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यह कसौटी और देश के चुनाव 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Sat , 08 Sep

सार

ब्रिटेन के आम चुनाव में लेबर पार्टी ने 650 में 450 सीट जीत कर ऐतिहासिक जीत दर्ज की, यानी लेबर पार्टी को 60 प्रतिशत से अधिक सीट पर जीत मिली। मगर इतना भारी बहुमत हासिल करने के बाद भी पार्टी को केवल 33.8 प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए। इस बीच, आव्रजन विरोधी नए दल रिफॉर्म पार्टी का प्रदर्शन मत प्रतिशत के लिहाज से शानदार रहा..!!

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विस्तार

भारत में चुनाव और चुनाव-पूर्व गठबंधन एक खास बात होते जा रहे हैं। हाल ही में सम्पन्न चुनाव में यह अनुभव हुआ कि हमारी चुनाव प्रणाली बुनियादी रूप से कमजोर एवं अतार्किक हो सकती है। भारत, ब्रिटेन और अमेरिका में चुनाव क्षेत्र आधारित फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट वोटिंग प्रक्रिया दो वास्तविक दलों वाले देशों जैसे अमेरिका में वास्तविक पसंद को कुछ अंश तक ही परिलक्षित करती है। विजयी उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसे कुल मतों का बहुमत यानी 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त हुए हों।

उदाहरण के लिए ब्रिटेन के आम चुनाव में लेबर पार्टी ने 650 में 450 सीट जीत कर ऐतिहासिक जीत दर्ज की। यानी लेबर पार्टी को 60 प्रतिशत से अधिक सीट पर जीत मिली। मगर इतना भारी बहुमत हासिल करने के बाद भी पार्टी को केवल 33.8 प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए। इस बीच, आव्रजन विरोधी नए दल रिफॉर्म पार्टी का प्रदर्शन मत प्रतिशत के लिहाज से शानदार रहा।

इसके नेता नाइजल फराज को आखिरकार आठवें प्रयास में संसद पहुंचने का अवसर मिल गया। मगर 14 प्रतिशत मत पाने के बाद भी इस पार्टी को केवल 5 सीट मिलीं। वर्ष 2015 में यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेंस पार्टी को 12 प्रतिशत से अधिक मत मिले थे, मगर उसके पाले में केवल एक सीट आई थी। सबसे शानदार सफलता मध्यमार्गी लिबरल डेमोक्रेट्स को मिली। उदारवादी लंबे समय से आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग करते रहे हैं। वे ब्रिटेन में अस्तित्व में आने के बाद से तीसरे सबसे बड़े दल रहे हैं, मगर राजनीति में उनका विशेष दखल नहीं रहा है।

वर्ष 2019 में हुए चुनाव में उनके नेता जो स्विंसन ने सबसे बड़े दलों के बराबर खड़ा होने का प्रयास किया था। उन्होंने स्वयं को संभावित प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने का प्रयास किया और लगभग सभी चुनाव क्षेत्रों में दांव आजमाने पर ध्यान केंद्रित किया था। उदारवादियों ने अपना मत प्रतिशत चार आधार अंक जरूर बढ़ा लिया मगर उनकी सीट 12 से कम होकर 11 रह गईं।

इसकी तुलना में 2024 में पार्टी ने जीत की अधिक संभावनाओं वाली 100 से कम सीट पर विशेष ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने अपने सभी संसाधन वहां झोंक दिए और दूसरे दलों की तुलना में काफी पहले ही अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। पार्टी के नेता ने स्वयं को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने से परहेज किया और इसके बजाय कुछ विशेष मगर नीतिगत विषयों के लिहाज से महत्त्वपूर्ण सीटों पर ध्यान दिया।

लिबरल डेमोक्रेट्स का मत प्रतिशत मात्र 0.6 प्रतिशत बढ़ा, मगर संसद में उनकी सीट छह गुना बढ़कर 72 हो गईं। यह पिछले कई दशकों में उनका सबसे उम्दा प्रदर्शन रहा है। इन बातों के बावजूद एफपीटीपी छोटे दलों के लिए चुनौती रहा है क्योंकि इतने ऐतिहासिक प्रदर्शन के बावजूद हाउस ऑफ कॉमन्स में उनकी सीट की हिस्सेदारी उनके मत प्रतिशत के मोटे तौर पर समतुल्य है।

ब्रिटेन के पड़ोसी देश फ्रांस में स्थिति काफी अलग है। वहां एक अप्रत्याशित एवं शुरुआती चुनाव में राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों से जुड़े मध्यमार्गी गठबंधन को सीट का काफी नुकसान हुआ। अंतिम परिणाम आने पर न वामपंथी, न ही मध्यमार्गी और न ही दक्षिण-पंथी (जो अप्रत्याशित रूप से तीससे स्थान पर रहा) दलों को बहुमत मिला। फ्रांस में भी एफपीटीपी है मगर वहां दो चरणों में मतदान होता है। दूसरे चरण में केवल वे उम्मीदवार ही चुनाव लड़ने के पात्र होते हैं जिनका प्रदर्शन पहले चरण में मजबूत रहता है। इससे मतदाताओं को उम्मीदवारों की एक छोटी सूची में अपना मनपसंद उम्मीदवार चुनने में मदद मिलती है।

फ्रांस में लंबे समय तक एक दूसरे के कटु शत्रु रहे वामपंथी और मध्य मार्गी ने दूसरे चरण में अति चरमपंथी दलों को रोकने के लिए एक दूसरे के साथ हाथ मिला लिया। वामपंथी दलों के लगभग सभी मतदाताओं ने मध्यमार्गी उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान किया, जबकि मध्यमार्गी मतदाताओं के एक छोटे समूह ने वामपंथी उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान किया। पहले चरण में सबसे आगे चलने वाले अति चरमपंथी दलों को रोकने के लिए ऐसा करना जरूरी था, जो दूसरे चरण में तीसरे स्थान पर पहुंच गए। मगर यह प्रश्न काफी जटिल है कि चुनाव में ‘जीत किसे मिली है’ और इस पर अब भी बहस चल रही है।

कुछ मायनों में फ्रांस की चुनाव प्रणाली अमूमन रणनीतिक मतदान के जटिल प्रश्न को पारदर्शी और आसानी से समझ एवं चर्चा के लायक बना देती है। ब्रिटेन में लेबर और लिबरल डेमोक्रेट्स सीमित मतदान प्रतिशत के साथ मजबूत प्रदर्शन करते प्रतीत हुए हैं क्योंकि उनके मतदाताओं ने काफी सूझ-बूझ का परिचय दिया है। मतदाताओं के लिए यह स्पष्ट था कि कंजर्वेटिव पार्टी के खिलाफ किस उम्मीदवार के जीतने की प्रबल संभावना थी। लिबरल डेमोक्रेट्स का ऐसे क्षेत्रों में प्रचार अभियान बिल्कुल सरल था ‘लिबरल डेमोक्रेट का उम्मीदवार यहां जीत रहे हैं’। यह इस बात का संकेत था कि उनके लिए मतदान करना पूरी तरह सुरक्षित था।

एफपीटीपी के उचित या अनुचित होने पर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। केवल मत प्रतिशत को देखते हुए तो बिल्कुल किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। मतदान करने के लिए मतदाताओं के पास पर्याप्त सूचना है कि नहीं यह भी एक बड़ा सवाल है। भारत में यह कहना बहुत मुश्किल होता है कि किसी चुनाव क्षेत्र में कौन सा उम्मीदवार भारी पड़ रहा है। इसका मतलब है कि मतदाताओं के लिए यह समझना कठिन होता है, खासकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहां मुकाबला चौतरफा हो जाता है। इस कारण से दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में चुनाव-पूर्व गठबंधन भारतीय चुनाव की एक खास बात बन गई है।