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बेहतर सामग्री व तकनीक का प्रयोग क्यों नहीं ?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 22 Feb

सार

बात पहाड़ से शुरू हुई है,ज्यादा समय नहीं हुआ जब उत्तराखंड के तीर्थनगरी जोशीमठ में बड़े पैमाने पर आई दरारों के बाद भय व असुरक्षा का माहौल बन गया था..!

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विस्तार

वैसे तो यह आकलन पहाड़ी राज्य के बारे में आया है, परंतु इससे निकला सूत्र मध्यप्रदेश की राजधानी भोपल की सड़कों पर भी लागू होता है । भोपाल में सड़के ६ महीने में दम तोड़ देती हैं। सूत्र है “यदि नियामक तंत्र द्वारा बेहतर भवन निर्माण सामग्री व तकनीक का प्रयोग किया जाए, तो ऐसी आपदाएं टाली जा सकती हैं।“ भोपाल में हर ठेके पर भारी कमीशन के आरोप भी लगे हैं, सच सरकार जानती है ।

बात पहाड़ से शुरू हुई है,ज्यादा समय नहीं हुआ जब उत्तराखंड के तीर्थनगरी जोशीमठ में बड़े पैमाने पर आई दरारों के बाद भय व असुरक्षा का माहौल बन गया था। घरों में आई दरारों के बाद काफी लोगों को विस्थापित होना पड़ा। कई मकान जमींदोज भी हुए थे, कुछ दरार आने के बाद तोड़ दिये गये थे। उसके बाद केंद्र व राज्य सरकारें हरकत में आईं। अब राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट ने जोशीमठ को अपनी क्षमता से अधिक भार वहन करने वाला शहर घोषित किया है।

साथ ही सिफारिश की है कि इस क्षेत्र में अब नये निर्माण को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। दरअसल, शीर्ष वैज्ञानिक व प्रमुख तकनीकी संस्थानों ने इस साल जनवरी में जोशीमठ में भूमि धंसाव प्रभावित क्षेत्रों में भवन निर्माण का दबाव रेखांकित किया है, लेकिन राज्य सरकार ने रिपोर्ट मिलने के कई माह बाद भी इसे सार्वजनिक नहीं किया था, जिसको लेकर उत्तराखंड हाईकोर्ट ने नाराजगी जाहिर की थी। 

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने अपनी एक सौ तीस पेज की रिपोर्ट में आपदा के बाद की स्थिति के मूल्यांकन के बाद ही निर्माण कार्य पर रोक की सिफारिश की है। यह रिपोर्ट आठ प्रमुख संस्थानों की पड़ताल के बाद तैयार की गई है। इन संस्थानों में रुड़की स्थित केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान, आईआईटी रुड़की, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, सेंटर ग्राउंड वॉटर बोर्ड, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग व नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी रुड़की शामिल रहे हैं। इन संस्थानों ने जोशीमठ में जमीन धंसने के कारणों की पड़ताल की और उससे उबरने के उपाय बताए। बताया जाता है कि जनवरी के अंत में प्रारंभिक रिपोर्ट राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को सौंप दी गई थी। लेकिन राज्य सरकार ने इन रिपोर्टों को सार्वजनिक नहीं किया। अदालत की नाराजगी के बाद राज्य सरकार ने यह रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में हाईकोर्ट के विचार हेतु भेजी है। 

मध्यप्रदेश में तो ऐसी किसी जाँच की कल्पना करना निरर्थक है, सारे ठेके ऐसे लोगों को मिलते रहे और मिल रहे हैं। जिनकी पहुँच बहुत ऊपर तक थी और रहेगी।

रिपोर्ट के कुछ आधार मध्यप्रदेश पर लागू होते हैं। जैसे वहन क्षमता से अधिक निर्माण शहर में किये गये। जहां भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप डिजाइन तैयार नहीं किया गया, वहीं जमीन की भार वहन क्षमता का भी आकलन नहीं किया गया। एक किस्म से ढीली मिट्टी पर निर्माण कार्य होता रहा है। जल निकासी की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। शहर के नीचे पानी के रिसाव से चट्टानें खिसक रही हैं। जिसके चलते धंसाव की गति बढ़ी है। 

भोपाल के बारे में एक निजी संस्थान का अध्ययन बताता  हैं कि शहर में तर्कसंगत ड्रेनेज सिस्टम का अभाव रहा है। क्षमता से अधिक अनियंत्रित निर्माण कार्य होने से समस्या विकट हुई है। वहीं आबादी का बढ़ता दबाव भी समस्या के मूल में है। इस अध्ययन में नगर नियोजन के सिद्धांतों की समीक्षा करने पर बल दिया है। बाक़ी गठजोड़ किसी से छिपा नहीं है,भुगतना जनता को पड़ता है। भोपाल की आबादी का एक हिस्सा ऐसे ही गठजोड़ को भुगत रहा है।