स्टोरी हाइलाइट्स
स्त्री सम्मान और श्रीकृष्ण: कुरुवंश का सम्मान थी भानुमति। जो पान गोष्ठी में अपना होशो हवास खो चुकी थी। स्त्री सम्मान और श्रीकृष्ण.....Female Honor and Shri krishna
स्त्री सम्मान और श्रीकृष्ण
श्रीकृष्णार्पणमस्तु-30
रमेश तिवारी
कुरुवंश का सम्मान थी भानुमति। जो पान गोष्ठी में अपना होशो हवास खो चुकी थी। दुर्योधन के षड़यंत्र में फंसी यह षोडषी रानी योगीराज श्रीकृष्ण के वक्ष पर लदी थी। वह तो सिर्फ कठपुतली की तरह आचरण कर रही थी। इतना अवश्य बक रही थी। माधव! मैं तो तुम्हारी गोपी हूं।
मदिरा के चषक को कृष्ण के मुंह में लगाते समय वह लुढ़कने लगती। गौरी पूजा स्थल के वातावरण को वीभत्स होता देख, श्रीकृष्ण वहां से निकलना चाह रहे थे। किंतु भानुमति उनको रोक रही थी। कृष्ण भी समस्या में उलझ गये। सोचते! बहुत बुरे फंस गये हो लल्ला!
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श्रीकृष्ण के सामने दो समस्यायें थी! पहले तो यह स्वयं वे कैसे बचें! एवं दूसरी यह कि आर्य विश्व के सबसे प्राचीन में से एक इस मूल भरतवंशी परिवार के गौरव की रक्षा कैसे करें? क्षण भर में निर्णय लेने वाले कृष्ण ने, स्त्री सम्मान को प्राथमिकता दी। जो युवराज दुर्योधन, कृष्ण की गर्दन दबाकर उन्हें मृत्यु के मुंह में डालने का विचार रखता था, कृष्ण, उसी दुर्योधन, उसके परिवार और उसकी धर्म पत्नी की गर्दन नीचे न झुकने देने का निर्णय ले चुके थे।
गौरी पूजन के नाम पर जय कारों के मध्य चार स्त्रियां ज्योति दीप बुझाकर जा चुकी थीं। मदिरा के प्रभाव में झूम रहे राजपुरूष और स्त्रियां नृत्य और कोलाहल में डूबे थे। उद्यान की हरी घास पर अश्लीलता का प्रदर्शन हो रहा था।
कृष्ण ने भोली, निर्दोष और सत्ता के लिये संभवत अपने ही पति द्वारा उपयोग में लाई जा रही भानुमती को सही में ही वक्ष से चिपका लिया। और फिर अपनी सशक्त भुजाओं में भींच लिया।
जिस अंधकार का लाभ उठाकर गौरी पूजा के नाम पर लोग देहपूजा में लग गये थे, उसी अंधकार में कृष्ण एक युवा स्त्री का सम्मान बचाने में लगे थे। कृष्ण ने भानुमति को दोनों बाहुओं में उठा लिया। किंतु मदहोश भानुमति तो मदिरा प्रभाव के कारण, कृष्ण की भुजाओं में भी हाथ पैर चला रही थी किसी रोते, रूठते, मचलते और हाथ पांव छटपटाते बच्चे की तरह। या गोद में उठाये जाने वाले किसी पशु की तरह।
कृष्ण और कालयवन–श्रीकृष्णार्पणमस्तु-12
कृष्ण भानुमति को उस वीभत्स हो चुके स्थान से किसी प्रकार उठा कर एक ओर बाहर ले आये। यद्यपि वहां अंधेरा घुप्प तो था, परन्तु मानो श्रीकृष्ण उसी अंधकार में भानुमति के भावी भविष्य और प्रतिष्ठा को सुरक्षा देना चाहते थे। जैसे स्वयं काली और भीषण रात्रि में जन्में श्याम, जिन्हें शत्रु काला ग्वाला कहते थे, आर्यावर्त की प्रतिष्ठा को आलोकित कर रहे थे।
कृष्ण के प्रबल हाथों में प्रतिरोध स्वरुप छटपटाती युवराज्ञी का श्रृंगार ध्वस्त हो गया। सुंदर सुंदर पुष्प मालायें पंखुडी़, पंखुडी़ कर बिखर गये। कंचुकी के बटन कृष्ण की शक्तिशाली पकड़ और भानुमती की रगड़ से कभी के भूमिसात हो चुके थे। झपटते, उलटते में बस्ती प्रदेश भी निर्वसन सा हो गया। उसके राजसी और मूल्यवान घाघरे ने भी कटि की मर्यादा तोड़ दी। कृष्ण उद्यान में एक तरफ रुके।
भानुमती के वस्त्रों को व्यवस्थित किया। फिर राजा धृतराष्ट्र के महल का मार्ग पकड़ा। महल यद्यपि समीप ही था। परन्तु भानुमती के असम्मान की कथा के बहुत दूर तक चले जाने की चिंता में कृष्ण ने परिचारिकाओं अथवा सेवकों को बुलाना भी उचित नहीं समझा। इसी परिस्थिति में भी कभी कभार होश में आते ही भानुमती बुदबुदाने लगती "मैं तुम्हारी गोपी हूं!"
कृष्ण ने महल की रक्षिका को बुलाया। और बोले- महारानी गांधारी को बुला कर लाओ। किसी भव्य राजपुरूष को देखकर। और बाहुओं में राजसी स्त्री को मदिरा मस्त देख, रक्षिका भी घबरा गयी। वह भागी हुई महल में गयी महाराज्ञी को स्थिति बताई और.! फिर क्या था- आंखों पर पट्टी बंधी महाराज्ञी भी कृष्ण के मुंह से संपूर्ण कहानी सुनकर हतप्रभ रह गयी।
महाराज्ञी गांधारी ने प्रथम बार अपने भाग्य को यह कहते हुए सराहा कि- ईश्वर मैंने मेरे नेत्रों पर अच्छा हुआ किे पहले से ही पट्टी बांध रखी है! गांधारी ने परिचारिका को आदेश दिया- भानुमती को मेरे पर्यक के समीप ही सुला दो। कृष्ण द्वारा पर्याप्त गोपनीयता से किये गये इस सुकार्य पर गांधारी ने कृष्ण की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। और कहा! कृष्ण आपका यह उपकार मैं जीवन भर नहीं भूलूंगी।
चक्र सुदर्शन का प्रथम प्रयोग……………………श्रीकृष्णार्पणमस्तु -7
गाँधारी ने भानुमति के मुंह पर पानी के छींटे मारे। मुंह में आ रही दुर्गंध से वह भी अपना मुंह आंचल में दबाने लगी। बड़बडाती भानुमती सुबह तक होश में आई। किंतु जब उसको रात की गतिविधियों का स्मरण आया। वह रोने लगी! गांधारी ने पुत्र की इस भोली बालिका वधु को ह्रदय से लगाकर ढाढ़स बंधाया। उसके सिर पर वात्सल्य पूर्वक हाथ फेरा और कहने लगीं पुत्री इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है।
प्रात: जब स्वच्छता अधिकारी और कर्मचारी गौरी पूजा स्थल पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर दंग रह गये। दुर्योधन सहित कुछ प्रभावी स्त्री पुरूष अभी तक बेहोश जैसे पड़े थे। उनकी कामुकता, अभी तक उनके अंगों से प्रदर्शित हो रही थी। अनेक स्त्री और पुरुष अभी भी अमर्यादित पड़े थे। जब भीष्म पितामह को इस आचरण की जानकारी मिली, वे तो मरणासन्न से हो गये।
उन्होंने ह्रष्ट पुष्ट और भारी भरकम युवराज दुर्योधन को उसके महल में पहुंचवाया। फिर। शेष लोगों को दंडित भी किया। और कुकृत्य का मैदान बने उस गौरी पूजा वाले उद्यान को ही खुदवा दिया। और शीध्र ही उस उद्यान में एक स्थाई मंदिर बनवा दिया गया। भीष्म ने श्रीकृष्ण का इस बात के लिये आभार व्यक्त किया कि हे, श्याम! तुमने कुरूकुल की मर्यादा को अपमानित नहीं होने दिया।
आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा।
कृष्णार्पणमस्तु।