एमपी में प्रशासनिक सर्जरी रोबोट मोड में चल रही लगती है. तबादले विभागों में अस्थिरता पैदा कर रहे हैं. कामकाज में स्थायित्व की तलाश होती है लेकिन ताजा सर्जरी यही बता रही है, कि नई सरकार के ग्यारह महीने के कार्यकाल में ज्यादातर सीनियर अफसरों के दो या तीन बार तबादले हो चुके हैं..!!
ताज़ा तबादलों में मुख्यमंत्री सचिवालय भी प्रभावित हुआ है. मुख्यमंत्री के दो प्रधान सचिव दूसरे विभागों में पदस्थ कर दिए गए हैं. इनमें से एक अफसर तो ऐसे हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री की शपथ लेने के बाद मुख्यमंत्री सचिवालय में पदस्थ किया गया था.
राघवेंद्र सिंह को खनिज संसाधन विभाग से मुख्यमंत्री सचिवालय लाया गया था. फिर उन्हें उद्योग विभाग का प्रभार दिया गया और अब उन्हें मुख्यमंत्री सचिवालय से अलग कर पूरे उद्योग विभाग, एमएसएमई का भी प्रभार दे दिया गया है.
इसी प्रकार दूसरे प्रमुख सचिव संजय शुक्ला नई सरकार बनते समय उद्योग और पीएचई विभाग के प्रमुख सचिव थे. पहले उनसे पीएचई विभाग हटाया गया, फिर उद्योग विभाग हटाया गया. इसी बीच उन्हें राजभवन भी भेजा गया. इसके बाद मुख्यमंत्री सचिवालय में लाया गया और महिला बाल विकास विभाग खनिज साधन विभाग का प्रभार दिया गया. अब उनसे सभी विभाग हटा लिए गए हैं. उन्हें नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग का दायित्व दिया गया है.
इन दोनों वरिष्ठ अधिकारियों के विभागों में जितने बदलाव हुए हैं, वह यह बताते हैं कि तबादलों के डिसीजन के पहले काबिलियत की अजीब अंडरस्टैंडिंग होती है. निर्णय लेने वाला ना मालूम किन आधारों पर निर्णय लेता है. जिन्हें इतने कम समय में ही बदलना पड़ता है.
जब वरिष्ठ स्तर पर इतनी जल्दी-जल्दी विभागों में बदलाव होगा तो फिर विभागों में निर्णय और काम की गति निश्चित रूप से प्रभावित होगी. प्रदेश में निवेश सरकार की प्राथमिकता लगती है. इन्वेस्टर्स सम्मिट रीजनल लेबल पर भी हो रही हैं. देश के औद्योगिक शहरों में निवेश के लिए मुख्यमंत्री लगातार संपर्क कर रहे हैं. उद्योग विभाग में वरिष्ठ स्तर पर अफसरों की पदस्थापना में इतनी अस्थिरता, निवेश के लिए अनुकूल तो नहीं कही जा सकती.
एमएसएमई के सेक्रेटरी और उद्योग आयुक्त नवनीत कोठारी को तो मात्र छह महीने के भीतर ही बदल दिया गया है. इतने कम समय में किसी अधिकारी की योग्यता का निर्धारण किन आधारों पर कर लिया जाता है?
निवेश की बातें हर सरकार करती है. इन्वेस्टर सम्मिट भी हर साल होती हैं लेकिन हालात मध्य प्रदेश में नहीं बदलते. बदलते हैं तो केवल, विभागों के सीनियर अफसर. इन बदलावों के पीछे क्या सोच काम करती है, यह समझना काफी मुश्किल है.
सबसे पहले जब नई सरकार का गठन हुआ था. तब पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के साथ रहे अफसरों को ताबड़तोड़ ढंग से हटाया गया था. उस समय तो ऐसा लग रहा था, कि जैसे भाजपा की नहीं, कांग्रेस की सरकार आ गई है. लेकिन धीरे-धीरे अफसर फिर मुख्य भूमिका में आ गए हैं.
सरकार के ग्यारह महीने के कार्यकाल में दूसरे मुख्य सचिव अनुराग जैन की यह प्रशासनिक सर्जरी है. इसके पहले वीरा राणा ने भी प्रशासनिक सर्जरी की थी, उस समय जो सही माना गया था, उन्हीं अफसरों के आज फिर से विभाग बदले गए हैं. इसका मतलब है, कि पुराने निर्णयों अस्वीकार किया गया है. जबकि उच्च स्तर पर निर्णय लेने वाले में कोई परिवर्तन नहीं है.
ताजा सर्जरी में ऊर्जा विभाग भी प्रभावित हुआ है. इस सर्जरी में छब्बीस आईएएस अधिकारियों के तबादले हुए हैं, इनमें से बहुत कम ऐसे अधिकारी होंगे जिनका पहली बार तबादला हुआ है. लगभग सभी अफसरों के तबादले दूसरी बार हो रहे हैं.
सर्जरी में जनसंपर्क विभाग भी प्रभावित हुआ है. बीते छह सालों से रिक्त मध्य प्रदेश माध्यम के कार्यकारी संचालक के पद पर पहली बार संचालक जनसंपर्क की नियुक्ति की गई है. जनसंपर्क विभाग सरकार का आंख-कान होता है. विधानसभा चुनाव के बाद जनसंपर्क विभाग में चार आयुक्त पदस्थ हो चुके हैं. चुनाव में विभाग के आयुक्त की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
विभाग के विनिंग कैप्टन को तो सरकार पुरस्कृत करती है लेकिन इसके विपरीत तत्कालीन आयुक्त मनीष सिंह को हटाया गया था. महीनों तो उन्हें कोई विभाग नहीं दिया गया. फिर हाउसिंग बोर्ड में पदस्थ किया गया, अब उन्हें परिवहन विभाग में दायित्व दिया गया है. जनसंपर्क विभाग में मनीष सिंह के बाद विवेक पोरवाल, फिर संदीप यादव और वर्तमान में डॉक्टर सुदाम खाड़े को आयुक्त पदस्थ किया गया. इतने बदलावों के बाद भी चर्चाओं में कयास लगाए जाते हैं कि विभाग में कभी भी बदलाव की पूरी संभावना है.
नए मुख्य सचिव का कार्यकाल दस महीना शेष है. आम चर्चा तो यह है कि उन्हें सेवा वृद्धि मिल जाएगी लेकिन इस पर अभी निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता. अगर कार्यकाल समाप्त होते ही मुख्य सचिव सेवानिवृत होते हैं, तो फिर इतने कम समय में ही दूसरा अफसर मुख्य सचिव के पद पर बैठेगा. फिर प्रशासनिक सर्जरी का नया दौर चालू होगा, तबादलों की यह गति विभागीय कामकाज में अस्थिरता पैदा करती है, निर्णय को प्रभावित करती है, परफॉर्मेंस को खराब करती है.
तबादला सरकारों का हथियार होता है. आवश्यकता और उपयोगिता के हिसाब से यह जरूरी है लेकिन इसके पीछे तार्किक कारण होना चाहिए. सबसे जरूरी यह आधार होना चाहिए कि इससे कामकाज को गति मिले, जनहित के निर्णयों में तेजी आएगी.
इस प्रशासनिक सर्जरी में उमाकांत उमराव ऐसे अफसर हैं, जिन्हें सरकार की नाराजगी के कारण राजस्व मंडल में भेज दिया गया था. फिर उन्हें वापस लाकर श्रम विभाग का पीएस बनाया गया था. इस ट्रांसफर आर्डर में उन्हें तीन महत्वपूर्ण विभाग दे दिए गए हैं. उनकी काबिलियत पर कोई सवाल नहीं है लेकिन यह काबिलियत पहले भी थी.
ना तो नाराजगी के कारण किसी को समझ में आया और ना ही प्रसन्नता की वजह समझ आ रही है. ऐसी परिस्थितियां गलत परसेप्शन बनाती हैं. ऐसा लगता है कि सरकारें केवल चुनाव के समय ही परसेप्शन की तरफ ध्यान देती हैं जबकि हर दिन, हर निर्णय के पीछे किस तरह का परसेप्शन बन रहा है, इस तरफ सरकार का पूरा अटेंशन होना चाहिए.
शासन का इकबाल सबसे जरूरी होता है. यह किसी एक निर्णय से नहीं बनता. इसके लिए सतत, सजग और सचेत रहने की आवश्यकता होती है. इंप्लीमेंटिंग और मॉनिटरिंग अलग अलग स्तर पर होना चाहिए. एक और गलत प्रवृत्ति विकसित हो गई है कि मुख्यमंत्री सचिवालय जो कि सम्पूर्ण शासन की मानिटरिंग की रिस्पांसिबिलिटी निभाता है, उसमें बैठे हुए वरिष्ठ अधिकारी महत्वपूर्ण विभागों का प्रभार भी अपने साथ रखते हैं.
हजारों करोड़ के बजट वाले इन विभागों का इंप्लीमेंटेशन जिन अधिकारियों के नियंत्रण में है, वही उसको मॉनिटर करते हैं. ऐसे में संदेह उत्पन्न होता है. वैसे भी यह एडमिनिस्ट्रेटिव प्रिंसिपल्स के खिलाफ है. शायद इसीलिए पीएम सचिवालय में ऐसी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती. सख्त और निष्पक्ष मॉनीटरिंग गुड गवर्नेंस का आधार है.
कम से कम उच्च स्तर पर तो सीनियर अफसरों को एक निश्चित कार्यकाल काम करने के लिए मिलना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो अफसर भी किं कर्तव्य विमूढ़ होकर समय काटने लगते हैं. प्राइवेट तंत्र अभय होकर सरकारी तंत्र पर नियंत्रण जमाने में लगा रहता है.फास्टटैग तबादलों के पीछे भी प्राइवेट तंत्र की भूमिका समझी जा सकती है.