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​​​​​​​प्रचार में हावी, भुक्त भोगी भी दे देते माफी

सार

करप्शन के आरोप में मुख्यमंत्री जेल चले जाते हैं लेकिन लोकतंत्र करप्शन से इतना इम्यून हो चुका है कि, जेल से लौटे नेता को जनादेश फिर मुख्यमंत्री बना देता है. करप्शन पर जेल और जनादेश  से मुख्यमंत्री बनने की सक्सेस स्टोरी हेमंत सोरेन ने लिखी है. इससे उत्साहित अरविंद केजरीवाल दिल्ली में इसी स्टोरी को दोहराने की कोशिश में लगे हैं...!!

janmat

विस्तार

    शायद इसीलिए, सियासत करप्शन के आरोपी को विपक्षी साजिश करार देती हैं. न्यायिक अदालत की प्रक्रिया को भी जनादेश  जरिए अप्रमाणित साबित करने में जुटे रहते हैं. 

    न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका पर तो समय-समय पर सवाल उठते हैं लेकिन जनतंत्र के फैसलों के मेरिट और डीमेरिट पर सवाल नहीं खडे किये जाते? चुनावी नतीजे इस बात को मानने के लिए मजबूर करते हैं कि, जनतंत्र में करप्शन की बात केवल सियासी हथियार बनते हैं. जनादेश के फैसलों में करप्शन की बात और प्रमाण कोई प्रभाव नहीं डालते. जिन सियासी नेताओं पर करप्शन के आरोप लगते हैं, चुनाव में वही नेता भारी बहुमत के साथ जीत दर्ज़ करते हैं.

    यह किसी एक राज्य का उदाहरण नहीं है. लगभग हर राज्य के चुनाव में करप्शन से घिरी ताकतों को जनादेश से ताकत मिलती हुई दिखाई पड़ती है. क्या देश का जनतंत्र करप्शन को स्वीकार कर चुका है? जिस सिस्टम की कमियों को जनमत भुगतता है, पूरे पांच साल जिस सिस्टम को पानी पी पीकर कोसा जाता है, चुनाव के समय इस सिस्टम से जुड़े करप्शन के आरोपों से घिरे नेताओं को भारी बहुमत से जिता दिया जाता है. 

    कहीं-कहीं तो ऐसा भी दिखाई पड़ता है कि, जिन नेताओं पर करप्शन के आरोप लगते हैं, उनकी पॉपुलैरिटी भले ही नेगेटिव तरीके से हो लेकिन बढ़ती है. मीडिया में फोकस होता है. जनमत अच्छाई और बुराई में अंतर करते समय ना मालूम किन आधारों पर और प्रमाणों पर चिंतन करता है कि, ऐसे लोग भी जनादेश का समर्थन पाने में सफल हो जाते हैं, जिन पर करप्शन के प्रामाणिक आरोप लगे हैं.

    देश में पॉलीटिकल करप्शन की जांच के मामले लगातार बढे हैं. करप्शन की जांच एजेंसियों द्वारा छापे भी डाले जाते हैं. यहां तक की बड़ी मात्रा में राजनीतिक ताकतों और उनसे जुड़े लोगों से नोटों की गड्डियां पकड़ी जाती हैं. यह तो नहीं कहा जा सकता कि, कोई भी जांच एजेंसी केवल राजनीतिक इशारे पर किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के खिलाफ जांच प्रक्रिया को आगे बढ़ा देगी. 

    अगर किसी मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया गया है, तो निश्चित रूप से तथ्यों की प्रमाणिकता जरूर होगी. अदालतों से बेल मिल जाती है. जनादेश की चुनावी यात्रा में ऐसे नेताओं को उनकी जेल यात्राएं नुकसान से ज्यादा फायदा पहुंचाती हुई दिखाई पड़ रही हैं.

    इसका सबसे बड़ा उदाहरण झारखंड के चुनाव परिणाम हैं. राज्य में ईडी द्वारा ना मालूम कितने छापे डाले गए. सरकार के मंत्रियों और अफसर के करीबियों के घर से करोड़ों रुपए जब्त हुए. जो सरकार और सिस्टम करप्शन के आरोपों से घिरा हुआ था, वहीं सरकार और पॉलिटिकल सिस्टम चुनाव में फिर से रिपीट हुआ है. 

    इसका मतलब यह है कि, ऐसा मान लिया जाए कि, करप्शन के जो भी आरोप लगाए गए थे वह आम जनता की नज़र में कोई मायने नहीं रखते थे. ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि, जो रुपए के पहाड़ निकले थे, वह तो सच थे.

    इसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि, जनता सिस्टम में करप्शन को स्वीकार कर चुकी है. पांच साल तक वह भुगतती है, उसके बाद भी जब मताधिकार की बात आती है तो फिर ऐसे आधारों पर मतदान कर देती है, जो सिस्टम को आगे भी बर्बादी की तरफ ही ले जाएंगे.

    महाराष्ट्र में जिस गठबंधन को प्रचंड जनादेश मिला है, उसमें शामिल दलों के कुछ नेताओं पर भी करप्शन के गंभीर आरोप की जांच एजेंसियों द्वारा की जा रही है. चुनाव परिणाम में ऐसे दलों को भी भारी बहुमत से विजय मिली है. यह सवाल परेशान कर रहा है कि, जिस सिस्टम को जनता पांच  साल कोसती है, वही सिस्टम किन कारणों से जनमत में विजय प्राप्त कर लेता है?

    इसके लिए चुनाव में काले धन के उपयोग को जिम्मेदार माना जा सकता है. मतदाता अपने छोटे से स्वार्थ के लिए सिस्टम को हो रहे बड़े नुकसान को भी नजर अंदाज कर देते हैं. चुनाव प्रक्रिया में काले धन के उपयोग को कोई इनकार नहीं कर सकता. यहां तक कि, चुनाव आयोग भी हजारों करोड़ों की नकदी और सामान जब्त करने की जानकारी देता है.

    आयोग की तरफ से जो आंकड़े दिए जाते हैं, यह तो वह आंकड़े हैं जो जब्ती होती है, जो जब्त नहीं हो पाता, ऐसे कितने काले धन का उपयोग चुनावी प्रक्रिया में हो जाता है, ऐसा माना जा सकता है, कि जितने नोटों के पहाड़ छापों में पकड़े जाते हैं कमोवेश टुकड़ों टुकड़ों में वैसे ही पहाड़ चुनाव में बांटे जाते होंगे. 

    स्वार्थी मानसिकता केवल सियासत में है, ऐसा नहीं है. जनता भी अपने स्वार्थ से ही पीड़ित है. छोटे स्वार्थ के लिए बड़े अहित देखने की दूरदृष्टि बिरले में ही होती है. सियासत की तो कोशिश होती है कि, ऐसी बिरली द्रष्टि विकसित न होने पाए, ताकि उनका सिस्टम आरोप-प्रत्यारोप के बीच अपने लक्ष्य हासिल करता रहे.

    पर्यावरण असंतुलन, जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण के लिए कमोवेश हर व्यक्ति जिम्मेदार होता है. इनके दुष्प्रभावों को हर व्यक्ति भुगतता भी है, लेकिन आत्म सुधार की कोशिश शायद मानवता भूल चुकी है. सिस्टम में करप्शन, अकाउंटेबिलिटी की कमी, लापरवाही, लेट लतीफी और भाई भतीजावाद के दुष्परिणाम सिस्टम में जाने वाला कभी ना कभी हर व्यक्ति भुगतता  है. पदों पर बैठे हुए लोगों ने भी कभी ना कभी इसको भुगता होगा?

    जब मेरिट और डिमैरिट में कोई अंतर ही नहीं रहेगा. ईमानदार और करप्ट में अंतर खोजना मुश्किल होगा? जब स्वार्थ की प्रवृत्ति के सहारे काले धन के बंदरबाँट को चुनावी जीत का मंत्र मान लिया जाएगा तो फिर जनतंत्र प्रेजेंट में प्रभावशील माइंडसेट का सिस्टम ही बनाता रहेगा. 

    जनतंत्र को भी मोहब्बत और नफरत की दुकान के रूप में बताना यही साबित करता है कि, सियासत इसे व्यापार ही समझती है. ऐसा माना जा सकता कि इन दुकानों में जन-आवाज को ग्राहक के रूप में ही डील किया जा रहा है. जनतंत्र का मालिक सियासी ग्राहक बन गया है, यह विडंबना खत्म होनी ही चाहिए.