इस चुनाव में 2.18 फीसदी वोट ज्यादा पड़े हैं तो राजनीतिक दलों से लेकर राजनीतिक विश्लेषक इसको कांग्रेस और भाजपा की हार जीत से जोड़ने की जंग में कूद पड़े हैं..!!
मध्यप्रदेश में इस साल पांच वर्ष के लिए नई विधानसभा के चुनावों में मतदान या मत प्रतिशत को लेकर पारंपरिक बहस का जो सिलसिला चल रहा है, उसकी कोई जरूरत नहीं है। उसके लिए किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की जरूरत नहीं है कि वोटिंग के इस ट्रेंड से किस पार्टी की सरकार बनने जा रही है? कौन सत्ता में आ रहा है या कौन सत्ता से रूखसत हो रहा है।
मध्यप्रदेश में इस बार यानि 2023 के चुनाव के लिए 77.15 फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। किसी जिले या विधानसभा क्षेत्र में इससे ज्यादा भी है तो कहीं इससे कम भी है। लेकिन इसके पहले यानि ढाई दशक से ज्यादा के भीतर हुए चुनावों की बात करें तो मतदान में लगातार इजाफा हुआ है। 1998 में जब बैलेट के जरिए मतदाधिकार का प्रयोग हुआ तो प्रदेश में कुल 60.22 फीसदी वोट पड़े थे। लेकिन 2003 में जब सूबे में पहली बार ईवीएम मशीन का प्रयोग हुआ तो सत्ता विरोधी लहर के बीच 67.25 फीसदी मतदान हुआ। इसके बाद से मतप्रतिशत लगातार बढ़ रहा है लेकिन वह किसी एक दल के लिए लाभकारी नहीं रहा है।
उमा भारती की अगुआई में तब भाजपा ने 173 सीटों के साथ बंपर वोट हासिल किए। 2008 में मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में भाजपा को 143 आई लेकिन मत प्रतिशत 69.28 फीसदी तक जा पहुंचा। 2013 में प्रदेश में 72.07 फीसदी वोट पड़े और शिवराज की भाजपा सरकार ने 165 ने सीटों के साथ शानदार सफलता हासिल की। लेकिन 2018 में फिर वोट प्रतिशत (72.07 से बढ?र 74.97 ) बढ़ा लेकिन भाजपा कांग्रेस के मुकाबले 45 हजार ज्यादा वोट पाने के बावजूद कांग्रेस के मुकाबले पांच सीटों (कांग्रेस 114 तथा भाजपा 109 ) से पिछड़ गई।
अब इस चुनाव में 2.18 फीसदी वोट ज्यादा पड़े हैं तो राजनीतिक दलों से लेकर राजनीतिक विश्लेषक इसको कांग्रेस और भाजपा की हार जीत से जोड़ने की जंग में कूद पड़े हैं। सही मायनों में देखें तो मतदान बढने के कई कारण हैं। सबसे पहला तो ईवीएम मशीन से वोटिंग में वक्त कम लगता है। इसी के चलते 2003 से वोट प्रतिशत लगातर बढ़े। फिर निर्वाचन आयोग ने लोगों में मतदान के प्रति चेतना बढ़ाई है। लोकतंत्र के प्रति लोगों की बढ़ती आस्था भी इसे कह सकते हैं। भले ही विश्व का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र के परिपक्व होने की काफी गुंजाइश और दरकार है। इन कारणों से हटकर राजनीतिक वजहों की ओर देखें तो मतदान की बढ़ोत्तरी में बड़ा योगदान हिंदु और मुस्लिम मतदाताओं में बढ़ता और ठोस होता वोटों का धुव्रीकरण है। दूसरी वजह राजनीतिक दलों में मची मुफ्तखोरी की घोषणाओं और बढ़-चढ?र किए जाने वाले चुनावी वादों की होड़ है। इसे रोकने सुप्रीम अदालत से लेकर चुनाव आयोग में यह पूछने की मंशा कतई नहीं दिखती कि देश के करदाता की जेबों से वसूले जाने वाली रकम में से चुनावी दल ये वादे कैसे पूरे करेंगे? इसकी भरपाई का रोड मैप क्या है?
बहरहाल राजनीतिक दल 3 दिसंबर तक यह दावे जरूर कर सकते हैं कि भाजपा की लाड़ली महिला योजना ने महिला मतदाताओं को मोहा है या फिर सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली, पुरानी पेंशन लागू करने की योजना या बेरोजगारी का मुद्दा कांग्रेस के पक्ष में जाएगा। लेकिन नतीजे तय करेंगे कि मतदान बढ़ने में उनकी चुनावी घोषणाओं या 22 लाख नए वोटरों का हाथ है या पहली बार 178 सीटों पर उतरी बसपा और उसके गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी के साथ गठजोड़ ने कोई गुल खिलाया है? यह भी पता चलेगा कि 66 सीटों पर उतरी आम आदमी पार्टी ने मत प्रतिशत पर कितना असर डाला है? मत भूलिए कि इनमें 11 बागी प्रत्याशी भाजपा के और 5 बागी कांग्रेस के हैं। फिर कांग्रेस के 39 और भाजपा के 35 बागी भी मतदान बढ़ाने तथा दलों के खेल बनाने और बिगाडने के लिए मैदान में थे। दलों के भितरघात का आकलन तो आंकड़ों में करना मुमकिन ही नहीं है।