भारत की षट्दर्शन की इन विशेषताओं को जानते हैं आप?
The Darshanas: An Introduction to Hindu Philosophy
किसी कार्य को करने तथा किसी वस्तु के निर्माण में छः कारणों की आवश्यकता होती हैं-निमित्त कारण, उपादान कारण, काल, पुरुषार्थ कर्म एवं प्रकृति । जिस प्रकार एक कुम्भकार बर्तन बनाता है तो उसमें ये छः ही कारण आवश्यक हैं अन्यथा बर्तन नहीं बना सकता। इसमें कुम्भकार निमित्त कारण है, मिट्टी उपादान कारण है। उसे बनाने व पकाने में समय भी जाता है। कुम्भकार का पुरुषार्थ भी एक कारण है जो उसे बनाने का निश्चय करता है। उसे कर्म भी करना पड़ता है तथा उसे प्रकृति तत्त्वों का ज्ञान भी होना चाहिए कि मिट्टी व पानी के गुणधर्म क्या हैं तथा उन्हें किस अनुपात में मिलाया जाए। इन सबके बिना वह बर्तन का सही निर्माण नहीं कर सकता।
इसी प्रकार सृष्टि रचना में भी इन छ: ही कारणों की आवश्यकता होती है। कोई भी ईश्वर अपनी इच्छामात्र से छः दिन में सृष्टि की रचना नहीं कर सकता। इसकी रचना की एक लम्बी प्रक्रिया है जिससे गुजरकर यह वर्तमान स्वरूप में आई है। इन छः कारणों में एक भी कारण के अनुपस्थित होने पर इतनी व्यवस्थित सृष्टि की रचना नहीं हो सकती । इन छ: ही कारणों की छः विभिन्न दर्शनों में व्याख्या की गई है इसलिए ये छः ही दर्शनों को अलग-अलग न मानकर सम्मिलित रूप से सृष्टि रचना के कारण रूप से मानना चाहिए।
Shad Darshan - Six Schools of Philosophy
इन छ: दर्शनों में सृष्टि का निमित्त कारण एकमात्र 'ब्रह्म' है जिसकी व्याख्या वेदव्यास ने वेदान्त दर्शन में की है।
इसका दूसरा 'उपादान' कारण है परमाणु की व्याख्या महर्षि कणाद् ने अपने वैशेषिक दर्शन में की है।
तीसरा कारण 'काल' है। जिसकी व्याख्या महर्षि गौतम ने अपने न्याय दर्शन में की है|
चौथा कारण 'पुरुषार्थ है जिसकी व्याख्या पतंजलि ने योग दर्शन में की है।
पाँचवां कारण 'कर्म' है जिसकी व्याख्या महर्षि जैमिनी ने अपने मीमांसा दर्शन में की है|
छठा कारण 'प्रकृति है जिसके अनुक्रम की व्याख्या महर्षि कपिल ने अपने सांख्य दर्शन में की है।
इस प्रकार ये छः ही कारण भिन्न-भिन्न रूप से कार्य नहीं करते बल्कि सभी मिलकर ही सृष्टि रचना का कार्य करते हैं। ये सभी एक ही ब्रह्म शक्ति के अधीन कार्य करते हैं जिससे इनके कार्यों में एकत्व है। वह ब्रह्म ही इन सबका अधिष्ठाता है। वही सभी कारणों का कारण है यही वेदान्त का अद्वैत दर्शन है जिसको शंकराचार्य ने विभिन्न प्रमाणों तथा तुर्कों से सिद्ध करके अद्वैत मत को पुनः प्रतिष्ठा दी है। अत: इन दर्शनों की भिन्नता का जो भ्रम है वह दूर हो जाना चाहिए। एक हाथी के छः अंगों को भिन्न-भिन्न मानने से पूर्ण हाथी का ज्ञान नहीं हो सकता। उसे ग्रुप से देखना होगा अन्यथा भ्रान्ति बनी ही रहेगी।
भारत के षट् दर्शनों की निम्न विशेषताएँ हैं
१. इनका उद्देश्य है मनुष्य को दुःखों से मुक्ति दिलाना तथा मोक्ष प्राप्त कराना।
२. दुःखों का कारण राग, द्वेष तथा अविद्या है जिनसे मुक्त कराना।
३. इनके ज्ञान से इहलौकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं।
४. मनुष्य जो भी कर्म करता है उसका नाश कभी नहीं होता। समय आने पर वह अपना फल अवश्य देता है।
५. जिस फल को हम भोग रहे हैं वे सब पूर्वजन्मों में किए गए कर्मों का ही फल है ।
६. मनुष्य अपने कार्य करने में स्वतंत्र है किन्तु कर्मफल भोग में परतन्त्र है।
७. संसार में बन्धन का कारण विद्या है जिसके रहते जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं।
८. विद्या से मुक्ति ज्ञान से ही होती है अन्य कोई उपाय नहीं है।
९. कर्म मुक्ति का साधन नहीं है। इससे स्वर्ग प्राप्ति ही हो सकती है।
१०. प्रेय मार्ग मनुष्य की अधोगति का कारण है तथा श्रेय मार्ग मुक्ति का साधन है।
११. श्रेय मार्ग पर चलने के लिए अष्टांग योग की साधना आवश्यक है।
१२. ब्रह्म की प्राप्ति ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है।
१३. तत्त्व ज्ञान मनुष्य को कर्म बन्धन से छुड़ाता है।
१४. भारत के ये छहों दर्शन आस्तिक दर्शन हैं जिनमें ईश्वर की सत्ता को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया गया है।
१५. सभी दर्शनकार जीवात्मा को नित्य, अल्पज्ञ, ज्ञानादि गुणों से युक्त, षट् दर्शनम् एकदेशीय, अणु स्वरूप तथा कर्मफल भोक्ता मानते हैं।
१६. जीव और ब्रह्म को एक नहीं माना गया है।
१७. जीव और ब्रह्म की भाँति प्रकृति को भी स्वतन्त्र सत्ता है। प्रकति भी नित्य है।
१८. प्रकृति इस कार्य जगत का उपादान कारण है।
१९. जन्म-मरण से छूटकर परमानन्द को प्राप्त होने का नाम ही 'मुक्ति' है।
२०. दुःखों से छूटना ही मुक्ति है।
२१. सभी दर्शनकार वेदों का प्रमाण मानते हैं।
२२. सभी वेदों को ईश्वरीय ज्ञान व अपौरुषेय मानते हैं।
२३. मनुष्य के शुभ एवं अशुभ कर्मों के अनुसार उसका पुनर्जन्म होता है।
२४. शुभाशुभ कर्मों का अभाव होने से जीव का पुनर्जन्म नहीं होता और पुनर्जन्म का न होना ही मोक्ष है।
२५. सभी दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं।
२६. सभी दर्शनों में थोड़ा बहुत विरोध ज्ञात होते हुए भी मूल में कोई विरोध नहीं है।
-नन्दलाल दशोरा