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निर्णय का युवा रंग, कांग्रेस कमेटियां भंग 

सार

जब कोई मन से हार जाता है तब उसका जीतना लगभग नामुमकिन हो जाता है. एमपी कांग्रेस विधानसभा चुनाव की हार के साथ मन से भी हारी हुई लगती है. चुनावी नतीजे के बाद कांग्रेस में पुराने चेहरों को बदलकर नए और युवा चेहरे आए थे. तब यह आशा बंधी थी कि पार्टी में जोश और होश बढ़ेगा. कमलनाथ तो बाहर चले गए हैं, जो मध्यप्रदेश में खुशहाली लाने का सपना दिखा रहे थे, वे खुद ही मध्यप्रदेश के बाहर अपनी खुशहाली तलाश रहे हैं...!

janmat

विस्तार

कांग्रेस ने चुनावी पराजय के बाद संगठन में बदलाव तो तत्परता से किया है. राष्ट्रीय स्तर पर भी संगठन में बदलाव हुआ है. मध्यप्रदेश के प्रभारी महासचिव फिर बदल दिए गए हैं. नए प्रभारी जितेंद्र सिंह ने मध्यप्रदेश की कांग्रेस कमेटी को भंग करने का फैसला सुना दिया है. कांग्रेस के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती 2024 का लोकसभा चुनाव है. यद्यपि मध्यप्रदेश में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने करने के लिए कुछ नहीं है. कांग्रेस भी शायद यही मानती है. इसीलिए संगठन का जो भी ढांचा काम कर रहा था,उसे भी भंग कर दिया गया है. लोकसभा चुनाव के पहले नई कार्यकारिणी गठित करना चुनौती भरा होगा. पीसीसी की वर्तमान कार्यकारिणी में तो लगभग राज्य में सक्रिय सारे नेता शामिल थे. नई कार्यकारिणी के लिए नए नेता कहां से लाये जाएंगे? 

संगठन का सारा ढांचा भी लोकसभा चुनाव से पहले धराशाई हो गया. एमपी में एक संसदीय क्षेत्र छिंदवाड़ा ही कांग्रेस की आशा का केंद्र हो सकता है. छिंदवाड़ा के ही सांसद और विधायक नए प्रभारी की बैठक में दिखाई नहीं पड़े. बीजेपी छिंदवाड़ा को किसी भी कीमत पर जीतना चाहती है और कांग्रेस छिंदवाड़ा और छिंदवाड़ा के जनप्रतिनिधियों को नई कांग्रेस से अलग रखने को बेताब दिख रही है. ऐसी स्थिति में छिंदवाड़ा में बड़ा उलटफेर देखने को मिले तो कोई आश्चर्य नहीं होगा.राजनीति में कोई भी चीज असंभव नहीं है. 
 
नए प्रदेश अध्यक्ष ने कार्यभार ग्रहण करने के साथ यही ऐलान किया था कि कार्यकारिणी काम करती रहेगी. अचानक ऐसा क्या हो गया कि कार्यकारिणी को भंग कर दिया गया है? विधानसभा के चुनाव के दौरान भी कार्यकारिणी में नियुक्तियां होती रही हैं. यही कहा जा सकता है कि पिछली कार्यकारिणी कमलनाथ द्वारा नियुक्त की गई थी. उसमें अधिकांश पदाधिकारी कमलनाथ से जुड़े हुए हो सकते हैं. कांग्रेस के नए निजाम शायद कमलनाथ से इतनी दूरी बनाना चाहते हैं कि उनका कोई भी सरोकार पार्टी के साथ सीधे जुड़े होने का संकेत न दे.

चुनावी हार के बाद संगठन में बदलाव एक आम बात है लेकिन आजकल बदलाव इस ढंग से हो रहे हैं कि जैसे पुराना नेतृत्व जो है उसको पूरी तौर से बेदखल कर दिया जाए. नया नेतृत्व यही कोशिश करता है कि हर उस चिन्ह को मिटा दिया जाए जो पुराने नेतृत्व की याद दिलाता हो. कांग्रेस में भी शायद ऐसा ही कुछ हो रहा है.

कांग्रेस का मुकाबला बीजेपी के मजबूत संगठन से है. बीजेपी 2024 की जीत की रणनीति को ऐसे बुन रही है कि खासकर उत्तर भारत में तो कांग्रेस उसका मुकाबला करने में दूर-दूर तक दिखाई ही नहीं पड़ रही है. पिछले लोकसभा चुनाव में भी उत्तर भारत के राज्यों की लोकसभा सीटों में बीजेपी की जीत का स्ट्राइक रेट 90% से अधिक है. 2024 में यह इससे भी ज्यादा होने की संभावना है. 

विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में बीजेपी ने 48% से अधिक मत प्राप्त किए हैं. लोकसभा चुनाव में यह 60% के करीब पहुंचने की संभावना दिखाई पड़ रही है. कांग्रेस के सामने तो लोकसभा के प्रत्याशियों का भी संकट है. प्रत्येक सीट पर मुकाबले के लिए मजबूत प्रत्याशी भी तलाशने में कांग्रेस को कड़ी मेहनत करनी होगी. 

नए प्रभारी महासचिव ने कांग्रेस की हार के कारण भी तलाशने की कोशिश की है. ऐसा बताया जा रहा है कि जमीनी नेताओं ने यही बताया कि कांग्रेस चुनाव में कांग्रेस के कारण ही हारी है. कांग्रेस में गुटबाजी पार्टी की बुनियाद मानी जाती है. कांग्रेस संगठन के रूप में नहीं काम करती बल्कि नेताओं के गुटों के समूह के रूप में संचालित होती है. कांग्रेस अभी भी विधानसभा चुनाव में अपनी हार स्वीकार नहीं कर पा रही है. कांग्रेसजनों को यह बात पच ही नहीं रही है कि माहौल उनके पक्ष में था और चुनाव परिणाम उनके खिलाफ एकतरफा गया है. 

जमीन पर कांग्रेस का पब्लिक कनेक्ट खत्म हो गया है. सब हवा-बाज लोग सोशल मीडिया पर ऐसी हवा बनाने में लगे रहते हैं कि माहौल कांग्रेस के पक्ष में है. जमीन पर काम करने वाले नेताओं की उपेक्षा की जाती है. कांग्रेस हमेशा जीत और हार दोनों के वास्तविक कारणों को नज़रअंदाज़ करती है. जब वास्तविक कारण ही गलत मान लिए जाएंगे तो फिर सारी दिशा गलत ही होगी. इस बार भी कांग्रेस इसी तरह की गलतफहमी का शिकार हो गई है. हार का सारा ठीकरा  कमलनाथ और दिग्विजय सिंह पर फोड़ दिया गया है जबकि कांग्रेस हाईकमान और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच में स्पष्ट और सटीक मैसेज कम्युनिकेशन ही नहीं हो पा रहा है.

कांग्रेस का संचालन फ्रेंचाइजी जैसा होता है. हाईकमान जिस भी नेता को एक बार फ्रैंचाइज़ी दे देता है वह संगठन को सामूहिक विचार से ज्यादा निजी विचार पर संचालित करने में जुट जाता है. यही मध्यप्रदेश में कांग्रेस की त्रासदी रही है. युवा नेताओं को जब कमान दी गई थी तो ऐसा लग रहा था कि शायद वे जोश के साथ होश दिखाएंगे, जमीनी संघर्ष के लिए सामूहिक नेतृत्व विकसित होगा लेकिन जो पांच सालों से नेतृत्व कर रहे थे उनको किनारे करने की ही रणनीति कांग्रेस के फैसलों में दिखाई पड़ रही है, जो संगठन की दृष्टि से किसी भी राजनीतिक दल के स्वास्थ्य के लिए सही नहीं कही जा सकती.

कांग्रेस के सारे दिग्गज अपने-अपने क्षेत्र में पराजय का शिकार हुए हैं. छिंदवाड़ा अकेला कांग्रेस शासित जिला बना हुआ है. कमलनाथ और नकुलनाथ अपना जिला बचाए रखने में सफल हुए हैं. राजनीति संभावनाओं का खेल है. राजनीतिक चर्चाओं पर अगर भरोसा किया जाए तो बीजेपी छिंदवाड़ा सीट इस बार जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगी. भले ही कांग्रेस से ही उसे प्रत्याशी लाना पड़े. अगर छिंदवाड़ा का किला फतह हो गया तो फिर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मध्यप्रदेश में शून्य पर ही खड़ी हो जाएगी.

कांग्रेस में पदों पर आने के बाद नेताओं में अचानक ज्ञान प्रकट हो जाता है. सलाह मशविरा और संवाद से ज्यादा निर्णय सुनाने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है. वैसे तो यह प्रवृत्ति राजनीति में ही बढ़ती जा रही है लेकिन कांग्रेस ही इसकी जननी मानी जाएगी. कांग्रेस कमेटियां भंग करने के पीछे क्या तर्क है यह बात समझ के बाहर है. नई कार्यकारिणी क्या लोकसभा चुनाव के पहले बन जाएगी? अगर बन भी जाएगी तो उस कार्यकारिणी में क्या पुराने नेताओं को शामिल नहीं किया जाएगा? कांग्रेस संगठन की चाल तो यही इशारा कर रही है कि उनका लक्ष्य 2024 नहीं है बल्कि उसके बाद भविष्य में होने वाले चुनाव है. 

कांग्रेस में यह भी एक हास्यासपद स्थिति दिखाई पड़ती है कि हारे हुए लोग पार्टी को जीत का मन्त्र देते हैं. जो खुद जीतने में सफल नहीं होते वह दूसरों को चुनाव जीतने के तरीके सिखाते हैं. कमलनाथ और नकुलनाथ यह दावा तो जरूर कर सकते हैं कि भले राज्य हार गए हैं लेकिन अपने जिले की सभी सीट जीतने में तो सफल हुए हैं. कांग्रेस में ऐसा दूसरा और कौन सा नेता है जो अपना जिला या अपना किला बचाने में सफल हुआ हो?

यूपी में कभी कांग्रेस सरकार चलाया करती थी. आज वहां कांग्रेस को दहाई में विधायक जिताने में पसीना आ जाता है. उत्तर भारत के बाकी राज्यों में भी कांग्रेस इसी रास्ते पर बढ़ती हुई दिखाई पड़ रही है. मध्यप्रदेश में तो कांग्रेस के सारे प्रयोग फेल हो गए हैं. अब जो नया युवा प्रयोग हुआ है इसके भविष्य की भी बानगी प्रदेश कांग्रेस कमेटी भंग होने के साथ देखी जा सकती है. कांग्रेस विरोधी से ज्यादा पार्टी के अंदर अपने विरोधियों से लड़ने में व्यस्त रहती है. यही व्यस्तता उसे जमीन पर खड़ा होने नहीं देती.

मध्यप्रदेश में तीसरा दल बहुत अधिक अस्तित्व नहीं रखता है लेकिन कांग्रेस की चाल से भविष्य में इसकी कमी भी पूरी होती हुई दिखाई पड़ रही है. कांग्रेस की सफलता उसके संघर्ष में छिपी हुई है. संघर्ष में जब तक सब साथ नहीं हो, कोई भी सफलता नहीं मिलती. हाईकमान संस्कृति से केंद्रशासित प्रदेश के रूप में राज्यों के संगठन का संचालन अक्सर फेल होता है.

मध्यप्रदेश कांग्रेस का जो हाल दिखाई पड़ रहा है उससे तो यही लग रहा है कि सारे फैसले केंद्र से लिए जा रहे हैं. राज्य में हाईकमान के चहेते नेताओं को मौका देकर राज्य की राजनीति को नियंत्रित करने की कोशिश कम से कम लोकसभा चुनाव में तो सफल होती दिखाई नहीं पड़ रही है. कांग्रेस की मजबूती मध्यप्रदेश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मजबूती के लिए जरूरी है मगर कोई भी विकल्पहीन नहीं है क्योंकि प्रकृति विकल्प निर्मित कर ही लेती है.