मध्यप्रदेश का इतिहास परमार और कलचुरी वंश कहां-कहां तक फैला था साम्राज्य? 


स्टोरी हाइलाइट्स

परमार और कल्चुरी दसवीं सदी में मालवा में गुर्जरों और प्रतिहारों की शक्तिहीनता का लाभ लेते हुए: हर्ष सिंह परमार (949-973) ने परमारों का एक...

इतिहास परमार और कलचुरी वंश कहां कहां तक फैला था साम्राज्य?  परमार और कल्चुरी दसवीं सदी में मालवा में गुर्जरों और प्रतिहारों की शक्तिहीनता का लाभ लेते हुए: हर्ष सिंह परमार (949-973) ने परमारों का एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। उन्होंने धार को अपनी राजधानी बनाया। इस वंश के राजा मुंज और राजाभोज ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित की। ये भी पढ़ें.. मध्यप्रदेश और गुप्तकाल :कैंसे राजा समुद्रगुप्त ने मध्यप्रदेश और दक्षिण पथ के राजाओं पर विजय हासिल की? राजाभोज अपने पूर्ववर्ती शासकों की नीति पर चले। वे कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष करने में सफल रहे। त्रिपुरी के कलचुरी नरेश गांगेयदेव को भी उन्होंने हराया भोज ने कई ग्रंथों की रचना की और यादगार स्थल निर्मित किए। उन्होंने भोपाल के निकट भोजसागर व भोजपुर नगर की स्थापना कर वहां शिव मंदिर बनवाया। त्रिपुरी के कलचुरियों का भी छह शताब्दियों तक साम्राज्य रहा। डाक्टर कीलईन के अनुसार इनकी राजधानी त्रित्र सौर्य थी। वैसे आज तक इस स्थान की प्रमाणिक पुष्टि और खोज नहीं हो पाई है। इस वंश में कोकल्य प्रथम, शंकरगण द्वितीय, युवराजदेव प्रथम आदि प्रतापी राजा हुए जिन्होंने कलचुरी वंश की ख्याति को दूर-दूर तक फैलाया था। उनके काल का चौसठ योगिनी का मंदिर जबलपुर में भेड़ाघाट के निकट स्थित है। ये भी पढ़ें.. बघेलखण्ड(Baghelkhand): पौराणिक इतिहास, सभ्यता और संस्कृति : शेषावतार लक्ष्मण की राजधानी परमार राजाओं ने करीब आठवीं शताब्दी में मालवा पर अपना राज्य स्थापित किया। यहां वे पवार राजपूत के नाम से जाने गए। परमारों ने गुर्जर प्रतिहारों के सामंत के रूप में लंबे समय तक शासन किया। इसी दौरान हर्षसिंह परमार ने गुर्जर प्रतिहारों की कमजोरी का लाभ उठाया और अपने राज्य का विस्तार किया। इस वंश के बाकपति मुंज और राजा भोज ने काफी ख्याति अर्जित की। ये दोनों ही विद्वान थे। अपनी नेतृत्व क्षमता और उपलब्धियों के कारण ही राजा भोज को उस काल का महानतम शासक माना गया। राजा भोज ने उज्जैन के स्थान पर अपनी राजधानी तब की धारा नगरी जिसे अब धार कहा जाता है, को बनाया। ये भी पढ़ें.. मध्यप्रदेश: वैदिक और पौराणिक काल का इतिहास परमारों मालवा पर तेरहवीं शताब्दी तक रहा। शासन प्रसिद्ध ग्रंथ रघुवंशम में उज्जयिनी के राजप्रासाद, महाकाल मंदिर, क्षिप्रा (शिप्रा) नदी एवं उपवनों का मनोरम वर्णन मिलता है। सुनंदा, इंदुमती से कहती है- इस नगर का राजप्रासाद, महाकाल मंदिर के अत्यंत करीब स्थित है। शिव के ललाट पर स्थित चन्द्र की ज्योत्सना के फलस्वरूप कृष्णपक्ष में भी वहां के नरेश अपनी महिषियों के साथ सर्वदा शुक्ल पक्ष का ही आनन्द लेते हैं। हे रम्भोरु क्या तुम उज्जयिनी के उन उद्यानों में बिहार करना चाहती हो जिनमें दिन-रात शिप्रा नदी का शीतल समीर हरहराता रहता है। उज्जयिनी का मेघदूत में अनेक स्थानों पर वर्णन है। इसमें एक जगह कहा गया है। विरही यक्ष मेघ से कहता हैं- भाई मेघ, यहां के जानकार लोग बाहरी नगरों से आए हुए अपने संबंधियों को यह कथा सुनाकर मन बहला रहे होंगे कि यहाँ पर मदभरा नलगिरी नामक हाथी खूंटा उखाड़कर उन्मत्त हो इधर-उधर घूमता था। वहां पर वत्स देश के राजा उदयन ने उज्जयिनी के महाराज प्रद्योत की प्यारी कन्या वासवदत्त को हर लिया था और वहीं उनका बनाया हुआ ताड़ के पेड़ों का सुनहला उपवन था। 1. असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः। तमित्रपक्षेयपि सह प्रियाभिज्योत्सनावतों निर्विशति प्रदोषान्॥ 2. अनेन यूना सह पार्थिवेन रम्भोरु कच्चिन्मनसो रुचिस्ते। शिप्रातरंगानिलकम्पितासु विहर्तुमुद्यानपरम्परासु॥ 3. प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजोडब जन्हे। हैमं तालभवनमभूदत्र तस्यैव राज्ञः।। साभार शिव अनुराग पटेरिया की कलम से मध्यप्रदेश