एमपी में सहकारी आंदोलन की जड़े सूख रही हैं. सहकारी बैंक डूब रहे हैं. डूबाने वाले बुढ़ापे में जन्मदिन मना रहे हैं. जनता कोऑपरेटिव बैंक से अपना धन नहीं निकाल पा रही है.
बैंकों में घोटाले और गबन आज रोज का विषय बन गए हैं. भोपाल में अपेक्स बैंक की बिल्डिंग तो खड़ी है लेकिन इस दफ्तर के भीतर मानो सहकारिता जर्जर हो गई है. कभी सहकारी नेता और सहकारिता, कांग्रेस की जान हुआ करती थी. जिस कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सहकारिता को नया मुकाम दिया, विडम्बना ही कहिए कि उसी पार्टी ने सहकारिता को विश्राम दे दिया. सियासत हर बात में जनता का भला ज़रूर दिखाती है. भला तो होता नहीं है,कटता अंततः जनता का ही गला है.
मध्य प्रदेश में डूबते सहकारी बैंक कमलनाथ सरकार की कर्ज माफी का सिला है. धनपति नेता कभी डूबता नहीं है. पद, प्रतिष्ठा चली जाए फिर भी धन, संपत्ति का वैभव, सियासत जारी रखता है.
कर्ज माफी के नाम पर कांग्रेस ने कमलनाथ की सरकार बनाने में सफलता हासिल की. कर्ज माफी का आदेश भी निकाला गया लेकिन उसका सारा भार सहकारी बैंकों पर चला गया. सरकार की ओर से बैंकों को भरपाई नहीं की गई. जीरो प्रतिशत ब्याज की स्कीम से पहले ही बैंक कराह रहे थे, कर्ज माफी के बोझ ने तो उनके प्राण ही ले लिए. जो कर्ज माफी जनता की भलाई के लिए की गई वह बैंकों के लिए बहुत बड़ी बुराई साबित हो गई.
कमलनाथ की सरकार तो चली गई लेकिन सहकारी बैंकों को डूबाकर सहकारी आंदोलन को अर्थी पर ज़रूर लिटा गई. जो उद्योगपति है, उसको सहकारिता से कोई लेना देना नहीं है. उद्योगपति और सहकारिता एक दूसरे के वैसे ही विरोधी होते हैं. अगर सहकारिता से समृद्धि आएगी तो उद्योगपति का लाभ वैसे ही घट जाएगा. सहकारिता को मिटाने में उद्योगपति मुख्यमंत्री की ऐसी भी सोच हो तो आश्चर्य नहीं होगा.
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की नकारात्मकता के बाद भी भारत का सहकारिता आंदोलन कई राज्यों में तेजी से आगे बढ़ा है. केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह ने अपने आलेख में कहा है कि सहकारिता के जरिए बिना पूंजी या कम पूंजी वाले लोगों को समृद्ध बनाने के लक्ष्य को पूरा करने में भारत निरंतर आगे बढ़ रहा है. उनके अनुसार भारत का सहकारिता आंदोलन एक ऐतिहासिक काल का साक्षी बनने जा रहा है. राजधानी दिल्ली में पच्चीस - छब्बीस नवंबर को अंर्तराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन आईसीए महासभा और वैश्विक सम्मेलन होने जा रहा है. आईसीए के एक सौ तीस वर्ष के इतिहास में यह पहला मौका है, जब भारत इसका मेज़बान बना है.
इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता वर्ष 2025 का भी शुभारंभ हो रहा है. आलेख में केंद्रीय मंत्री का कहना है कि इस वैश्विक सम्मेलन की मेजबानी, वैश्विक सहकारी आंदोलन में भारत के नेतृत्व की स्वीकार्यता का प्रतीक है.
केन्द्रीय मंत्री अमित शाह ने अहमदाबाद जिला कोऑपरेटिव बैंक की सफलता का उदाहरण दिया है. इस बैंक ने सौ करोड़ रुपए का लाभ अर्जित किया है. बैंक न केवल एपीए को शून्य करने में सफल रहा है बल्कि उसके पास पैंसठ सौ करोड़ से अधिक जमा राशि भी है.
अमूल भी सहकारी आंदोलन का उल्लेखनीय उदाहरण है. वर्तमान में इसमें पैंतीस लाख परिवार सम्मान और रोजगार प्राप्त कर रहे हैं. अमूल का आज वार्षिक कारोबार अस्सी हज़ार करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. इसमें सबसे दिलचस्प यह है कि इसमें शामिल महिलाओं में से किसी ने भी सौ रुपये से अधिक का प्रारंभिक निवेश नहीं किया था.
ऐसा लगता है कि, पीएम मोदी की लीडरशिप में सहकारिता आंदोलन को आगे बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं. पहली बार भारत सरकार ने सहकारिता का स्वायत्य मंत्रालय स्थापित किया है. इस नए मंत्रालय का पहला प्रभार बीजेपी के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह को दिया गया है.
एक तरफ भारत का सहकारी आंदोलन वैश्विक स्वरूप ले रहा है तो दूसरी तरफ मध्य प्रदेश का सहकारी आंदोलन अपना स्वरूप खोता जा रहा है. एमपी में इस आंदोलन को सबसे ज्यादा नुकसान सरकार की योजनाओं के कारण पहुंचा है. सहकारी बैंकों के मैनेजमेंट और आर्थिक गड़बड़ियों के कारण तो नुकसान हुआ ही है लेकिन सबसे बड़ा नुकसान कर्ज माफी और शून्य प्रतिशत ऋण की योजना के कारण हुआ है. इससे बैंक को जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई राज्य की सरकारों को करना था लेकिन सरकारों की ओर से ऐसा नहीं किया गया. इसलिए बैंकों के हालात यहां पहुंच गए हैं कि कई बैंक तो बंद होने के क़गार पर हैं. इन बैंकों में जिनकी जमा राशि है उन्हें अपनी राशि निकालने में भी कठिनाई हो रही है. सहकारी बैंक जिन उद्देश्यों से बनाए गए थे वह अब रास्ते से भटक गया है.
प्राथमिक सहकारी समितियां भी सियासत की शिकार दिखाई पड़ती है. सहकारिता के आधार पर कई शुगर मिल प्रदेश में स्थापित की गयी थी, जो अधिकांश बंद है. गन्ना उत्पादकों के बकाया भुगतान भी नहीं हो पाए हैं. हितग्राहियों विशेषकर महिलाओं के बैंक खातों में नगद राशि डालकर चुनाव जीतने की शैली के कारण सरकारों के पास आर्थिक संकट के हालात हैं. शायद इसीलिए सहकारी बैंकों को कर्ज माफी और शून्य प्रतिशत ब्याज की योजनाओं का पैसा नहीं मिल पा रहा है.
एक दौर था, जब मध्य प्रदेश में सहकारी बैंक की सहकारिता राजनीति, राज्य की राजनीति को प्रभावित करती थी. कांग्रेस में कई बड़े नेता थे, जिनका जन्म सहकारिता आंदोलन से ही हुआ था. दिग्विजय सिंह और सहकारी नेता सुभाष यादव के बीच जब मंत्री नहीं बनाए जाने पर विवाद निर्मित हुआ तब, यादव ने सहकारिता आंदोलन का सहारा लेकर ही मंत्रिमंडल में अपना स्थान हासिल करने में सफलता प्राप्त की थी. सहकारिता क्षेत्र से आने वाले नेता अब अपना वजूद खो रहे हैं. इसका कारण शायद यह है कि सहकारिता क्षेत्र ही अपना महत्व हो रहा है.
सहकारिता क्षेत्र में गवर्नेंस क्वालिटी इंडेक्स (GQI) सबसे खराब कहीं जा सकती है. आजकल एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) की बहुत चर्चा है. दिल्ली में तो सांसों का संकट पैदा हो गया है. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में भी AQI का लेवल बढ़ता जा रहा है. गवर्नेंस क्वालिटी इंडेक्स (GQI) का लेवल लगातार कम होता दिखाई पड़ रहा है. गवर्नेंस क्वालिटी इंडेक्स केवल शासित को ही प्रभावित नहीं कर रहा है, कई बार तो शासक भी इसका शिकार हो रहे हैं. फिर भी यह इंडेक्स नीचे ही गिरता जा रहा है.
केवल पराली जलने से ही सांसों पर संकट नहीं बढ़ रहा है बल्कि गवर्नेंस की प्रणाली भी जल रही है. यह ऐसा संकट है जो पदधारी और पदविहीन दोनों को बराबर से नुकसान पहुंचाता है. सहकारिता भारत का दर्शन है, लोकतंत्र का चिंतन है, सबको जोड़कर समृद्धि का मंत्र है, बहुमत नहीं सर्वमत की धारणा सहकारिता का मूल है, सहकारिता में सरकारी हस्तक्षेप सबसे बड़ी भूल है. सहकारी बैंकों को नहीं बचाया जा सका तो मध्य प्रदेश में सहकारिता भी नहीं बचेगी! सहकारिता नहीं बचेगी तो गरीब और कम पूंजी वाले लोगों की समृद्धि के संस्कार भी नहीं बचेंगे! कर्ज माफी जैसे अनैतिक कदम से सरकारें बनाने और बचाने से ज्यादा जरूरी, समृद्धि के सहकारी संस्कार बचाना सही होगा.