बघेलखण्ड का इतिहास: बघेलखण्ड के बघेल...


स्टोरी हाइलाइट्स

बघेलखण्ड के बघेल: बघेलखण्ड विंध्य में बघेल राज सत्ता को स्थापित करने का श्रेय गुजरात के सोलंकी राजवंश के योद्धा धवल को दिया जाता है। वैसे कुछ

बघेलखण्ड का इतिहास: बघेलखण्ड के बघेल...
बघेलखण्ड के बघेल: बघेलखण्ड विंध्य में बघेल राज सत्ता को स्थापित करने का श्रेय गुजरात के सोलंकी राजवंश के योद्धा धवल को दिया जाता है। वैसे कुछ इतिहासकार इससे असहमत हैं। वह व्याघ्र देव को बघेल राजसत्ता को स्थापित करने वाला आदि पुरुष मानते हैं। गुरु राम प्यारे अग्निहोत्री के 'रीवा राज्य का इतिहास, जीतन सिंह के 'रीवा राज्य दर्पण' आदि ग्रंथों में व्याघ्र देव को ही विंध्य क्षेत्र में बघेल सत्ता को स्थापित करने का श्रेय दिया गया है।


विभिन्न ग्रंथों में व्याघ्र देव के बाद करन देव, सोहागदेव, सारंगदेव, विलासदेव, भिम्मल देव, अनीक देव, बालनदेव, दलकेश्वर देव, मलकेश्वर देव, बारिया देव और नरहरि देव का जिक्र तो मिलता है पर उनके राज्य के बारे में जानकारी का अभाव है। इस राजवंश को सोलहवें शासक भीरदेव जिन्हें भैद्यदेव और भैद्यचन्द्र के तौर पर भी जाना जाता है, के काल खंड से विस्तृत व प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध है। 

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कहा जाता है कि मैहर के किले की नींव राजा भीरदेव द्वारा रखी गई थी। उसके बाद भीरदेव के पुत्र शालिवाहन ने सत्ता के सूत्र संभाले। शालिवाहन के पश्चात उसका पुत्र वीर सिंह देव, सन् 1500 के लगभग उसका उत्तराधिकारी बना। वह अपने समय का शक्तिशाली राजपूत शासक था। उसने वीरसिंहपुर नगर की स्थापना की थी, जो बाद में पन्ना रियासत का नगर बन गया। 

दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी से वीरसिंह देव के अच्छे संबंध थे और वह अक्सर उसके दरबार में उपस्थित होता रहता था। वीर सिंह एक महान विजेता था। उसने नागौद के परिहार राजा को पराजित कर उसके नारोगढ़ किले पर अधिकार कर लिया था। यह कहा जाता है कि बाद में उसने गढ़ा मंडला के राजा दलपत शाह (सन् 1530-1548) को एक युद्ध में पराजित किया था। उसने आदिवासी कमारों से बांधोगढ़ का किला छीन लिया था और दक्षिण में स्थित वर्तमान शहडोल जिले पर अधिकार कर रतनपुर(अब छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिला) के कलचुरि शासक पर कर लगाया था। उसके शासनकाल में बघेल राज्य का अधिकतम विस्तार हुआ।

वीरसिंह देव को विभिन्न विजयों के परिणामस्वरूप बहुत अधिक लूट उसके हाथ लगी और उसने ब्राह्मणों को बड़ी-बड़ी रकमें दान में दी। उसने अपनी सम्पत्ति का उपयोग अपनी राजधानी गहोरा में चौड़ी सड़कों और भव्य प्रसादों का निर्माण कर उसे सुंदर स्वरूप प्रदान करने में भी किया, जबकि सम्पन्न लोगों ने अपनी अट्टालिकाओं का निर्माण कर नगर का रूप वास्तव में इतना अधिक निखार दिया कि गहोरा एक व्यस्त और समृद्धशाली नगर बन गया। वीरसिंह ने केवल निर्माता अपितु कला और साहित्य का महान आश्रयदाता भी था। कवि रामचंद्र भट्ट ने उसके कहने पर राधाचरित, नामक संस्कृत ग्रंथ की रचना की थी। वीरसिंह देव की प्रशंसा में समकालीन कवियों द्वारा लिखे गए अनेक संस्कृत पद्य उपलब्ध हैं।

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वीरसिंह देव विष्णु का महान भक्त था और उसका झुकाव बनारस के गुरु रामानन्द द्वारा स्थापित भक्ति सम्प्रदाय की ओर था। कबीर पंथ परंपरा के अनुसार वह कबीरपंथ का अनुयायी था। इस परिवार पर कबीर पंथ का प्रभाव रामचंद्र (सन् 1552-92) से लेकर विश्वनाथ सिंह (सन् 1833-54) तक बना रहा और इसी प्रभाव के कारण दरबार में साहिब सलाम कहकर अभिवादन किया जाता था। बघेलखंड में अभिवादन की यह परंपरा अब भी बरकरार है। 

सन् 1540 के लगभग वीर सिंह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र वीरभानुदेव या वीरभान उसका उत्तराधिकारी बना। उसने हुमायूं और शेरशाह के काल में बघेल प्रदेश पर शासन किया। वीरभान ने चौसा के युद्ध के पश्चात् समय पर हुमायूं की सहायता कर उसकी कृपा दृष्टि प्राप्त कर ली। उसने सैनिकों के लिए बाजार खोल दिया। जहां से सैनिक अपनी आवश्यक वस्तुएं ले सकते थे। 

संभवतः उसकी इसी सहायता के फलस्वरूप हुमायूँ ने वीरभान को उसके पौत्र वीरभद्र के जन्म के अवसर पर भाई कहकर संबोधित किया था। उसने उसके लिए सम्मान सूचक पोशाक तथा अन्य उपयुक्त उपहार भी भेजे थे। चूंकि वीरभान, हुमायूं का मित्र था, अतः शेरशाह उससे कुपित हो गया और उसने सत्ता संभालने के पश्चात् उसके प्रदेश पर आक्रमण कर दिया, किन्तु वह बांधोगढ़ तक नहीं पहुंच पाया।


उसका बेटा जलाल खां सन् 1545 में रीवा आया तथा वहां रुका रहा, जबकि उसका पिता कालिंजर की घेराबंदी में लगा हुआ था, जहां वीरभान ने शरण ली थी। तथापि, शेरशाह कालिंजर में एक प्राणघातक दुर्घटना का शिकार हुआ तथा बघेल अपनी राजधानी गहोरा से शासन करते रहे। जलाल खां अपने पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर कालिंजर पहुंचा तथा सूर साम्राज्य के शासक के रूप में उसकी ताजपोशी हुई। उसने इस्लाम शाह का खिताब धारण किया। वीर भानुदय काव्यम् तथा कथा सरित्सागर में उसके शासन का विवरण मिलता है। ऐतिहासिक संस्कृत काव्य वीरभानुदय काव्यम् की रचना सन् 1556 के लगभग वीरभान सिंह के दरबारी कवि माधव द्वारा की गई थी। कवि ने इस काव्य में राजा वीरभानु तथा उनके पुत्र रामचंद्र का वर्णन किया है।

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सन् 1555 में वीरभान की मृत्यु हो गई तथा उसका पुत्र रामचन्द्र उसका उत्तराधिकारी बना। वह अकबर का समकालीन था तथा मुसलमान लेखकों ने अनेक बार उसका उल्लेख किया है। अपने शासनकाल के प्रथम वर्ष में शेरशाह के ज्येष्ठ पुत्र आदिल खां को, जो आगरा से भाग आया था, शरण देने के कारण इब्राहिम सूर ने उस पर आक्रमण कर दिया। रामचंद्र वीरता से लड़ा तथा वह विजयी रहा। 

उसने इब्राहिम सूर को बंदी बना लिया किन्तु उसने उससे अत्याधिक सम्मानपूर्वक व्यवहार किया, उसे गद्दी पर बिठाया तथा स्वयं सेवक के स्थान पर खड़ा हुआ इब्राहिम, रामचंद्र के सम्मानित अतिथि के रूप में वहां कुछ समय तक रहा। अकबर ने अपने शासनकाल के छठें वर्ष सन् 1564 में रामचंद्र के संगीतकार तानसेन की असाधारण कला की ख्याति सुनी। अतः उसने जलाल खां कुर्ची को उसे बांधवगढ़ से ले जाने के लिए भेजा। रामचंद्र उसकी मांग का विरोध नहीं कर पाया तथा उन्होंने अकबर की इच्छा पूरी करने के लिए तानसेन को विदा कर दिया।

शेरशाह के वारिसों के शासनकाल में राजा रामचन्द्र ने सूबेदार अली खां (शेरशाह के दामाद) को ऊंची कीमत देकर कालिंजर का मजबूत किला खरीद लिया था। चित्तौड़ (1567) तथा रणथम्भौर (1568) पर कब्जा कर लेने के पश्चात्, स्थानीय मुसलमान भूमि स्वामियों में राजा से कालिंजर छीन लेने की इच्छा प्रबल हो उठी। रामचंद्र ने यह देखकर कि वह अधिक समय तक किले पर अपना अधिकार नहीं रख पाएगा, हिजरी संवत सफर 977 (जुलाई, 1569) में किला शहंशाह अकबर को सौंप दिया गया तथा उसने अपने युवराज वीरभद्र को शाही दरबार में भेज दिया।

अकबर के प्रख्यात दरबारी बीरबल, बघेल राजा रामचंद्र को, फतेहपुर सीकरी में अकबर से मिलने के लिए राजी करने में सफल रहे। राजा रामचंद्र ने फतेहपुर सीकरी में अकबर से चर्चा की, जहां उसका पूर्ण सम्मान और शालीनता से स्वागत किया गया। उसे नजराना दिए बिना, माठा और बांधी का वंशानुगत शासक घोषित किया गया। उसने बादशाह को कुछ माणिक भेंट किए जिनमें से एक का मूल्य 50,000 रुपए था और बदले में उसे 101 घोड़े प्राप्त हुए। 

सन् 1592 में रामचन्द्र की मृत्यु हो गई। ग्लोरीज ऑफ बांधौगढ़ एण्ड इट्स रुलर्स के अनुसार "राजसी उदारता में उसका कोई सानी नहीं था। अपने अन्य उपहारों में उसने गायक मियां तानसेन को एक दिन में सोने की एक करोड़ मोहरें (करोड़ जार) दी थीं। यह भी कहा जाता है कि उसने रहीम को उनके दोहे पर एक लाख रुपए दिए थे।" कला तथा साहित्य की दृष्टि से उसका शासनकाल स्वर्णयुग था। 

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शहंशाह अकबर के राज कवि गोविंद भट्ट ने जिसे अकबरिया कालिदास कहा जाता था, राजा रामचन्द्र की प्रशस्ति में "रामचन्द्र यशः प्रबंध" (संस्कृत में) लिखा था। अकबर के चारण नन्हरि महापात्र तथा उसके पुत्र हरिनाथ को उसका राजाश्रय प्राप्त था। कबीर पंथ की छत्तीसगढ़ शाखा के संस्थापक धर्मदास से रामचन्द्र के घनिष्ट संबंध थे और अगली पीढ़ियाँ संत मानकर उस पर श्रद्धा रखती रही हैं। 

उसका राज्य प्रयाग से अमरकंटक तक और कालिंजर से चुनार तक फैला हुआ था। मुगल अतिक्रमणों के कारण बघेल राज्य का आकार दो बार कम हुआ, किन्तु वह सदैव ही मध्ययुगीन भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली विजेता को ललकारता रहा बघेलों को कभी भी पूर्णतः पराजित नहीं किया जा सका और उन पर मुगल शासन का नियंत्रण अनिश्चित रहा। उन्होंने कभी मुगल बादशाहों को नियमित रूप से खिराज नहीं दिया। उस जमाने में मुगल, बघेल राज्य को उसकी हीरे की खदानों और उत्तम नस्ल के हाथियों के कारण जानते थे।

सन् 1593 ई. में वीरभद्र अपने पिता रामचन्द्र का उत्तराधिकारी बना। अपने पिता की मृत्यु के समय वह मुगल दरबार में था। मृत्यु की खबर सुनते ही वह तुरंत बांधोगढ़ की ओर चल पड़ा। तथापि, मार्ग में वह अपनी पालकी से गिर पड़ा और उसके बाद ही हि. सन 1001 (सन् 1593 ई.) में गंभीर चोटों के कारण उसकी मृत्यु हो गई। वह एक सुसंस्कृत राजा था और अकबर का प्रिय पात्र था। वीरभद्र देव के पश्चात उसका नाबालिग पुत्र विक्रमादित्य उसका उत्तराधिकारी बना, इस दौर में बघेल दरबार में अनेक षड्यंत्र होने लगे।


अतः अकबर ने वहां शांति तथा व्यवस्था स्थापित करने के लिए राय पात्र दास (पालदास) को भेजा। उसके बांधोगढ़ पहुंचने पर, किशोर शासक के समर्थकों ने उससे अनुरोध किया कि वह किशोर शासक को आगरा ले जाए। अतः इस्माइल कुली खां को किशोर शासक के साथ आगरा भेजा गया, जो वहां 1596 ई. में पहुंचा। इसी के साथ वह निवेदन भी किया गया कि बांधोगढ़ के किले को जीतने करने का इरादा छोड़ दिया जाए। अकबर ऐसे किलों को छोड़ देने से उत्पन्न होने वाले खतरे के प्रति पूर्णतः सचेत रहता था और इसलिए उसने यह अनुरोध स्वीकार नहीं किया। 

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राय पात्र दास ने शीघ्र ही किले को घेर लिया और आठ माह पच्चीस दिन की घेराबंदी के बाद सन् 1597 में उस पर कब्जा कर लिया। सन् 1599 में पात्रदास को किले का सूबेदार बनाकर भेजा गया। सन् 1597 से लेकर 1602 तक बांधोगढ़ तथा उसके आसपास का भूभाग मुसलमान सूबेदार के आधिपत्य में रहा और उसकी राजधानी रीवा रही। 

अकबर ने सन् 1592 में वीरभद्र को राजा घोषित किया और वीरभद्र की मृत्यु होने के बाद अकबर ने सन् 1592 से 1601 तक उसके किसी भी पुत्र को राजा के रूप में मान्यता नहीं दी। इस अवधि में इस क्षेत्र में मुगलों का शासन स्थापित हो गया। वीरभद्र का द्वितीय पुत्र दुर्योधन, जिसने बादशाह के प्रति अपनी निष्ठा घोषित की थी, सन् 1601 में राजा घोषित किया गया और उसे किसी भारती चंद्र के संरक्षकत्व में रखा था। 

इस प्रकार सन् 1601 में वीरभद्र के सबसे बड़े पुत्र विक्रमादित्य के दावे की अकबर द्वारा उपेक्षा की गई। इस प्रकार विक्रमादित्य ने रीवा में अपना शासन स्थापित करने के बाद कुछ समर्थकों को एकत्रित किया तथा अपने दावों पर जोर डाला उसने सन् 1610 में विद्रोह कर दिया तथा बांधोगढ़ पर अधिकार करना चाहा। जहांगीर ने तुरंत राजा मानसिंह कछवाह के पौत्र राजा महा सिंह को विद्रोह का दमन करने के लिए नियुक्त किया। 

विक्रमादित्य के विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन करने के बाद जहांगीर ने बघेल क्षेत्र महा सिंह को जागीर में सौंप दिए। बांधोगढ़ में मुगल शासन की स्थापना के साथ ही विक्रमादित्य पराजय के गर्त में चला गया। बाद में उसने शाहजादा खुर्रम से संपर्क स्थापित किया तथा उसके जरिए सन् 1616 में जहांगीर से माफी मांग ली। जहांगीर ने इसके बाद शीघ्र ही बांधोगढ़ के क्षेत्र विक्रमादित्य को पुनः दे दिए। सन् 1619 में विक्रमादित्य फिर मुगल दरबार गया तथा बादशाह को एक हाथी तथा रत्न जड़ित पगड़ी भेंट की। 

इस प्रकार जहांगीर के शासनकाल में मुगल बघेल संबंधों में सुधार हुआ। सन् 1624 में विक्रमादित्य की मृत्यु हो गई। अमर सिंह 1624 में अपने पिता विक्रमादित्य का उत्तराधिकारी बना। वह प्रथम बघेल शासक था जिसने मुगलशाही सेवा तथा उनके अधिराजस्व को स्वीकार किया। गद्दी पर बैठने के शीघ्र पश्चात् वह दिल्ली पहुंचा और उसने बादशाह जहांगीर के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया। सन् 1634 में अमर सिंह ने ओरछा के विद्रोही बुंदेला सरदार जुझार सिंह के विरुद्ध छेड़े गए अभियान में खान दौरां की सेना का साथ दिया। अमर सिंह एक महान लेखक था। उसने अमरेश विलास के रचयिता हिंदी कवि नीलकंठ को आश्रय दिया।

अनूप सिंह सन् 1640 में अपने पिता अमर सिंह का उत्तराधिकारी बना। उस समय उसकी आयु केवल छह वर्ष थी। सन् 1650 में जब चौरागढ़ के जागीरदार तथा ओरछा नरेश के भाई राजा पहाड़ सिंह बुंदेला ने चौरागढ़ के जमींदार दयाराम को शरण देने के कारण अनूप सिंह पर आक्रमण किया, तब अनूप सिंह अपने पूरे परिवार के साथ रीवा से हटकर पहाड़ी की ओर भाग गया। किंतु उसके छोटे भाई फतेह सिंह ने जगत सिंह तथा अन्य लोगों की सहायता से पहाड़ सिंह का वीरतापूर्वक मुकाबला किया तथा उसे रीवा से खदेड़ दिया। उसी समय उसके छोटे भाई फतेह सिंह ने (जिसे 500 जाटों तथा 200 घुड़सवारों का मनसब प्रदान किया गया था) बघेलखंड में सोहावल रियासत की नींव रखी।

भाव सिंह 1660 ई. में अनूप सिंह के उत्तराधिकारी बने। उसने रियासत पर लगभग 30 वर्षों तक शासन किया, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि उसके शासनकाल में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं घटी। स्वयं विद्वान होने के नाते, उसने विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। अनिरुद्ध सिंह 1690 ई. में भाव सिंह का उत्तराधिकारी बने और उन्होंने रियासत पर लगभग दस वर्षों तक राज्य किया। 

वह 1700 ई. में मऊगंज के सेंगर ठाकुर के साथ लड़ाई में मारे गए। अनिरुद्ध का उत्तराधिकारी अवधूत सिंह नामक उनका नाबालिग पुत्र था। रियासत में शीघ्र ही उपद्रव भड़क उठे और ऐसी अस्त व्यस्त स्थिति का फायदा उठाते हुए पन्ना के राजा छत्रसाल के प्रत्यक्ष वारिस हिरदेशाह ने 1726 ई. में इस प्रदेश पर आक्रमण कर, बघेलखंड पर अधिकार कर लिया तथा युवा सरदार और उसके अनुयायियों को रीवा से भाग जाने पर मजबूर कर दिया। शीघ्र ही बादशाह मोहम्मद शाह से सहायता मांगी गई, जिसने बघेल सरदार अवधूत सिंह की सहायता के लिए तत्काल सैन्य दस्ते भेज दिए। 

बुंदेला दुर्ग सेना करचली योद्धाओं द्वारा खदेड़ दी गई तथा नगर के बाहर आमने सामने घमासान युद्ध होने के बाद पन्ना की सेना ने रीवा को खाली कर दिया। यह भी कहा जाता है कि हिरदेशाह रीवा की एक राजकुमारी को अपने छोटे भाई जगतराज से ब्याहने के लिए अपने साथ ले आया था। इस घटना से दो शासक घरानों के बीच कटुता का बीजारोपण हुआ। इसके बाद हिरदे शाह ने रीवा खाली कर दिया था, तथापि उसने वीरसिंहपुर पर अपना अधिकार बनाए रखा, जो बाद में पन्ना रियासत का एक भाग बना। नागौद, सोहवल तथा कोठी के सरदार अब पन्ना शासक के प्रति निष्ठावान हो गए तथा बघेलों का रियासत के केन्द्र परगना गहोरा पर ही केवल नाम मात्र का अधिकार रह गया था।

सन् 1755 में अवधूत सिंह की मृत्यु हो गई तथा उसका पुत्र अजीत सिंह उसका उत्तराधिकारी बना। सन् 1758 में आलमगीर द्वितीय के पुत्र तथा उत्तराधिकारी गली गोहर (शाह) लम) ने पन्ना पर आक्रमण किया। क्लाइव मुगल सेना का सामना करने के लिए आगे बढ़ा तथा उसने अली गोहर को रीवा में मुकुंदपुर भाग जाने के लिए विवश कर दिया। उसे बघेल सरदार द्वारा शरण दी गई तथा यहीं उसकी गर्भवती पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया, जो बाद में बादशाह अकबर द्वितीय बना।

अक्टूबर, 1790 में, यूरोपीय यात्री लेकी ने नागपुर से बनारस तक की यात्रा रीवा से होकर की थी और उसने रीवा नगर का सजीव वर्णन किया है। वे लिखते हैं, "यह सड़क एक सुंदर कृषि प्रदेश से होकर गुजरती थी और हम अनेक ग्रामों से होते हुए गुजरे, हमने रीवा में पड़ाव डाला। मेरे वहां पहुंचते ही राजा ने अपने दीवान को इस आदेश के साथ भेजा कि मुझे जिस किसी वस्तु की जरूरत हो, वह मुझे दे दी जाए और मुझे बताया जाए कि वे (महाराजा) मुझसे अगले दिन मुलाकात करेंगे।" 

उसने आगे महाराजा अजीत सिंह से अपनी भेंट का उल्लेख किया है और उसे “एक ठिगना और हृष्ट पुष्ट व्यक्ति" कहा है। वे आगे लिखते हैं कि "वह (अकबर द्वित्तीय) आज भी दिल्ली में है और उपर्युक्त नगर (मुकुंदपुर) पर लगाया गया 800 रुपए का वार्षिक कर उसे नियमित रूप से भेजा जाता है।" जयसिंह एक अच्छा विद्वान था और अनेक ग्रंथों का रचयिता होने के साथ ही विद्वानों का महान आश्रयदाता भी था। विश्वनाथ सिंह, लक्ष्मण सिंह तथा बलभद्र सिंह नामक उसके तीन पुत्र थे।

जय सिंह देव ने अपने पुत्र विश्वनाथ सिंह के पक्ष में सन् 1833 में राज्य त्याग दिया। विश्वनाथ सिंह भी एक योग्य शासक तथा अपने पिता के समान साहित्य तथा विद्याओं का प्रेमी था, जिन्हें उसने बहुत अधिक प्रोत्साहन दिया। वे प्रकांड विद्वान थे तथा उन्हें संस्कृत के 18 ग्रंथों का रचयिता होने का श्रेय प्राप्त है। वे एक उत्साही समाज सुधारक भी थे। सन् 1847 में उन्होंने अपने संपूर्ण राज्य में सती प्रथा बंद करा दी। 

विश्वनाथ सिंह ने सन् 1854 तक राज्य किया तथा इसी वर्ष उसका पुत्र रघुराज सिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ। महाराजा रघुराज सिंह के शासन काल में रीवा ने अनेक उतार चढ़ाव देखे। उसके शासनकाल के प्रथम तीन वर्षों अर्थात् 1854 से लेकर 1857 के आरंभ तक राजा साहित्यकारों में संलग्न रहा तथा उसने विद्वानों को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया।

उसने हिंदी में काव्य रचना की। वह अपने पिता के समान ही संस्कृत का विद्वान था। वह मुकुंदाचार्य के प्रभाव से कट्टर वैष्णव बन गया। मुकुंदाचार्य को उसने राज्य का प्रमुख स्वामी नियुक्त किया था तथा उनके निवास के लिए लक्ष्मण बाग प्रदान किया था। उसने गोविंदगढ़ का महल बनवाया था।

राजा रघुराज सिंह के शासनकाल के चौथे वर्ष में, जब संपूर्ण देश 1857 की महान क्रांति से आंदोलित हो उठा था, रौवा रियासत भी उसके प्रभाव से अछूती नहीं रही। जिस समय पहले-पहल मेरठ और दिल्ली में विद्रोह भड़का, उस समय रीवा रियासत के सैनिक अंग्रेजों के प्रति वफादार थे महाराजा रघुराज सिंह के बाद उसका पुत्र वेंकट रमण सिंह 4 वर्ष में उसका उत्तराधिकारी हुआ। इस अल्पायु महाराज के उत्तराधिकार को अंग्रेज सरकार ने वर्ष 1880 में स्वीकृति दी और उसी वर्ष 8 अक्टूबर को उसे गद्दी पर बिठाया गया।

मई 1881 में माधोगढ़ के अधीनस्थ सरदार रामराज सिंह की जो रीवा की गद्दी का संभावित उत्तराधिकारी था, मृत्यु हो गई। उस समय वह निस्संतान था। रीवा के महाराजा ने उसकी जागीर पर इस आधार पर कब्जा कर लिया कि महाराजा मृतक का निकटतम संबंधी था और यह भी कि उस जागीर की जो अपने द्वितीय पुत्र के हिस्से के रूप में महाराजा जय सिंह देव द्वारा 1809 में हस्तगत की गई थी, पैतृक वंश शाखा का प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी न होने के कारण उसे पुनः प्राप्त हो जाती है। अंग्रेज सरकार ने इस कार्यवाही का समर्थन किया।

फरवरी, 1882 में बघेलखंड के पोलिटिकल एजेंट को, जो 1874 से रीवा का प्रशासन सम्हालता रहा था, रियासत का अधीक्षक नियुक्त किया गया। रियासत से प्रशासन में अधीक्षक को सहायता पहुंचाने तथा संबंधित मामलों में सलाह देने के लिए परामर्शदाता निकाय के रूप में सरदार परिषद का गठन किया गया। सन् 1883 में रीवा रियासत बंगाल-नागपुर रेल्वे के लिए अपेक्षित भूमि देने के लिए सहमत हो गई। 15 नवम्बर, 1895 को रियासत का प्रशासन कतिपय शर्तों पर महाराजा वेंकटरमण सिंह को सौंप दिया गया और उसी तारीख को सरदार परिषद विघटित कर दी गई।

सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने पर महाराजा ने अंग्रेज सरकार को अपने रियासत के सभी सैनिक, कोष जवाहरात तथा सभी साधन समर्पित करने का प्रस्ताव रखा। उसने अपनी सेना के साथ स्वयं मोर्चे पर जाने का प्रस्ताव रखा। ग्रेट ब्रिटेन की संसद के दोनों ही सदनों में इन प्रस्तावों की अत्यधिक सराहना की गई। अक्टूबर 1918 में महाराजा वेंकटरमण सिंह का इन्फ्लूएंजा से बीमार होने पर 30 अक्टूबर को निधन हो गया। वे अपने पीछे दो अल्पवयस्क पुत्र तथा एक पुत्री छोड़ गए। 

जब महाराजा वेंकटरमण सिंह बीमार पड़े, तब उन्होंने अपने साले, रतलाम के महाराजा से यह आग्रह किया था कि उसकी मृत्यु हो जाने पर वह रियासत का प्रबंधन सम्हाले उन्होंने नाबालिग युवराज गुलाबसिंह की देखरेख करने का दायित्व भी उन्हें सौंपा था। 9 जनवरी, 1919 को अंग्रेज सरकार के अनुमोदन से महाराजा रतलाम ने रीवा रियासत के रीजेंट के रूप में कार्य संभाला। 

उस अवधि के दौरान रीजेंट की सहायता के लिए उस तारीख को एक रीजेंसी परिषद् नियुक्त की गई। सन् 1923 में महाराजा गुलाब सिंह वयस्क हो गए और उन्होंने शासक का पद ग्रहण कर लिया। रियासत में प्रतिनिधि शासन की मांग को लेकर किया गया 1932 का सविनय अवज्ञा आंदोलन निष्फल नहीं रहा। आंदोलन को प्राप्त भारी जन समर्थन ने महाराजा गुलाब सिंह को कतिपय प्रशासनिक सुधार करने पर विवश कर दिया। 

वर्ष 1945 के आरंभ में रियासती राज्य के नरेशों ने यह महसूस किया कि रियासतों में उत्तरदायी शासन की सार्वजनिक मांग को और अधिक समय तक नजरअंदाज करना संभव नहीं है। नरेश मंडल द्वारा 1945 में नियुक्त संवैधानिक सलाहकार समिति ने रियासतों में उत्तरोत्तर सुधार करने के महत्व पर जोर दिया और नरेशों से यह आशा की कि वे इसे शीघ्रतिशीघ्र लागू करेंगे। 

समिति की इन सिफारिशों को अनेक रियासतों में क्रियान्वित किया गया। रीवा महाराज ने 2 अप्रैल, 1946 को मद्रास के भूतपूर्व महाधिवक्ता सर सलादी कृष्णास्वामी अय्यर की अध्यक्षता में एक जांच समिति नियुक्त करने के निर्णय की घोषणा की। उन्हें लोकप्रिय शासन लागू करने के लिए रीवा के लिए उपर्युक्त और व्यवहार में लाने योग्य संविधान तैयार करना था।

सन् 1946 में भारत सरकार के राजनीतिक विभाग ने महाराजा गुलाब सिंह को पदच्युत कर दिया तथा रियासत में उनके प्रवेश पर रोक लगा दी। उनके बाद उनके पुत्र महाराजा मार्तण्ड सिंह उनके उत्तराधिकारी हुए। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया। सत्ता हस्तांतरण के समय बघेलखंड तथा बुन्देलखंड में 35 रियासतें थीं। उनमें से केवल रीवा को ही आर्थिक दृष्टि से सक्षम रियासत घोषित किया गया था।

शिवअनुराग पटेरिया