हीरे की खदान तो मध्य प्रदेश की पहचान है. मध्य प्रदेश में भले ही सोने की खदानें होने के संकेत मिले हों, लेकिन अभी खुदाई के नतीजे तो सामने नहीं आए हैं. खदानों में सोना अभी खोजा जा रहा है, लेकिन एमपी का परिवहन विभाग सोना उगल रहा है..!!
लोकायुक्त और आयकर विभाग की जांच कार्यवाही भले ही घरों पर चली हो, लेकिन सोना जंगल में गाड़ी में मिला है. सोने की ख़बरों से मीडिया भरा पड़ा है. करप्शन, कांस्टेबल और कॉन्ट्रेक्टर का गठजोड़ सुर्खियों में है. नेशनल मीडिया में भी कांस्टेबल के करप्शन और गोल्ड की चर्चा जोरों पर है. कागजात, नगदी और सोना जब्त हो चुका है, विवेचना जारी है. आरोपी की तलाश है.
यह सारे नजारे हर छापे में उभरते हैं. इसे कानून की कमजोरी कहा जाए या सिस्टम की मिलीभगत माना जाए, कि लंबी जांच और कानूनी प्रक्रिया में सारे मामले अपनी गंभीरता खो देते हैं. भोपाल में कुछ दिन पहले एमडी ड्रग का रैकेट पकड़ा गया था. फैक्ट्री उजागर हुई थी. बड़ा हो- हल्ला मचा था. फिर सब कुछ वैसे ही चलने लगा.
करप्शन तो अब चुनाव में भी कोई मायने नहीं रखता. वोट के लिए करप्शन के काले धन का ही उपयोग होता है. सिस्टम में तो करप्शन का सोना ही सोना है. सरकारी काम करप्शन से शुरू और करप्शन पर ही ख़त्म होने लगा है. परिवहन विभाग तो जब से बना होगा, तभी से वहां के करप्शन का सोना बड़ी-बड़ी जगह तक पहुंचता रहा है.
परिवहन विभाग के हमाम से कोई बचा नहीं है. यह सबको वर्षों से पता है, कि परिवहन विभाग में दो सिस्टम काम करते हैं. एक सिस्टम सरकार के सेटअप का होता है और दूसरा सिस्टम दलाल और प्राइवेट सेटअप का होता है. आरटीओ दफ्तर में तो इसकी बाकायदा गुमठियां होती हैं. नाकों और बैरियर पर कटर होते हैं.
परिवहन का सिस्टम धीरे-धीरे ऐसा बन गया, कि सरकारी सेटअप को निश्चित हिस्सा उसको मिल जाता है और प्राइवेट सेटअप सारी व्यवस्था सर्वोच्च अधिकार संपन्न स्तर से मिलकर संचालित करता है.
प्राइवेट सेटअप के पास पूरी सरकारी ताकत होती है. भले ही उनके पास साइनिंग के पावर नहीं हों, लेकिन जिम्मेदार कोई भी अथॉरिटी बिना उस सेटअप की सहमति के कोई हस्ताक्षर भी नहीं करता.
परिवहन आरक्षक सौरभ जिनके निवास पर छापा पड़ा, उनके नाम का मतलब सुगंध या महक होता है. यह मतलब पूरे घटनाक्रम में कितना सही दिख रहा है, यह परिवहन विभाग के करप्शन की ही सुगंध या महक है जो छापों में मिली संपत्तियों से आ रही है.
सुगंध की कोई सीमा नहीं होती. इसे तो संगति से महसूस किया जाता है. परिवहन की सुगंध और संगति जानने के लिए कोई जांच की जरूरत नहीं है, अगर इतना ही देख लिया जाए कि सौरभ की सुगंध का पालन-पोषण और संरक्षण विभाग के कौन-कौन से बागवान कर रहे थे.
बागवान बदलते रहे, लेकिन सौरभ हर दौर में अपनी सुगंध बिखेरता रहा. सात साल की उसने नौकरी की, फिर नौकरी छोड़ दी और दलाल के रूप में पूरे विभाग पर वैसे ही नियंत्रण बनाए रखा, जैसे मंत्रियों और बड़े अफसरों का होता है.
छापों के बाद मीडिया में यह तो बताया जा रहा है, कि परिवहन नाकों पर पोस्टिंग के लिए वह दो-दो करोड़ रुपए लेता था, लेकिन अगर मीडिया को यह पता है, कि वह दो करोड़ रुपए लेता था तो क्या उसके ही हस्ताक्षर से ट्रांसफर ऑर्डर जारी होते थे. किसी मीडिया ने यह बताने की दोहमत नहीं उठाई, कि सौरभ की सुगंध के फैलाव के सालों में विभाग के मंत्री कौन-कौन रहे. ट्रांसपोर्ट कमिश्नर के पद पर कौन पदस्थ रहे.
परिवहन सचिव के रूप में किसने काम किया. कम से कम नाम तो दिया ही जा सकता था. ताकि पब्लिक को पहली नजर में दिख जाता, कि किन बागवानों के नियंत्रण में सौरभ की सुगंध बिखरी जो संपत्तियों और सोने के रूप में दिखाई पड़ी.
ऐसा नहीं है, कि किसी को मालूम नहीं है, लेकिन सिस्टम तो स्वयं करने वाला है, जो खबर वाले सिस्टम को चलाते हैं, वह भी कोई इससे अलग नहीं है. कुछ दिनों पहले ही परिवहन की एक लिस्ट सोशल मीडिया पर बहुत चर्चा में थी. जिसमें खबर पालिका के नामों को मिलने वाले धन का ब्यौरा दिया गया था. इसकी सत्यता पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन विवाद बहुत हुए थे.
सोने का मालिक भले ही कोई हो, लेकिन यह सोना सिस्टम का ईमान बता रहा है. मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने नाकों पर वसूली बंद कराई है, उनका कहना है, कि करप्शन के मामलों में जीरो टॉलरेंस है. पब्लिक के सामने अपने नेता की बात पर भरोसा करने के अलावा क्या रास्ता है. शिवराज सिंह चौहान भी जीरो टॉलरेंस का ही ढ़िंढ़ौरा पीट रहे थे. कमलनाथ ने भी ऐसे ही शुद्ध के लिए युद्ध के नाम पर जीरो टॉलरेंस का स्वांग रचा था.
बिना करप्शन के जीरो टॉलरेंस की बात पैदा ही कैसे हो सकती है. करप्शन के भोग की पीड़ा ही जीरो टॉलरेंस को जन्म दे सकती है. सिस्टम में करप्शन की लक्ष्मण रेखा चारों तरफ खिंची हुई दिखाई पड़ती है. लक्ष्मण रेखा में करप्शन तो ना लोग देखते हैं, ना हीं मानते हैं. उसको तो एक तरीके से स्वीकार ही कर लिया गया है. जिन विभागों ने करप्शन की लक्ष्मण रेखा पार की, वहीं करप्शन के गोल्ड माइन निकलने लगते हैं
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने परिवहन के इस घोटाले की जांच की मांग करते हुए यह तो जता ही दिया है, कि इस घोटाले की पहली और असली कोख कमलनाथ सरकार थी.
पूरा सरकारी सिस्टम प्राइवेट सेटअप पर फोकस कर रहा है. किसी भी दफ्तर में कोई भी काम हो, तो कोई ना कोई प्राइवेट सेक्टर का व्यक्ति सौदेबाजी करते हुए मिल जाएगा. सरकारों में ओएसडी की भर्ती तो इसी प्राइवेट सेटअप का सरकारी रूप है. गवर्नमेंट में उच्च स्तर पर ओएसडी की नियुक्तियों की भरमार देखी जा सकती है.
कमलनाथ की सरकार में तो ओएसडी ही सारा सिस्टम चला रहे थे. दूसरी सरकारों में भी ओएसडी पावरफुल पोजीशन में दिखाई पड़ते हैं. सरकारी तंत्र में करप्शन की जांच एजेंसियों से सुरक्षा कवच के लिए प्राइवेट तंत्र को एक प्रकार से ठेके पर काम दे दिया गया है. परिवहन विभाग तो इसका सबसे बड़ा केंद्र बना हुआ है.
सरकारी सिस्टम में तो पद ही जीवन होता है. कुर्सी ही लक्ष्य होती है. सिस्टम तो सोना ही सोना उगलता है. सोने की हिस्सेदारी का संतुलन ही सिस्टम की सफलता माना जाता है. सिस्टम से करप्शन को हटाना तो वैसे ही असंभव है, जैसे वायु, जल और ध्वनि से प्रदूषण को हटाना. कोई पहली बार सिस्टम सोना नहीं उगल रहा है. पहले भी लोग सिस्टम के करप्शन का सोना भोगते रहे हैं.
करप्शन का सोना इसी मिट्टी में छोड़कर कई तो इस दुनिया से चले गए हैं और इससे कोई भी कभी भी बच भी नहीं पाएगा. सोने की पिपासा मन का कोना, झांकने से ही कम होगी. पूरा संसार ही परिवहन का केंद्र है. आवागमन ही सच्चाई है. आवागमन में परिवहन का ईमान भी महत्वपूर्ण होता है. सिस्टम में ईमान कब डिग जाता है, पता ही नहीं चलता.