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कमजोर मीडिया, कुपोषित लोकतंत्र

सार

राजनीतिक दलों विशेषकर विपक्षी दलों के राजनेताओं से पत्रकारों द्वारा अप्रिय, असुविधाजनक सवाल पूछने पर उत्तर की बजाय मीडिया को ही दूसरे दल से जुड़ा बताने का राजनीतिक फैशन बन गया है. कोई भी पत्रकार वार्ता हो ऐसे दृश्य अवश्य देखने को मिलते हैं जब पत्रकारों के प्रश्नों से तिलमिलाए राजनेता पत्रकार को ही दूसरे दल का दूत बता देते हैं..!

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विस्तार

राजनीतिक ध्रुवीकरण के माहौल में मीडिया की निष्पक्षता पर उठाए जा रहे सवाल लोकतंत्र को कमजोर करने वाले साबित हो रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर गोदी मीडिया की बहस जनमत को सुविधाजनक दृष्टिकोण से देखने और साबित करने के लिए लंबे समय से उपयोग की जा रही है. देश के दिल मध्यप्रदेश में भी मीडिया पर राजनीतिक छींटाकशी रोज़ का विषय बन गई है.

प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ ने पिछले दिनों अनूपपुर में एक सवाल पर चिढ़ते हुए पत्रकारों को कहा कि बीजेपी की वकालत करने आए हैं तो कर लीजिए? मीडिया क्या है हम सब समझते हैं, क्या हमें समझ नहीं आ रहा है? कमलनाथ ने इसके पहले भी अनेक बार पत्रकारों को सत्तापक्ष से जोड़ते हुए गोदी मीडिया का एहसास कराने कोई कमी नहीं छोड़ी है.

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प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में जब भी पत्रकार वार्ता होती है तब ऐसे वाकये जरूर सामने आते हैं जब कोई जर्नलिस्ट ऐसे सवाल पूछता है जो नेता को पार्टी के खिलाफ लगता है तब खुलेआम यह कहा जाता है कि हमें मालूम है किसके इशारे पर इस तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं. पत्रकारों की इंटीग्रिटी को संदिग्ध करने और उन्हें सत्तापक्ष से जोड़ने की राजनीतिक कोशिश विपक्ष के उच्च स्तर के नेताओं के साथ ही लगभग हर स्तर के नेताओं में विकसित हो गई है. ऐसे व्यवहार पर मीडिया का मौन भी चौंकाता है.

मध्यप्रदेश का मीडिया सामान्यतः निष्पक्ष और कर्तव्यनिष्ठ माना जाता है. 2003 के पहले जब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी तब मीडिया कांग्रेस की दृष्टि में निष्पक्ष हुआ करता था, आज भी जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें काम कर रही हैं वहां मीडिया पर सवाल नहीं खड़े किए जाते. कमलनाथ के बारे में आम धारणा है कि अपने संसदीय क्षेत्र छिंदवाड़ा में मीडिया के साथ उनका सामंजस्य और सौहार्द का रिश्ता बनाए रखने के लिए सुनिश्चित व्यवस्था काम करती है. जो नेता अपने संसदीय क्षेत्र में मीडिया रिलेशन मैनेजमेंट के लिए बाकायदा संस्थागत व्यवस्था वर्षों से संचालित करता हो उसके द्वारा मीडिया को पक्ष और विपक्ष के रूप में विभाजित करने का प्रयास सामान्य नहीं कहा जा सकता.

जनमत को लोकतंत्र की मुद्रा कहा जाता है. मीडिया को जनमत का प्रतिबिंब माना जाता है. भारतीय लोकतंत्र में जनमत के निर्माण में मीडिया को प्राथमिक आधार के रूप में स्वीकार किया जाता है. लोकतांत्रिक सरकारों और राजनेताओं के मीडिया के साथ स्नेह और तनावपूर्ण रिश्ते हमेशा महसूस किए जाते हैं. मीडिया की भूमिका जनभावनाओं के प्रकटीकरण और सिस्टम की सच्चाई को जनमत के बीच पहुंचाने की होती है. मेनलाइन मीडिया के साथ ही सोशल मीडिया का प्रभाव, राजनीतिक प्रक्रिया और संवाद में लगातार बढ़ता जा रहा है. मीडिया की भूमिका ने आम नागरिकों की राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने की क्षमता को बढ़ाया है.
 
राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया के कारण मीडिया को कई बार राजनीतिक दलों की दुर्भावना का शिकार होना पड़ता है. ध्रुवीकरण की सबसे बड़ी बुराई होती है कि इसमें लोग उन्हीं दृष्टिकोण को देखना और सुनना पसंद करते हैं जिससे वह सहमत होते हैं. ध्रुवीकरण एक ऐसे ही इको चेंबर का निर्माण करता है जिसमें असहमति को स्वीकार करने की गुंजाइश नहीं होती. विपक्षी राजनेताओं द्वारा लगातार मीडिया पर हो रही छींटाकशी इसी बात को साबित करती है कि सत्ता में हिस्सेदारी से पिछड़ने का दोष मीडिया पर डालने की उनकी मानसिकता बनी है. इसीलिए मीडिया को सत्तापक्ष से जोड़ने की राजनीतिक भूल की जाती है.

देश में मीडिया की स्वतंत्रता के दुरुपयोग का आरोप लगाकर मीडिया को कुचलने का लंबा इतिहास है. इंदिरा गांधी के शासनकाल में आपातकाल के दौरान देश के मीडिया ने सामूहिक रूप से लड़ाई लड़ी थी. युवा पत्रकारों को याद होना चाहिए कि उस समय एक ऐसा भी दिन था जब देश के सभी अखबारों में अपने संपादकीय पृष्ठ को खाली प्रकाशित किया था. उस दौर में कोई भी खबरें छापने के पहले सरकारी तंत्र से उनका अनुमोदन प्राप्त करना होता था.

पाषाण युग और धातु युग से होता हुआ मीडिया डिजिटल युग में पहुंच चुका है. विपक्ष और सत्तापक्ष मीडिया से प्रोपेगेंडा की अपेक्षा करता है. मीडिया के लिए प्रोपेगेंडा का युग समाप्त हो चुका है. मेनलाइन मीडिया अब सोशल मीडिया के प्रभाव और दबाव से अलग नहीं हो सकती है. मीडिया समूहों का मैनेजमेंट किसी सीमा तक माना जा सकता है लेकिन अब तो डिजिटल मीडिया विश्वव्यापी मीडिया का स्वरूप ले चुका है. राजनीतिक के साथ ही सिस्टम के सभी स्टेकहोल्डर सोशल मीडिया पर सच का सामना करने से बच नहीं सकते हैं. ऐसे दौर में भी मीडिया को सत्ता और विपक्ष के बीच बांटना राजनीतिक नासमझी ही कही जाएगी.

एमपी कांग्रेस को मीडिया को कांग्रेस और भाजपा की सोच पर विभाजित करने की मानसिकता से दूर होना चाहिए. पिछले चुनाव में भी इसी तरीके का दृष्टिकोण कांग्रेस द्वारा बनाया गया था. राजनीतिक दल में मीडिया प्रभारी की पोजीशन लगातार प्रभावी हो रही है. कई बार दलों के अंदर ऐसे लोगों को मीडिया की शोभा बना दिया जाता है जिन्हें मीडिया के M शब्द का भी ज्ञान नहीं होता. 

पिछले चुनाव के समय भी कांग्रेस द्वारा ऐसी गलती की गई थी. कांग्रेस की सरकार बनने के बाद पत्रकारों को भाजपा और कांग्रेस के समर्थक के रूप में विभाजित करने की महाभूल की जा चुकी है. इसी तरह की गलती फिर दोहराई जा रही है. मीडिया हलकों में इस बात की चर्चा है कि कांग्रेस में फिर से पत्रकारों को दल के समर्थक और विरोधी के रूप में चिन्हित करने का प्रयास किया जा रहा है.

मीडिया की निष्पक्षता और पत्रकारों की इंटीग्रिटी को संदिग्ध बनाने के प्रयासों से कोई राजनीतिक लाभ मिलने की संभावना नहीं होती है. यह उसी तरीके से किया जा रहा है जैसे चुनाव में हार के बाद ईवीएम पर सवाल उठाए जाते हैं, उसकी निष्पक्षता को कटघरे में खड़ा किया जाता है और जब चुनाव में जीत प्राप्त होती है तब वही ईवीएम सही हो जाती हैं. ऐसे ही पत्रकारों को भी सत्तापक्ष से जोड़कर विपक्ष अपनी राजनीतिक हताशा और नकारात्मकता को ही उजागर करता है. मीडिया के प्रति सकारात्मकता राजनीति और लोकतंत्र के भविष्य के लिए बुनियादी जरूरत है.

मीडिया को भी सबके लिए और सच के लिए समान अवसर के लोकतंत्र  की भावना का सम्मान करना चाहिए. पत्रकारिता में राजनीतिक प्रतिबद्धता परिलक्षित होना वैचारिक गुलामी ही कही जाएगी. स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया जहाँ लोकतंत्र को मजबूत करता है वहीं कमजोर मीडिया लोकतंत्र को कुपोषित करता है.