन के प्रति समर्पित कार्यकर्ता और नेता को इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि, जिन नेताओं को बाहरी के रूप में देखा जा रहा है, जिनके चेहरों को देखकर सरकार में कांग्रेस को देखा जा रहा है, वह चेहरे अगर नहीं आते तो सरकार भी नहीं होती.

    जहां तक भूपेंद्र सिंह का प्रश्न है. दल बदल के बाद जो सरकार बनी उसमें उनके पास भी मंत्री का महत्वपूर्ण पद रहा और गोविंद सिंह राजपूत भी उस सरकार में मंत्री थे. बीजेपी की नई सरकार में गोविंद सिंह राजपूत तो मंत्री बने हुए हैं लेकिन भूपेंद्र सिंह को मंत्री पद हासिल नहीं हो पाया. 

    जब दो मंत्री एक जिले के होते हुए तीन साल संतुलन के साथ सागर में बीजेपी की सरकार चल सकती है तो फिर अब क्यों नहीं? सत्ता हिस्सेदारी, सामंजस्य और मिलजुल कर ही चलती है. सागर में जो भी विवाद की स्थितियां है उस पर संगठन को हस्तक्षेप करना चाहिए. विवादों  का निराकरण करना चाहिए. गुटबाजी के बीज को फलने फूलने का मौका नहीं देना चाहिए.

    बाहरी भीतरी की समस्या कई जिलों में है. अभी हाल ही में विजयपुर के उपचुनाव में बीजेपी को हारना पड़ा. इसके पीछे भी बाहरी और भीतरी का ही गणित दिखाई पड़ता है. ज्योतिरादित्य सिंधिया स्टार प्रचारक होने के बाद भी प्रचार के लिए विजयपुर नहीं जाते हैं.

    बीजेपी के प्रत्याशी मंत्री होने के बावजूद चुनाव हार जाते हैं. इस हार के कारणों को पार्टी में जरूर तलाशा होगा. जो सामान्य निष्कर्ष निकल रहा है वह यही है कि, बीजेपी के स्थानीय चेहरों ने कांग्रेस  से आए चेहरों को स्वीकार नहीं किया. 

    यद्दपि राम निवास रावत उस नींव में शामिल नहीं थे, जिसके कारण बीजेपी की सरकार की वापसी हुई थी. यह बात अभी तक पता नहीं चल पाई कि किस राजनीतिक समीकरण में वह बीजेपी में शामिल हुए थे.

    सत्ता का स्वभाव गुटबाजी बन गया है. कांग्रेस तो गुटबाजी का ही संगठन माना जाता है. बीजेपी संगठन आधारित कैडर बेस पार्टी मानी जाती है. पॉलीटिकल पार्टी है तो सत्ता ही मोटिव है. जीतना ही लक्ष्य है. सत्ता को बनाए रखना ही कसौटी है. जहां भी कुछ विवाद हैं, वह भी पावर में हिस्सेदारी के लिए ही होंगे.

    बाहरी भीतरी का वन टाइम प्रयोग तो स्वीकारा जा सकता है, लेकिन इस प्रयोग को परंपरा नहीं बनाया जा सकता. मूल कार्यकर्ताओं में जिन्होंने पार्टी की जड़ों से जुड़कर काम किया है, उन्हें बाहरी चेहरे देखकर तकलीफ होना मानवीय है. जिन चेहरों से आमने-सामने चुनावी युद्ध हुए हैं, उनके चेहरों को अब अपने ऊपर स्वीकार करना पड़ता है, तो निराशा तो स्वाभाविक है.

    लाइफ की तरह राजनीतिक दल और लीडर का भी चक्र घूमता रहता है. कुछ भी स्थिर नहीं होता. पद की आकांक्षा तो नई बात नहीं है. नई बात है छूट जाने के बाद संतुलित और आनंदपूर्ण जीवन गुजारना. पाने से ज्यादा छोड़ने में जो खुशी  महसूस करता है, उसे न तो कभी तेवर दिखाने की जरूरत पड़ती है और ना कभी गुटों में बंटना पड़ता है.

    बीजेपी में बाहरी भीतरी का चैलेंज सिद्धांतत: भले स्वीकार कर लिया गया हो लेकिन प्रैक्टिकली इसकी समस्या बनी हुई है. इस पर पार्टी को विचार करने की जरूरत है. परिस्थितियों को इग्नोर करने से समस्या का समाधान नहीं होगा.

    बाहरी-भीतरी के इस द्वंद में पार्टी के कई नेताओं ने अपना वजूद खो दिया है. ऐसी परिस्थितियां भी पार्टी के लिए बेहतर नहीं हो सकतीं. कार्यकर्ता भाव और समर्पण ही संगठन की ताकत होती है. सत्ता की धुरी पर बाहरी, भीतरी, वरिष्ठ, कनिष्ठ, जरूरी,  गैरज़रूरी सभी को समायोजित करना ही संगठन का बीज है.