न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और खरीद नीति को लेकर सिर्फ चिंताएं जता रहे विभिन्न सरकारी विभाग
अजीब अंधेर है, विभिन्न सरकारी विभाग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और खरीद नीति को लेकर अपनी चिंताएं और सरोकार तो जताते रहते हैं, लेकिन यह वाकई आश्चर्यजनक है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) आज तक तय नहीं किया जा सका है। सहज प्रश्न उपस्थित होता है क्यों?
इन्हीं परिस्थिति में एक बार फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और सरकार की खरीद नीति का विश्लेषण जरूरी हो गया है, क्योंकि इन दोनों से, एक हद तक, कुछ खास फसलों को ही फायदा है। ये नीतियां बाजार में विकृतियां पैदा कर रही हैं। तेल के बीज और दालों के किसानों को दो स्तरों पर नीतिगत भेदभाव झेलना पड़ रहा है।
यूँ तो उनके एमएसपी कागजों पर ही लिखे हैं, जबकि धान, गेहूं और गन्ने के साथ ऐसा नहीं है। इन फसलों को या तो सरकार प्रत्यक्ष तौर पर खरीदती है अथवा गन्ने के लिए चीनी मिलों को भुगतान करने को बाध्य करती है। राजस्थान में सरसों करीब 5000 रुपए प्रति क्विंटल के भाव बेचा जा रहा है और महाराष्ट्र में चने के दाम 4700 रुपए प्रति क्विंटल हैं। नीतिगत भेदभाव यह है कि सरसों का एमएसपी 5650 रुपए और चने का 5440 रुपए प्रति क्विंटल है। किसानों के लिए गारंटीशुदा एमएसपी और फसलों के घोषित मूल्य पर उनकी खरीद के दोनों मुद्दे अनंत और प्राचीन लगते हैं, क्योंकि बीते 50 साल में किसी भी सरकार ने इनके नीतिगत समाधान की सार्थक कोशिश नहीं की है।
मौजूदा केंद्र सरकार से अंतिम अपेक्षा इसलिए है, क्योंकि लोकसभा चुनाव मात्र तीन माह दूर ही हैं। किसान आंदोलन जब खत्म हुआ था, तब सरकार ने एक विशेष समिति का गठन किया था। उसमें कुछ कथित किसानों को भी रखा गया था। एमएसपी के मुद्दे पर उसने क्या विमर्श किया और किस बिंदु तक पहुंची है, इसका कोई भी खुलासा देश के सामने नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने जिन चार महत्वपूर्ण जातीय वर्गों की घोषणा की थी, किसान उनमें एक हैं। भारत सरकार के विज्ञापन आजकल खूब प्रसारित कराए जा रहे हैं कि कितने करोड़ किसानों को ‘सम्मान राशि’ के तौर पर कितने लाख करोड़ रुपए आवंटित किए जा चुके हैं। जिन फसलों का आज उल्लेख कर रहे हैं, वे खेतों में हैं और दो माह की अवधि में ही उन्हें बाजार में बेचना अनिवार्य है।
दूसरा बिंदु आयात का है। गेहूं, मिलों के चावल और चीनी की आयात-दरें बहुत ज्यादा हैं। सोयाबीन और सूरजमुखी सरीखे खाद्य-तेलों की आयात-दर शून्य है। ऐसा ही अधिकतर दालों के संदर्भ में है। गेहूं और धान के उत्पादन में भारत विश्व के अग्रणी देशों में है। चीनी उत्पादन में भी हम विश्व में दूसरे स्थान पर हैं। यदि सरकार फसलों के एमएसपी को कानूनन सुनिश्चित करा दे और एमएसपी पर खरीद के दायरे में अधिक किसान और 23 से अधिक फसलें लाई जाएं, तो किसानों की आमदनी का मुद्दा बहुत हद तक हल किया जा सकता है। किसान इतना कर्जदार भी नहीं रहेगा।
अब भी किसान पर औसतन कर्ज करीब 75,000 रुपए का है, जबकि केंद्र और राज्य सरकारें कर्ज माफी के दावे करती रही हैं। बहरहाल कृषि का इतना परिदृश्य जरूर बदला है कि दालों का आयात काफी कम हुआ है, लेकिन खाद्य-तेलों का आयात बढ़ाना पड़ा है। मोदी सरकार ने फसल उत्पादक समर्थक से उपभोक्ता समर्थक की नीति बदली है, नतीजतन आयात फिर बढ़ता दिख रहा है। विभिन्न सरकारी विभाग एमएसपी और खरीद नीति को लेकर अपनी चिंताएं और सरोकार जताते रहते हैं, लेकिन यह वाकई आश्चर्यजनक है कि एमएसपी आज तक तय क्यों नहीं किया जा सका।