भारत की मेजबानी में विश्व के ताकतवर नेता जी-20 समिट में मानवता के कल्याण पर मंथन और निष्कर्ष का इतिहास रच रहे हैं. गर्व के इस मौके पर राहुल गांधी विदेश की धरती पर भारत के लोकतंत्र पर सवाल उठा रहे हैं. महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे के विजन की लड़ाई की बात करके भारत का विभाजित चेहरा स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. हिंसा और भेदभाव बढ़ने की बात कर रहे हैं. अल्पसंख्यकों पर हमले को अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के सामने मुद्दा बता रहे हैं..!
राजनीतिक विचारधारा के रूप में सत्ताधारी पार्टी का विरोध राहुल गांधी की जिम्मेदारी हो सकती है लेकिन विदेश जाकर भारत के जनादेश को सवालों के घेरे में खड़ा करना उनकी समझदारी तो नहीं कही जा सकती. राहुल गांधी ने स्वयं नफरत का दर्द भोगा है. अपनी दादी और पिता को नफरत की आग में कुर्बान होते हुए देखा है. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की शहादत क्या लोकतंत्र पर हमला नहीं थी? इसे क्या नफरत नहीं कहा जाएगा? यह शहादत नफरत की बदौलत थी या मोहब्बत की बदौलत?
राजनीति के लिए बीजेपी और नरेंद्र मोदी से कांग्रेस और उसके नेताओं की नफरत को स्वीकार भी कर लिया जाए तो इसके खातिर भारत देश को ही नफरती साबित करना राजनीतिक बुद्धिमानी कैसे होगी? इस देश में सिक्ख भी अल्पसंख्यक हैं. इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद सिखों के नरसंहार को अगर मोहब्बत माना जाएगा तो देश को ऐसी मोहब्बत नहीं चाहिए.
नफरत की गोली और बम जो इन दोनों महान नेताओं की शहादत में चले उसका वातावरण बनाने के लिए कौन जिम्मेदार है? इसके लिए उस समय की सरकार को जिम्मेदार नहीं कहा जाएगा? नफरत और मोहब्बत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. नफरत हमेशा खराब होती है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. नफरत मोहब्बत की सीढ़ी है. बस सोचना यह है कि सीढ़ी पर चल कर आगे निकल जाना है जिसने सीढी पर बैठकर नफरत-नफरत चिल्लाने की गलती की वह मोहब्बत बढ़ाने के बदले नफरत को बढ़ाने का काम ही करने लगता है.
‘भारत जोड़ो यात्रा’ को भी एक साल पूरा हो चुका है. उसकी वर्षगांठ मनाई जा रही है. नफरत मिटाने तक भारत जोड़ने की यात्रा जारी रखने का संकल्प व्यक्त किया जा रहा है. नफरत संसार में तभी दिखती और पाई जाती है जब इंसान के अंतर्मन में होती है. जो खुद को झांक कर देखने की क्षमता रखता है उसी में नफरत को मोहब्बत में बदलने की क्षमता होती है. नफरत- नफरत चिल्लाओ, अल्पसंख्यकों को डराओ, बीजेपी को हराओ, देश को बचाओ, के विचार में ही नफरत समाई हुई है.
जनादेश को भी नफरत और मोहब्बत के नजरिए से देखना देश का नुकसान करना है. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में मोहब्बत जीती है. गुजरात, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में नफरत की जीत हुई है? यह सोच नफरती मस्तिष्क से ही निकल सकती है. विदेश में जाकर देश की विपरीत तस्वीर पेश करना क्या देश से नफरत नहीं कही जायेगी?
आम इंसान अच्छे जीवन के लिए बहुत सारी चीजों से नफरत करता है. झूठ से नफरत करता है. बुराई से नफरत करता है. करप्शन से नफरत करता है. यह नफरत परिणाम मूलक है. जो भी शाकाहारी है वह मांस से नफरत करता है. हमारे राजनेता किचन में मांस बनाते हुए अपने फोटो सार्वजनिक कर अगर किसी को खुश करना चाहते हैं तो यह मोहब्बत नहीं कहीं जाएगी. यह शाकाहारी लोगों के साथ नफरत का इजहार कहा जाएगा.
कई बार सृजन को भी विनाश के नजरिए से देखा जाता है. यह क्या केवल संयोग है कि राहुल गांधी जी-20 के समय ही विदेश में भारत के खिलाफ अपने विचार रख रहे हैं? या जी-20 की कूटनीति में भारत को कमजोर और किसी और को ताकतवर साबित करने का यह प्रयोग किया जा रहा है?
जी-20 भारत के लिए अवसर है. इसे एकजुट भारत की तस्वीर के रूप में दुनिया को दिखाना चाहिए. राहुल गांधी द्वारा यह सवाल उठाया जाना भी गैरवाजिब है कि मल्लिकार्जुन खडगे को कार्यक्रम में आमंत्रित नहीं किया गया. ऐसा देश के राजनेताओं को निमंत्रण के प्रोटोकाल के अनुरूप ही किया गया होगा. जब देश के गर्व का क्षण हो तो फिर क्षुद्र सियासत न मालूम कितने लोगों की भावनाएं आहत करती है.
भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कूटनीति में जितना आगे बढ़ता जा रहा है ऐसा लगता है कि आंतरिक राजनीति में आचरण का स्तर उतना ही नीचे गिरता जा रहा है. राहुल गांधी की स्ट्रेटजी तो विदेश जाकर भारत के मुद्दों को उठाने की लंबे समय से रही है. नफरत समाज में कम हो रही है लेकिन शायद नफरत-नफरत चिल्लाने वाली राजनीति समाज में कम होती नफरत को अपने लिए नुकसान का सौदा मानती है.