एमपी की राजनीति में किस नेता के लिए कौन खेल कर रहा है, इसकी राजनीतिक चर्चाएं तो बहुत हुआ करती थीं लेकिन राज्य की राजनीति में ऐसा नेता पहली बार मिला है जो ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ पर सियासत चलाने का दावा कर रहा है. राजनीति और सरकारी सिस्टम में काम की तलाश करने वाले उन हाथों तक पहुंच ही जाते हैं जहां निर्णायक नेता के सूत्र होते हैं. अक्सर तो ऐसा देखा गया है कि दावे से काम कराने वाले दावेदार ही राजनीति और सरकार के नेतृत्व से अपने संबंधों का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन पहली बार सार्वजनिक मंच से कोई नेता दूसरे नेता के कपड़े फाड़ने का आव्हान करता है.
जब दोनों नेताओं के बीच तल्खी बढ़ती दिखाई पड़ी तब कांग्रेस वचनपत्र विमोचन कार्यक्रम में कमलनाथ यह ऐलान करते हैं कि राजनीतिक गलती के लिए गाली खाने की ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ उन्होंने दिग्विजय सिंह को दे रखी है. दिग्विजय ने भी तुरंत जवाब दिया कि गाली का जहर पीने के लिए तो तैयार हैं लेकिन यह मालूम होना चाहिए कि गलती किसकी है?
इस विवाद की शुरुआत शिवपुरी जिले में कांग्रेस प्रत्याशियों के चयन का विरोध करने आए कार्यकर्ताओं के सामने शुरू हुआ. कमलनाथ ने राजनीतिक नफा नुकसान की बिना परवाह किए कह दिया कि इसमें उनकी कोई गलती नहीं है. कपड़े फाड़ना है तो जाओ जिम्मेदार नेताओं के फाड़ो. दिग्विजय सिंह ने भी ट्वीट के जरिए बिना नाम लिए इस बात का जवाब दिया कि राजनीतिक धैर्य रखना बहुत जरूरी है. धैर्य से राजनीति करने का दिग्विजय का स्टाइल वास्तव में लाजवाब है. विरोधियों को सबक सिखाने से वह कभी नहीं चूकते लेकिन मौके और परिस्थितियों को देखकर ही काम करते हैं.
कमलनाथ की स्पष्टवादिता कई बार कांग्रेस के लिए भारी पड़ती हुई दिखाई पड़ती रही है. जब यह बात उन्होंने स्वयं कह दी है कि गाली खाने की पॉवर ऑफ अटॉर्नी किस नेता को उन्होंने दी है तो इससे यह सवाल अपने आप पैदा होता है कि किस-किस काम के लिए किस-किस को राजनीति और सरकार के समय ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ दी गई थी. पब्लिक परसेप्शन में तो यह बात पहले से ही मान्य थी कि 15 महीने की पॉवर में सब कुछ निहित उद्देश्य के लिए ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ पर ही चल रहा था.
कांग्रेस की सरकार का पतन भी शायद ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ होल्डर्स के कारण हुआ है. जब सरकार गिरी थी तब भी कमलनाथ ने इसके लिए दूसरे नेताओं को ही जिम्मेदार बताया था. राजनीति में जो अपनी गलतियां नहीं स्वीकारता, जिसे अपनी गलतियों का अंदाजा नहीं होता, जो गलतियां के लिए जनता और कार्यकर्ताओं के विरोध और आक्रोश को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रखता उसको जननेता कैसे कहा जा सकेगा?
कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच में ‘बड़े भाई’ और ‘छोटे भाई’ का रिश्ता बहुत लंबे समय से प्रचारित है. यद्यपि समय-समय पर दोनों के बीच कटु राजनीतिक वार्तालाप भी सामने आते रहे हैं. राजनीति में परसेप्शन बहुत महत्वपूर्ण होता है. परसेप्शन में तो यह जोड़ी एक ही मानी जाती है लेकिन राजनीतिक विश्लेषक ‘कपड़े फाड़ो’ जैसे बयानों से भ्रमित हो जाते हैं. मध्यप्रदेश कांग्रेस में विशेषकर टिकट वितरण में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के ही खेमे दिखाई पड़ रहे हैं. इनके अलावा किसी भी तीसरे नेता की कोई खास भूमिका नहीं दिखाई पड़ती है.
एमपी कांग्रेस की कार्यप्रणाली तो राजनीतिक संगठन से ज्यादा फ्रेंचाइजी कंपनी की दिखाई पड़ती है. कमलनाथ का एक और बयान भोपाल से लगाकर दिल्ली तक नेताओं को हिलाये हुए है, जिसमें उन्होंने कहा कि छिंदवाड़ा के टिकट पहले उनके सांसद बेटे नकुलनाथ घोषित करेंगे, उसके बाद आलाकमान दिल्ली में घोषित करेगा. नकुलनाथ ने कुछ सीटों के प्रत्याशियों के नाम घोषित भी कर दिए हैं. इस राजनीतिक वक्तव्य ने राजनीति के जानकारों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने मध्यप्रदेश के कांग्रेस संगठन को फ्रेंचाइजी के रूप में दे दिया है.
वचनपत्र जारी करते समय भी कांग्रेस आलाकमान का मंच पर कोई भी प्रतिनिधि उपलब्ध नहीं था. संसदीय राजनीति में तमाम ताकतवर क्षेत्रीय नेता रहे हैं लेकिन आलाकमान की ताकत को कभी भी कमजोर दिखाने की कोशिश नहीं की जाती. कमलनाथ ने वचनपत्र में मध्यप्रदेश की आईपीएल टीम बनाने का भी वायदा किया है. टीम कब बनेगी यह तो समय बताएगा लेकिन ऐसा लगता है कि कमलनाथ एमपी पॉलिटिक्स का आखिरी आईपीएल ही खेल रहे हैं. इसके लिए खेल के नियम भी वही बना रहे हैं. ग्राउंड भी उन्हीं का है, उन्हीं की ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ के प्लेयर ग्राउंड में खेल रहे हैं. वह चाहते हैं कि उनकी स्पॉन्सर टीम की सक्सेस के लिए जनता ताली बजाये लेकिन कार्यकर्ताओं और जनता को अपने आक्रोश-विरोध और काम के लिए ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ होल्डर से संपर्क करना पड़ेगा.
एमपी कांग्रेस में चल रही उठापटक और घटनाक्रमों को देखकर तो ऐसा लगता है कि नेता अपनी मदद तो करना चाहते हैं लेकिन कांग्रेस की कोई मदद नहीं करना चाहता. दिग्विजय सिंह अपने ट्वीट में यह कह रहे हैं कि ईश्वर भी उन्हीं का साथ देते हैं जो मन और मेहनत का मेल रखते हैं. नेता का मन अगर ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ से चल रहा है तो फिर कार्यकर्ताओं की मेहनत का नेता के मन से मेल कैसे खाएगा? ऐसे ही हालात कांग्रेस की संभावनाओं पर कुठाराघात करेंगे.
कांग्रेस के साथ यह भी एक राजनीतिक त्रासदी हो गई है कि तीन-चार महीने पहले जो कांग्रेस आम धारणा में सत्ता के करीब देखी जा रही थी वह अब धीरे-धीरे कड़ी टक्कर में फंसती जा रही है. पिछले चुनाव में सत्ता में सुनिश्चित रूप से आने की गलतफहमी बीजेपी को हुई थी और इस चुनाव में यह गलतफहमी कांग्रेस को हो गई लगती है. जमीनी हकीकत का आकलन करने की बजाय सर्वे और सतही आधार पर जीत के ऐसे दावे किए जा रहे हैं जैसे मतदान तक की जरूरत ही नहीं है.
राजनीति में ऐसी परिस्थितियां मतदान तक बहुत खतरनाक स्वरूप ले लेती हैं. जिनमें काफी पहले से किसी भी पार्टी द्वारा यह मान लिया जाता है कि उसकी विजय सुनिश्चित है. कांग्रेस अभी इसी दौर से गुजर रही है. राज्य में चुनाव का नेतृत्व कर रहे और मुख्यमंत्री फेस का आचरण भी ऐसा ही संदेश दे रहा है कि सत्ता में आना तो केवल समय की बात है. प्रत्याशियों की सूची के बाद कांग्रेस में बढ़ता विद्रोह भविष्य की राह में रोड़ा बन सकता है. ‘कपडे फाड़ो’ प्रतियोगिता और फ्रेंचाइजी की ‘पॉवर ऑफ अटॉर्नी’ काम, क्रोध, मद, लोभ को सातवे आसमान पर पहुंचाती दिखाई पड़ रही है. बदहाली-खुशहाली, रखवाली और बिकवाली राजनीति के सिक्के के ही पहलू दिखाई पड़ते हैं.