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ज़रूरी है ‘राइट टू रीकॉल’

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 19 Sep

सार

ऐसी कई संभावनाएं हैं, जो वोट के प्रतिशत को चुनाव आयोग के कई आयोजनों के बावजूद नहीं बढ़ा पा रही हैं। उन नाखुश वोटरों को बेशक वर्तमान में नोटा जैसा प्रावधान दिया है, लेकिन इसके अलावा राइट टू रीकॉल रूपी हथियार को मजबूती दी जाए तो जरूर लोकतंत्र जमीनी स्तर तक वोटरों की भारी भागीदारी के साथ ऊंचे मुकाम पर पहुंचेगा..!!

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विस्तार

विश्व में लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा है “लोगों के लिए, लोगों के द्वारा और लोगों की सरकार और शासन।“ कभी- कभी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या यह तंत्र असलियत में अपना राजधर्म निभा रहा है, इसका उत्तर और निर्णय भी जनता को ही करना चाहिए। हमारा दायित्व सिर्फ वोट डालने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, जबकि यह आँकड़ा भी 50 से 60 प्रतिशत से अधिक नहीं हो पाता। बाकि बची 40 से 45 प्रतिशत जनता इसलिए वोट नहीं डालती कि उन्हें उम्मीदवार पसंद नहीं या उन्हें वोट डालना पसंद नहीं या वो वर्तमान के राजनीतिक हालात से खुश नहीं हैं। 

ऐसी कई संभावनाएं हैं, जो वोट के प्रतिशत को चुनाव आयोग के कई आयोजनों के बावजूद नहीं बढ़ा पा रही हैं। उन नाखुश वोटरों को बेशक वर्तमान में नोटा जैसा प्रावधान दिया है, लेकिन इसके अलावा राइट टू रीकॉल रूपी हथियार को मजबूती दी जाए तो जरूर लोकतंत्र जमीनी स्तर तक वोटरों की भारी भागीदारी के साथ ऊंचे मुकाम पर पहुंचेगा। 

राइट टू रीकॉल के अधिकार के इतिहास की बात करें तो प्राचीन एथेंसवासियों में यह प्रथा प्रचलित थी। प्रत्येक वर्ष की निश्चित तिथि पर वे निष्कासन प्रक्रिया का आयोजन करते थे। इस अवसर पर सभी नागरिकों को किसी पात्र में निष्कासन योग्य व्यक्ति का नाम लिखना होता था। जिस व्यक्ति के नाम के सबसे ज्यादा पत्र मिलते थे, उसे 10 महीने के लिए शहर से बाहर निकलवा दिया जाता था। यह प्रक्रिया बेशक उस समय तानाशाह प्रवृत्ति पर लगाम जरूर लगाती रहेगी। आज भी ऐसी प्रक्रिया कुछ देशों में चल रही है, जिसे राइट टू रिकॉल का नाम दिया गया है। इस प्रक्रिया में मतदाताओं को किसी प्रतिनिधि को उसके कार्यकाल से पहले ही निष्कासित करने का अधिकार होता है।

वर्ष 1995 से ब्रिटिश कोलंबिया और कनाडा विधानसभाओं ने मतदाताओं को ऐसा अधिकार दे रखा है। अमेरिका के जार्जिया, अलास्का, कैन्सास जैसे राज्यों में भी ऐसी व्यवस्था है। जबकि वाशिंगटन में ऐसी प्रक्रिया तभी अपनाई जाती है, अगर वहां के प्रतिनिधि के बुरे आचरण या अपराध में शामिल होना प्रमाणित हो जाए। अगर अपने देश भारत की बात की जाए तो राइट टू रिकॉल की शुरुआत हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के घोषणापत्र में सचिंद्र नाथ सान्याल ने 1924 में की थी। उस घोषणापत्र में लिखा था कि इस गणराज्य में मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार होगा, यदि ऐसा चाहें, अन्यथा लोकतंत्र एक मजाक बन जाएगा। 

भारत की आजादी के बाद वर्ष 1974 में संविधान (संशोधन) बिल, जिसमें राइट टू रिकॉल के अंतर्गत विधायक व सांसदों को वापस बुलाने का प्रस्ताव था, लोकसभा में चर्चा के लिए रखा गया, लेकिन पारित  नहीं हो पाया। वहीं वर्ष 2016 में भी उस समय के सांसद वरुण गांधी ने जनप्रतिनिधत्व कानून (संशोधन) बिल के माध्यम से इस अधिकार को लागू करने के लिए प्रयास किए, लेकिन वे भी असफल रहे। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में ग्राम पंचायत स्तर पर राइट टू रिकॉल को रूपांतरित किया गया है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह कानून कागजों तक ही सीमित है। आज भारत में मतदाताओं को यह अधिकार देने की सख्त जरूरत है।