भोपाल में खतरनाक ड्रग्स की फैक्ट्री नए नशे के कारोबार का संकेत कर रही है. 1814 करोड़ की एमडी ड्रग्स जब्त हुई हैं. इसका मतलब यह नहीं है, कि अब भोपाल में ड्रग्स का धंधा समाप्त हो गया है. जो सामने आया है, वह नशे के धधकते ज्वालामुखी की ओर इशारा कर रहा है. कोई भी गलत, अनैतिक और समाज विरोधी व्यवसाय तेजी से धन कमाने की प्रवृत्ति से उत्पन्न होता है..!!
गवर्नेंस का पूरा इकोसिस्टम ब्लैक मनी जनरेशन को प्रोत्साहित करने से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है. ऐसा मानना बहुत कठिन है, कि बिना ब्लैक मनी का जुगाड़ किए हुए कोई भी सरकारी सिस्टम काम कर रहा है. ब्लैक मनी जनरेशन और हासिल करने की प्रवृत्ति पूरे सिस्टम में इस तरह से समा गई है, कि युवाओं की पीढ़ी बर्बाद करने वाले नशे का धंधा भी बेखौफ़ चल रहा है.
फैक्ट्री क्या पकड़ी गई. प्रतिक्रियाओं की सियासी फैक्ट्री भी चालू हो गई. कांग्रेस बीजेपी नेताओं को इससे जोड़ रही है, तो बीजेपी कांग्रेस नेताओं की भूमिका उजागर कर रही है. पिछले दिनों दिल्ली में पकड़ी गई ड्रग्स की बड़ी खेप, कांग्रेस नेता से जुड़ी बताई जा रही है. दोनों दल एक दूसरे को इसके लिए जवाबदार ठहरा रहे हैं. सियासी हमाम में शायद कपड़े होते ही नहीं है.
पुलिस की ओर से दावा किया जा रहा है, कि ड्रग्स पकड़ने के लिए अंकुश अभियान चलाया जा रहा है. आंकड़े भी बताए जा रहे हैं, कि पिछले महीनों में कितनी ड्रग्स जब्त की गई हैं. गवर्नेंस के सिस्टम को इग्नोरेंट मानना तो नासमझी होगी. सब कुछ सिस्टम को पता होता है. कहीं-कहीं तो राजदार, हिस्सेदार भी सिस्टम बन जाता है.
भोपाल में भले ही पहली बार ड्रग्स की फैक्ट्री पकड़ी गई हो, लेकिन इसके पहले देश के कई इलाकों में ड्रग्स की बड़ी खेप पकड़ी गई है. लेकिन कभी भी जांच प्रक्रिया में कोई दोषी साबित होकर अपराधी दंडित नहीं हो पाया है. बड़ी-बड़ी घटनाएं होती हैं, जिसमें सैकड़ो लोग अपनी जान गंवाते हैं, लेकिन जांच में सब कुछ लीपापोती की बलि चढ़ जाता है. जांच आयोग बनते हैं. जांच प्रतिवेदन भी आते हैं, लेकिन वास्तविक परिणाम शून्य ही रहते हैं.
जब कभी घटनाएं होती हैं, तभी आवाजें आती हैं. तभी सिस्टम की गंभीरता सामने दिखती है. उसके बाद फिर धीरे-धीरे पुराना ढर्रा चलने लगता है. यही ड्रग फैक्ट्री के मामले में भी होगा. जिस औद्योगिक क्षेत्र में यह फैक्ट्री चल रही थी, उस औद्योगिक क्षेत्र में और कितनी फैक्ट्रियां चल रही हैं. उसमें क्या प्रोडक्शन हो रहा है इसकी सिस्टम को बिल्कुल जानकारी नहीं होगी. दूसरी फैक्ट्रियां भी ऐसे किसी अनैतिक प्रोडक्शन में लगी हों, तो क्या कहा जा सकता है?
होश में रहना कौन चाहता है? सभी बेहोशी की हालत में पद, पैसा और प्रतिष्ठा के नशे में भाग रहे हैं. बहुत सारे नशे तो ऐसे हैं, जो सरकारें स्वयं चलाती हैं. चाहे शराब हो, अफीम हो या भांग हो, सब सरकारी ठेके पर मिल जाएगी. जहां शराबबंदी है वहां भी शराब उपलब्ध होने में कोई कठिनाई नहीं होती जैसे पानी अपना रास्ता बना लेता है, वैसे ही पीने वाले को उसका नशा मिल ही जाता है. जहरीली शराब के कारण भी हजारों लोग मरते हैं. जांच-जांच खेला जाता है और फिर जहरीली शराब की नई घटना सामने आ जाती है. ऐसा ही ड्रग्स के मामले में भी हो रहा है.
जब तक घटना लोगों की मेमोरी में रहती है तब तक मीडिया भी अलर्टनेस दिखाता है. बाद में सब अपने रास्ते पर चलने लगता है. किसी एक घटना या कोई एक फैक्ट्री पकड़ने से समाज की अनैतिक गतिविधियों नहीं रुकेंगी. ड्रग्स का नशा तो थोड़े समय के लिए होता है, लेकिन पद, प्रतिष्ठा, पैसा और ब्लैक मनी का नशा तो बहुत देर में उतरता है. पूरा सिस्टम ब्लैक मनी (BM ड्रग) के नशे में है. BM ड्रग की जनरेशन और इसको पाने की दौड़ में ही बहुत सारे ऐसे धंधे समाज में चलते रहते हैं, जिससे समाज को तो नामालूम कितना नुकसान होता है, लेकिन सिस्टम के लिए इस नुकसान में भी BM ड्रग का लाभ उठाने की प्रवृत्ति दिखती है.
सरकारी सिस्टम को पता होता है, कि सिस्टम के किस-किस कोने में ब्लैक मनी जनरेट हो रही है. ब्लैक मनी की बंदरबांट में ही सिस्टम का अधिकांश समय जाता है. वेतन की सीमा में काम करने और जीवन गुजारने वाले लोगों को ढूंढ पाना तो अब मुश्किल है. गवर्नेंस के इकोसिस्टम में उन्हीं लोगों की पूछ-परख दिखती है, जो ब्लैक मनी जनरेशन, कलेक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन में सिद्धहस्त माने जाते हैं. अगर बहुत बारीकी से अध्ययन किया जाएगा तो यह स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेगा, कि सभी तरह के नशे की जननी ब्लैक मनी है और ब्लैक मनी से कोई भी कोना अछूता नहीं है.
कोई सिस्टम कभी यह देखने की कोशिश नहीं करता, कि ड्रग्स का नशा क्यों बढ़ता जा रहा है? लोग क्यों नशेड़ी होते जा रहे हैं? सरकारों को तो नशे के कारोबार से राजस्व मिलता है. इसी राजस्व से सरकारी काम चलते हैं, जो नशा सरकार के नियंत्रण से बाहर अवैध गतिविधियों के रूप में बाजार में उतारे जाते हैं, उनको भी क्या सरकारी नियमों के अंतर्गत शामिल नहीं किया जा सकता. जब कोई नशा रोका ही नहीं जा सकता, तो फिर उसको ज्यादा वैज्ञानिक और साइड इफेक्ट मुक्त करने के प्रयास सरकारों को करना चाहिए.
लोकतंत्र के चारों स्तंभ यंत्रवत काम करते हुए दिखाई पड़ते हैं. उनमें ऐसी कोई चेतना परिलक्षित नहीं होती है, जो समाज में ईमानदारी से सुधार करना चाहती है सियासत ने तो सारी सीमाएं तोड़ दी हैं. सेवा के लिए नहीं बल्कि चोरी के लिए सत्ता हासिल करने में सब कुछ दांव पर लगाया जाता है. झूठे वादे जातिवाद और विभाजन करके जनादेश को हासिल किया जाता है. इसके लिए पब्लिक को ही मुफ्तखोरी की चाल में उलझाया जाता है.
जब तक चोरी नहीं होगी तब तक दान भी नहीं हो सकता. सियासत वही कर रही है. खुद चोरी में लगी रहती है और मुफ्तखोरी का दान पब्लिक में लुटाने का दिखावा करती है. सरकारों की हालत बाहर दिवाली और भीतर दिवाला जैसी बनी हुई है. दिखावे पर सरकारें अपना सब कुछ दांव पर लगाती हैं और वास्तविक स्थिति की चिंता उनके चेहरों पर परिलक्षित नहीं होती है.
ब्लैक मनी का प्रभाव चुनाव से लगाकर लोकतंत्र के सभी स्तंभों के संचालन में स्पष्टता के साथ दिखाई पड़ता है. सांसद और विधायक अपने बंगलो पर आने वाले मतदाताओं को जितनी राशि की चाय पिलाते हैं, वह भी उनके वेतन भत्तों से संभव नहीं हो सकती. यह सबको पता होता है, कि इसका प्रबंध ब्लैक मनी से हो रहा है, लेकिन सब आंखें मूंदे हुए बैठे रहते हैं. चाहे कार्यपालिका हो चाहे दूसरे संवैधानिक माध्यम हों सभी की नजरें वास्तविकता के करीब होती हैं, लेकिन जानबूझकर कोई या तो देखना नहीं चाहता या देखकर भी अनदेखा करने की कोशिश करता है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव के माध्यम से सरकार गवर्नेंस करती है. राजनीतिक दलों को पॉलिटिकल डोनेशन के लिए भारत में अभी कोई भी कानून नहीं है. चुनाव में काला धन का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है. हर चुनाव में इलेक्शन कमीशन द्वारा बड़ी मात्रा में नकदी जब्त किए जाते है, लेकिन हर आने वाले चुनाव में नकदी का आंकड़ा जरूर बढ़ जाता है. उसको रोकने के लिए कोई भी वैधानिक प्रावधान करने में कोई रुचि नहीं दिखाता है.
जब चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपए काला धन का उपयोग किया जाएगा, तो इसको रोकने की तरफ कौन ध्यान देगा. यह काला धन इसी सिस्टम से ही आएगा जो सिस्टम काम कर रहा है, चाहे कोई अपराध हो, चाहे व्यवस्था में करप्शन हो, भाई-भतीजावाद हो या परिवारवाद हो सबके पीछे ब्लैक मनी ही मुख्य भूमिका निभा रही है. हर व्यक्ति जल्दी में धनवान और प्रतिष्ठावान बनना चाहता है. इसके लिए जो भी सबसे सुगम रास्ता होता है, उस पर वह चलने लगता है. ड्रग्स रैकेट भी इसी सोच पर काम करते हैं.
सरकारी सिस्टम में यंत्रवत चलने के प्रवृत्ति कितनी बढ़ती जा रही है, कि पूरी व्यवस्था चेतनाविहीन लगने लगती है. संवेदन शून्यता और जवाबदेही का अभाव सिस्टम में घर कर गया है. जवाबदारी को टालते रहना और ब्लैक मनी में अपनी हिस्सेदारी को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना सिस्टम का प्राथमिक मोटिव बन गया है.
कोई भी अपराध पकड़ में आए या कोई भी घटना सामने आए उस पर तत्कालीन रूप से सतही प्रतिक्रिया देने से कुछ लाभ नहीं होने वाला है. जब तक व्यवस्था बदली नहीं जाएगी तब तक ऐसे ड्रग्स रैकेट ना केवल चलते रहेंगे, बल्कि यह रैकेटआगे और बढ़ते रहेंगे.
अब तो यह लगने लगा है कि सरकारें बदलने से भी व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होता बल्कि जनता पर पुरानी व्यवस्था से ज्यादा भार पड़ने लगता है. गवर्नेंस का पूरा इकोसिस्टम ऐसा लगता है, अर्थी पर पहुंच गया है. जिन कंधों पर यह अर्थी चल रही है, उनको बदल देने से भी इस अर्थी का भार कम नहीं होगा. पब्लिक चुनाव के अलावा कभी भी आवाज उठाने से परहेज करती है. इस प्रवृत्ति को भी बदलने की जरूरत है. पूरे सिस्टम पर केवल चुनाव में ही नहीं हर दिन नियंत्रण करने पर ही समाज की व्यवस्था में कुछ बदलाव लाया जा सकता है.
यह बदलाव सरकारें नहीं ला पाएंगी. इसके लिए समाज को ही लड़ना होगा. एक ड्रग फैक्ट्री पकड़े जाने से किसी की तारीफ करके कुछ भी नहीं होने वाला हर दिन नई घटनाएं, नईं दुर्घटनाएं हमारा इंतजार कर रही हैं. घटनाओं से ज्यादा इकोसिस्टम को सुधारने की तरफ ध्यान देना सबसे बड़ी जरूरत है. हालात ऐसे होते जा रहे हैं, कि हर दिन सुधार की आशा कम होती जा रही है. सबको होश में रहने की ज़रूरत है. ड्रग्स का नशा तो उतर भी जाएगा लेकिन दूसरे नशे तो चेतना को ही नष्ट करने लगे हैं.