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​​​​​​​पिछड़े वर्ग के ठप्पे की मारमारी

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 16 Sep

सार

बेरोजगारी और अच्छी नौकरियां कम होने के कारण निचले वर्ग में शामिल होने की होड़ बढ़ रही है और कभी संपन्न समझे जाने वाले समुदाय भी पिछड़े वर्ग का ठप्पा लगाने के लिए तैयार हैं, ताकि उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएं..!!

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विस्तार

देर से ही सही खीझकर सरकार ने रोज़गार के मुद्दे पर ध्यान दिया है, दबाव निजी क्षेत्र पर आएगा। इसका अनुमान साफ़ दिख रहा है। अर्थशास्त्री खुले तौर पर और निजी क्षेत्र की दिग्गज हस्तियां भी गुपचुप बातचीत में यह मान रही हैं कि बजट में रोजगार से जुड़ी जिन तीन प्रोत्साहन योजनाओं और इंटर्नशिप योजना का जिक्र किया गया है उनसे कोई बड़ा बदलाव शायद ही दिखेगा। इस साल के बजट में बड़े आइडिया के नाम पर रोजगार के लिए भारी भरकम प्रयास करने का दबाव निजी क्षेत्र पर बढ़ाया जा रहा है।

वैसे बेरोजगारी और अच्छी नौकरियां कम होने के कारण निचले वर्ग में शामिल होने की होड़ बढ़ रही है और कभी संपन्न समझे जाने वाले समुदाय भी पिछड़े वर्ग का ठप्पा लगाने के लिए तैयार हैं, ताकि उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएं। ये दोनों रुझान 2016 की नोटबंदी के बाद तेजी से बढ़ते दिखे हैं। विडंबना की बात यह है कि ये रोजगार सृजन की रफ्तार को और कमजोर कर सकते हैं।

अब निजी क्षेत्र - सार्वजनिक क्षेत्र की तर्ज पर ही यहां भी जातिगत आधार पर ठोस उपाय किए जाने की सुगबुगाहट 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों से ही सुनी जा रही है। राहुल गांधी ने भी हाल में इसका जिक्र किया था मगर वह पूरी तरह स्पष्ट नहीं था। असल में यह विचार इतना खराब है कि किसी ने भी इसे या राहुल को तब तक गंभीरता से नहीं लिया जब तक आंध्र प्रदेश विधानसभा ने 30,000 रुपये तक मासिक कमाई वाले स्थानीय लोगों के लिए निजी क्षेत्र में भी तीन-चौथाई नौकरियां आरक्षित करने का कानून पारित नहीं कर दिया। 2019 में पारित यह कानून अधर में लटका है क्योंकि आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक बता दिया।

हरियाणा में जाट समुदाय ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के शामिल किए जाने की मांग पर आंदोलन किया, जिसके बाद चुनावों में सत्तारूढ़ दल की सीटें काफी कम हो गईं। इसके बाद 2020 में हरियाणा ने भी इसी तरह का कानून पारित किया, जिसे राज्यपाल की मंजूरी भी मिल गई। हरियाणा का सबसे प्रमुख शहर गुरुग्राम ही प्रवासी कामगारों के दम पर तैयार हुआ है, वहां संकेत एकदम स्पष्ट थे। फरीदाबाद उद्योग संघ ने इसे कानूनी चुनौती दी, जिस पर नवंबर 2023 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने निर्णायक फैसला सुनाते हुए स्पष्ट कहा कि यह कानून संविधान द्वारा तय किए गए संघीय ढांचे का उल्लंघन करता है।

एक और विडम्बना-राजनेता जनता को खुश करने के लिए अक्सर अदालत के फैसलों जैसी बातों को नजरअंदाज कर देते हैं। दिसंबर 2023 में झारखंड विधानसभा ने ऐसा कानून पारित किया, जिसमें तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरियों (चपरासी, ड्राइवर आदि) में स्थानीय लोगों के लिए शत-प्रतिशत आरक्षण कर दिया गया। स्थानीय लोगों की परिभाषा में वे लोग आते थे, जिनके पास 1932 या उससे पहले जमीन होने के रिकॉर्ड हैं। मगर राज्यपाल की मंजूरी नहीं मिलने के कारण यह कानून लागू नहीं हो सका।

अन्य राज्यों की नाकामी और उच्चतम न्यायालय द्वारा इस मुद्दे की जांच शुरू किए जाने के बावजूद कर्नाटक के मंत्रिमंडल ने इस साल जुलाई में ऐसे कानून को मंजूरी देने का फैसला कर लिया, जिसमे बाकी सभी कानूनों को भी पछाड़ दिया। इसमें स्थानीय लोगों को प्रबंधन पदों पर 50 प्रतिशत और शेष पदों पर 70 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव था। इस बार बेंगलूरु के आईटी और आईटीईएस उद्योगों के विरोध के कारण सरकार को पीछे हटना पड़ा।

संवैधानिक औचित्य को छोड़ दें तो भी नौकरियों के मौके बढ़ाने में निजी कंपनियों को शामिल करने के ये प्रयास आत्मघाती और बेतुके हैं। हरियाणा और कर्नाटक जैसे राज्य तो पहले से ही बड़े पैमाने पर विदेशी कंपनियां बुलाने में कामयाब रहे हैं। आंध्र प्रदेश भी ऐसा बनने की कोशिश कर रहा है और झारखंड को उम्मीद है कि दुनिया भर की बड़ी खनिज कंपनियां उसके यहां ठिकाना बनाएंगी। ये सभी राज्य बड़ी कंपनियों को अपने यहां निवेश करने के लिए बुला रहे हैं और इसके ‘व्यापार निवेशक सम्मेलनों’ का आयोजन भी किया जा रहा है। इन कंपनियों को जो प्रतिभा चाहिए, उसके चयन पर पाबंदियां लगाई गईं तो कंपनियां राज्य में शायद ही आएंगी।

अभी तो नेताओं के बीच नौकरी के नाम लोकलुभावन वादे करने की होड़ मची हुई है। पिछले दस सालों में प्रधानमंत्री द्वारा कई बार कहे जाने के बावजूद घरेलू निजी कंपनियां निवेश करने से कतरा रही हैं और अस्थिर नीतियों के कारण विदेशी निवेशक भी दूर भाग रहे हैं। इसीलिए अच्छी नौकरियां (जिनमें सुविधाएं होती हैं) बढ़ नहीं रही हैं, जिससे राज्यों में बड़ी संख्या में नाराज और युवा मतदाताओं की चुनौतियां बढ़ गई हैं।

नौकरियों में कमी आने की वजह से पटेल, जाट, मराठा जैसी कई प्रभावशाली जातियां उन नौकरियों के लिए होड़ कर रही हैं जो पहले से ही पिछड़ी जातियों और वर्गों के लिए आरक्षित हैं। ये समुदाय अंग्रेजों के शासनकाल और उसके बाद के लाइसेंस राज के दौरान तो फल-फूल रहे थे लेकिन आर्थिक उदारीकरण के शुरुआती मौकों का फायदा नहीं उठा पाए। अब धीमी आर्थिक वृद्धि के कारण कारोबार के अवसर कम हो रहे हैं और ये समुदाय पिछड़ते जा रहे हैं। उच्चतम न्यायालय के हालिया फैसले में अनुसूचित जातियों के भी उप वर्ग बनाने की अनुमति दी गई है, जिसके कारण ऐसी लड़ाई और बढ़ सकती हैं। हालांकि यह फैसला सैद्धांतिक रूप से सही है, लेकिन इस वजह से कई अनुसूचित जाति समुदाय पिछड़े वर्ग का दर्जा दिए जाने की मांग कर सकते हैं।

इस तरह की होड़ को रोकने का सबसे आसान तरीका है भारत को कारोबारियों के लिए आकर्षक देश बनाया जाए, जहां वे निवेश कर पाएं और अपना विस्तार करें। यह काम वाकई मुश्किल है मगर केंद्र और राज्य सरकारें अब भी इस बात को समझ ही नहीं पा रही हैं।