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जहां आरोप वहां अदालत सर्वोच्च

सार

आपराधिक मामलों में राजनीतिक प्रदर्शन कहां तक नैतिक है. संवैधानिक मामलों में हिंसक विरोध कितना लोकतांत्रिक है. लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसे प्रदर्शन कोर्ट वर्डिक्ट पर दबाव की सियासत नहीं कही जाएगी..!!

janmat

विस्तार

    कांग्रेस अभी तक वक़्फ़ संशोधन कानून के प्रदर्शनों का समर्थन कर वोट बैंक में व्यस्त थी. लेकिन अब तो उनके मसीहा ही आरोपों में घिर गए हैं. जांच एजेंसी ने अदालत में चार्जसीट दायर कर दी है. मनी लांड्रिंग की अदालती प्रक्रिया इतनी सख्त और जटिल है, कि किसी के लिए भी इससे बाहर निकलना बहुत कठिन होता है. सबसे बड़ा सवाल लीगल मामलों का समाधान लीगल ही होगा. कोर्ट ही पर अंतिम निर्णय करेगा, फिर रोड पर प्रदर्शन कर रोड वर्डिक्ट का क्या कोई लाभ होगा.

    एक तरफ वक़्फ़ कानून का मामला सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है, तो दूसरी तरफ नेशनल हेराल्ड पर मनी लॉन्ड्रिंग का मामला पीएमएलए कोर्ट में पहुंच गया है. वक़्फ़ कानून के विरोधी हिंसक प्रदर्शन कर रहे हैं, उसी तर्ज पर कांग्रेस कार्यकर्ता भी सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं. सियासत में एक दूसरे पर सबसे बड़ा आरोप यही होता है, कि ध्यान भटकाने के लिए ऐसे काम किए जाते हैं, जिन पर विवाद पैदा हो. यह आरोप भी आम हैं, कि मूल मुद्दों पर चर्चा रोकने के लिए ऐसे मुद्दे सामने लाए जाते हैं. 

    वैसे तो देश में कई सारे मामले हमेशा चर्चा में रहते हैं लेकिन वक़्फ़ और नेशनल हेराल्ड का मामला देश को निर्णायक दिशा देने वाले मामले साबित हो सकते हैं. वक़्फ़  कानून सर्वोच्च अदालत की कसौटी पर खरा उतरता है, तो फिर उन हजारों लोगों को नाजायज कब्ज़े छोड़ने होंगे जो दान की वक़्फ़ संपत्ति पर काबिज़ बताए जाते हैं. गरीब और पिछड़े मुस्लिम समाज के लोगों को वक़्फ़ संपत्तियों का लाभ मिलेगा. महिलाओं के हितों का संरक्षण होगा. 

    वक़्फ़ कानून के विरोध में जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा है, उसमें आम मुसलमान की सहभागिता तो दिखाई नहीं पड़ रही है, जो हालात सामने हैं, उसमें तो कट्टरपंथी और नाजायज कब्जाधारी तत्वों का ही प्रदर्शन दिखाई पड़ रहा है. देश की इसे बद्किस्मती ही कहा जाएगा, कि प्रबंधन को बेहतर करने के लिए कानूनी प्रावधानों का विरोध केवल इसलिए किया जाता है, कि इससे निजी हित प्रभावित हो रहे हैं. वक़्फ़ कानून विरोधियों को सुप्रीम कोर्ट के वर्डिक्ट की प्रतीक्षा करना चाहिए. 

    विरोध प्रदर्शन अदालत को दबाव में लाने का प्रयास है. सियासत को दबाव में लाने की कोशिश है. वोट बैंक को एकजुट रखने का प्रयास है. बीजेपी सरकार का विरोध है. विपक्षी दलों का समर्थन है. यह समझ से परे है. वक़्फ़ संपत्तियों के दुरुपयोग को कहीं भी देखा जा सकता है.

    वक़्फ़ कानून का विरोध तो चल ही रहा था. इस बीच नेशनल हेराल्ड का मामला उससे बड़ा हो गया.कांग्रेस के मसीहा राहुल गांधी और सोनिया गांधी के ख़िलाफ मनी लॉड्रिंग के आरोपों पर चार्ज सीट दायर कर दी गई. यह मामला यूपीए सरकार के समय ही सामने आया था. हाई कोर्ट के आदेश के बाद ईडी द्वारा जांच प्रक्रिया प्रारंभ की गई थी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी से लंबी पूछताछ की गई थी. तब भी कांग्रेस पार्टी ने पूरे देश मेंबड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया था. 

    करप्शन के मामलों में जब भी किसी बड़े नेता के खिलाफ़ कार्रवाई की जाती है तो, राजनीतिक दल विरोध प्रदर्शन का सहारा लेते हैं. अरविंद केजरीवाल को जब शराब घोटाले में गिरफ्तार किया गया था, तब उनकी पार्टी द्वारा भी ऐसे ही आरोप लगाए गए थे. अभी भी अरविंद केजरीवाल ज़मानत पर हैं. केस में ट्रायल चल रहा है. 

    कांग्रेस के नेताओं के मामले में कानूनी चक्रव्यूह ऐसा तैयार हो गया है, कि अब उससे निकलना बहुत आसान नहीं होगा, जहां जांच एजेंसी के आरोप और केस की लीगेलिटी पर तो कोर्ट का वर्डिक्ट ही अंतिम होगा. उस पर किसी प्रकार का विश्लेषण या टिप्पणी सही नहीं हो सकती.

    बुनियादी सवाल खड़ा हो रहा है, कि क्या आपराधिक  गतिविधियों को भी सियासी रूप दिया सकता है. कांग्रेस जो भी प्रदर्शन कर रही है, उससे क्या अदालत की कार्रवाई पर कोई असर पड़ेगा. सियासत को खुशी और गम दोनों का उपयोग करने में महारथ होती है. 

    कांग्रेस ने तो ऐसी परिस्थितियों का हमेशा लाभ उठाया है. इंदिरा गांधी के खिलाफ़ जब विपक्ष की सरकार द्वारा कानूनी प्रक्रिया प्रारंभ की गई थी, तो जनमानस में अपने सियासी दांव से उन्होंने सत्ता में वापसी की थी. कांग्रेस अभी भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी को भाजपा विरोध के कारण फंसाने का आरोप लगा रही है. ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं है, कि इसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिल सकता है. अरविंद केजरीवाल के मामले में तो ऐसा नहीं हो सका.

    अपराधिक गतिविधियों का सियासी ढंग से मुकाबला अब शायद उतना आसान नहीं रह गया है, क्योंकि जागरूकता बढ़ी है. इनफॉरमेशन के अवसर बढ़ हैं शिक्षा बढ़ी है. तथ्यों को सही परिपेक्ष में समझने की समझ बढ़ी है.भारत की राजनीति की धुरी इन्हीं कारणों से बदलना संभव हो पाई है. 

    राहुल गांधी के हाथों में जब से कांग्रेस की पतवार आई है तब से उसकी नैया डांवाडोल ही हो रही है. पहली बार कांग्रेस के बड़े नेता अदालत की प्रक्रिया में सीधे फंसते  दिखाई पड़ रहे हैं. सरकार तो यही चाहेगी कि यह मामला पूरी तरह से कानून के दायरे में ही सिमटा रहे. इसका सियासी प्रभाव कम से कम हो . 

    लोकतंत्र के लिए तो यह अच्छा संकेत है, कि करप्शन के मामले में बड़ा से बड़ा सियासी व्यक्तित्व भी बच नहीं सकता. एलओपी पर केस की शायद यह पहली घटना है. ऐसे साहसिक कदम लोकतंत्र में सुधार के लिए ज़रूरी हैं.