कश्मीर में उमर अब्दुल्ला सरकार बनने के बाद आतंकवादी घटनाएं अचानक बढ़ गई हैं. यह महज संयोग है या धारा 370 की वापसी की पुकार का सियासी प्रयोग है. शांतिपूर्ण चुनाव हुए बढ़-चढ़कर कश्मीरियों ने हिस्सा लिया. नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन की सरकार बनी. विधानसभा के पहले सत्र में ही कश्मीर में धारा 370 की वापसी का प्रस्ताव बीजेपी विधायकों के भारी हंगामे के बीच पास कराया गया. यह राज्य का विषय नहीं है..!!
भारत सरकार ने संविधान में संशोधन कर इस धारा को हटाया है. राज्य की सरकार इस पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकती. फिर भी इस धारा की वापसी की पुकार न केवल कश्मीर में शांति का बल्कि कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के भविष्य का बंटाधार करेगी. धारा 370 की वापसी की मांग करके कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस भारत की संप्रभुता और भारत के संविधान का अनादर किया है.
पांच साल पहले धारा 370 संविधान से हटाई गई थी. कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस अभी वहीं ठहरे हुए हैं. जबकि जम्मू-कश्मीर इससे आगे बढ़ गया है. जीवन कभी भी ठहरता नहीं है.जो ठहरता है, वह भंवर में ही फंसता है.यह दोनों दल 370 के भंवर में फंसे हुए हैं. नेशनल कांफ्रेंस तो केवल कश्मीर में राजनीतिक वजूद रखती है, लेकिन कांग्रेस को इस स्टैंड का खामियाजा राज्यों के चुनाव में भी भुगतना पड़ सकता है.
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में इस धारा की वापसी के स्टैंड को कांग्रेस के खिलाफ़ प्रचार में भरपूर उपयोग किया जा रहा है. बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री और सभी स्टार प्रचारक कांग्रेस को इसके लिए दोषी ठहरा रहे हैं. यहां तक कहा जा रहा है, कि कश्मीर में जो पाकिस्तान चाहता है, उसी स्टैंड पर कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस काम कर रही हैं.
जहां तक 370 का सवाल है, वह इतिहास बन चुकी है. उस पर सुप्रीम कोर्ट की भी मोहर लग चुकी है. अब उसकी वापसी का तो कोई सवाल नहीं है. इस पर सियासत जरूर जिंदा रह सकती है, लेकिन यह जिंदगी भी बहुत लंबे नहीं चलने वाली.
आजादी के समय जम्मू-कश्मीर का जो स्वरूप बना उस समय भी अब्दुल्ला परिवार मुख्य भूमिका में था. और अब केंद्र शासित प्रदेश के रूप में जम्मू-कश्मीर की पहली सरकार का नेतृत्व भी अब्दुल्ला परिवार के उमर अब्दुल्ला कर रहे हैं. नई सरकार के मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने पहली बार भारत के संविधान के नाम पर शपथ ग्रहण की है. इसके पहले धारा 370 के कारण भारत का संविधान कश्मीर पर लागू नहीं था.
संविधान पर राजनीति करने वाली कांग्रेस को आज नहीं तो कल इस बात का जवाब देना ही पड़ेगा, कि आजादी के इतने सालों बाद भी कश्मीर में भारत का संविधान लागू क्यों नहीं हो पाया. इसके लिए कांग्रेस अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती है.
संविधान का इससे बड़ा अनादर क्या होगा, कि भारत के एक राज्य पर उसकी शक्तियां लागू ही नहीं है. जब एक सरकार नें धारा 370 को हटा दिया. फिर इसके बाद सियासी कारणों से धारा 370 की वापसी की मांग की जा रही है. इसे पॉलिटिकल सुसाइडल ही कहा जाएगा.
उमर अब्दुल्ला की सरकार बनने के बाद अचानक कश्मीर में आतंकवादी घटनाएं बढ़ गई हैं. लगातार घटनाएं हो रही हैं.यहां तक कि श्रीनगर में भी आतंकवादी घटनाएं हुई हैं. कश्मीर में धारा 370 के हटने के बाद जो भी हालात बदले हैं, उसके बाद आतंकवादी घटनाओं पर नियंत्रण लगा था.
केंद्र शासित प्रदेश के रूप में चुनाव के बाद फिर से ऐसी घटनाओं का होना, चिंता पैदा करता है. यह चिंता अब और बढ़ती है, जब सियासी कारणों से फिर वही आतंक और कश्मीर को देश से अलग-थलग रखने की राजनीति शुरु हो जाती है.
भारत तो चांद पर पहुंच गया है, लेकिन पाकिस्तान के हालात झंडे पर चांद से ही संतोष करने के रह गए हैं. पाकिस्तान के अंदरूनी हालात ऐसे दौर में पहुंच गए हैं, कि भारत के साथ उसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता. बीजेपी की ओर से तो लगातार यह कहा जा रहा है, कि पीओके भारत का हिस्सा है. जब धारा 370 हटाई गई थी, तब भी संसद में यह स्पष्टता के साथ कहा गया था, कि पीओके भारत का ही पार्ट है.
एक तरफ पीओके लेने का संकल्प और दूसरी तरफ 370 की वापसी की बात करना पाकिस्तान की भावनाओं के समर्थन करने जैसा ही है. कश्मीर की नई सरकार को तो यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए, कि धारा 370 चली गई है. अब तो संविधान का ही सहारा बचा है.
अगर 370 पर ऐसे ही राजनीति होती रही तो, फिर कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने में भी काफी समय लगेगा. पूर्ण राज्य का दर्जा तभी मिल पाएगा, जब 370 की राजनीति समाप्त हो जाएगी. नई सरकार को नई परिस्थितियों के साथ समन्वय में बनाने की जरूरत है.
कांग्रेस का जहां तक सवाल है, नेशनल कांफ्रेंस ने उसे कोई महत्व नहीं दिया है. फिर भी गठबंधन के नाम पर कांग्रेस को नेशनल कॉन्फ्रेंस का समर्थन करना पड़ रहा है. कश्मीर पर स्पष्ट स्टैंड नहीं लेने का नुकसान कांग्रेस को भविष्य में उठाना पड़ेगा. कश्मीरी पंडितों के साथ जो कुछ भी घटनाएं हुई थीं, उस समय भी सरकार में अब्दुल्ला परिवार ही था.
अब नई सरकार को कश्मीरी पंडितों को बसाने पर ध्यान देना जरूरी है. कश्मीर को डेवलपमेंट का स्वर्ग बनाने की जरूरत है. केंद्र सरकार से समन्वय के बिना कश्मीर में सरकार का चलना कठिन होगा. विकास के मार्ग बाधित होंगे. जनहित प्रभावित होगा.
उमर अब्दुल्ला पहले भी पूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. अब केंद्र शासित राज्य के मुख्यमंत्री हैं. आतंक का आंकड़ा रोज बढ़ रहा है. यह आंकड़ा 370 के पार जा चुका है. अगर उमर अब्दुल्ला सरकार 370 पर अटकी रही तो कुर्सी भटक सकती है.
भारत की संप्रभुता कश्मीर के ऊपर है, जो भी इस संप्रभुता के ख़िलाफ काम करेगा, उसका प्रभुत्व अपने आप समाप्त हो जाएगा. समय की धारा से तेज कुछ भी नहीं होता. जो इस धारा को समझने में भूल करता है, वह स्वयं धारा के प्रवाह में डूब जाता है.