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भारत  में समान नागरिक संहिता   

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 31 Oct

सार

पर्सनल लॉ तो सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि समुदायों के भी हैं, आदिवासी कबीलों से तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि मुस्लिम देश की दूसरी बहुसंख्यक आबादी हैं..!!

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विस्तार

सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर इसका आग्रह किया है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू की जाए। । संविधान में इसका प्रावधान है। संसद और भारत सरकार यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि देश संविधान से चलेगा अथवा शरिया कानून भी संवैधानिक माना जाता रहेगा? मुसलमानों के पर्सनल लॉ पर प्रहार करने की नीयत और मानसिकता किसी की नहीं है। पर्सनल लॉ तो सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि समुदायों के भी हैं। आदिवासी कबीलों से तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि मुस्लिम देश की दूसरी बहुसंख्यक आबादी हैं। जो मुद्दे सामुदायिक और राष्ट्रीय किस्म के हैं, धर्म, मजहब, जाति से ऊपर हैं, कमोबेश उनके संदर्भ में अब ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ (बीएनएसएस) की धाराएं लागू होनी चाहिए। वे हिंदू-मुस्लिम समेत सभी समुदायों पर, समान रूप से, प्रभावी होनी चाहिए। यही समान नागरिक संहिता का निष्कर्ष है।

मुद्दे की बात यह है कि शरिया और कुरान की आड़ में छिपने वाला मुसलमान सबसे पहले ‘भारतीय’ है और यही उसकी पहचान है। यदि देश भर में समान नागरिक संहिता लागू की जाएगी, तो संभव है कि मुस्लिम इतना भडक़ जाएं कि हिंसा का माहौल बन जाए! घरेलू हिंसा से उपजे हालात सांप्रदायिक दंगों में तबदील हो जाएं! तेलंगाना में सरेआम संवैधानिक प्रावधानों और बाल विवाह कानून समेत कई कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। किशोर बच्चियों का दैहिक शोषण किया जा रहा है। संसद 2019 में तीन तलाक के खिलाफ विधेयक पारित कर कानून बना चुकी है। फिर भी मुस्लिम मर्द 15-16वीं सदी के समाज में जीना चाहता है! 

भारत एक संवैधानिक गणतंत्र है अथवा केला (बनाना)गणतंत्र…! क्या ऐसा संवैधानिक उल्लंघन जारी रहेगा? मुद्दा सर्वोच्च अदालत के हालिया फैसले से फिर उभरा है। दो न्यायाधीशों की पीठ का आदेश है कि मुस्लिम मर्द (पति) तलाकशुदा पत्नी को न्यायिक गुजारा-भत्ता देगा। अदालत के इस फैसले के तुरंत बाद मुस्लिम धर्मगुरु, मौलाना, नेता, विशेषज्ञ आदि चीखने लगे, बौखला उठे और तिलमिलाने लगे कि यह फैसला शरिया के खिलाफ है।

शरिया और कुरान में मुस्लिम तलाकशुदा औरत को गुजारा-भत्ता का कोई जिक्र नहीं है। मामले को 1986 के ‘शाहबानो प्रकरण’ की ओर मोड़ा जाने लगा है। उस समय संसद ने सर्वोच्च अदालत का फैसला पलट दिया था और तत्कालीन सरकार ने मुस्लिम मौलानाओं के दबाव में, वोट की खातिर, घुटने टेकते हुए ऐसा कानून बनाया, जो आत्मा से मुस्लिम औरत के खिलाफ था। शाहबानो भी 40 साल के वैवाहिक जीवन और 5 बच्चों को जन्म देने के बाद सडक़ पर आई थी, लिहाजा उसे अदालत की शरण में जाना पड़ा। 

सवाल यह है कि क्या मुसलमानों में विवाह की परिणति यही होती है कि जब मन आया, तब औरत को छोड़ दिया और गुजारा-भत्ता भी नहीं दिया। कहा जाता है कि अब ‘इद्दत’ के तीन महीनों के दौरान ही तलाकशुदा औरत को गुजारा-भत्ता दिया जाता है और बच्चों की परवरिश के लिए मात्र दो साल की उम्र तक आर्थिक मदद दी जाती है। उसके बाद की जिंदगी की जिम्मेदारी मुस्लिम औरत पर ही है। सवाल है कि क्या कुरान और शरिया में ऐसी मानवीय क्रूरता के जिक्र हैं? क्या तीन माह के बाद औरत का और 2 साल की उम्र के बाद बच्चे का अस्तित्व ही खत्म हो जाता है? आखिर वे औलादें कहां से और कैसे आई हैं? ये तमाम विवादास्पद सवाल हो सकते हैं। सोच और उसकी व्याख्याएं भी भिन्न हो सकती हैं। शरिया और कुरान को सांगोपांग शायद ही किसी ने पढ़ा हो, लेकिन क्या सर्वोच्च अदालत के फैसले और बीएनएसएस की धारा 144 की अवमानना की जा सकती है? क्या ऐसा करना अपराध नहीं होगा?

संविधान अल्पसंख्यकों के अधिकारों और आरक्षण के लिए तो मुस्लिम मौलानाओं को खूब याद आता है, लेकिन औरत के भरण-पोषण सरीखा मुद्दा हो, तो शरिया की आड़ लेने लगते हैं। दरअसल यह मामला सामाजिक समानता और लैंगिक समानता का ज्यादा है। संविधान ने दोनों ही स्थितियों के लिए समता का अधिकार दिया है। जरा वे भी कुछ बयानबाजी कर दें, जो चुनाव के दौरान संविधान की प्रति को लहराते हुए झूठे नेरेटिव का प्रचार कर रहे थे और जिन्हें मुसलमानों के लबालब वोट मिले। उसमें मुस्लिम औरतों के भी वोट होंगे!