भारत की अखाड़ा परम्परा भाग-२ : कैसे और कब शुरू हुए अखाड़े


स्टोरी हाइलाइट्स

अखाड़े का केन्द्र कनखल है। निर्वाणी अखाड़े की शाखाएँ प्रयाग के अतिरिक्त कनखल, आकार, काशी,..भारत की अखाड़ा परम्परा : कैसे और कब शुरू हुए अखाड़े | अखाड़ा

भारत की अखाड़ा परम्परा भाग-२ : कैसे और कब शुरू हुए अखाड़े

अखाड़ों का इतिहास:

शैव अखाड़े

1. निरंजनी अखाड़ा - ऐसा विश्वास किया जाता है कि निरंजनी अखाडे की स्थापना सन् 904 में गुजरात में स्थित माण्डवी स्थान में हुई थी। किन्तु यह तिथि जदुनाथ सरकार के मत में सन् 1904 है, जिसको निरंजनी स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उनके पास एक प्राचीन ताँबे का छड़ा है जिस पर निरंजनी अखाड़े के स्थापना के बारें में विक्रम संवत 906 अंकित है। समस्त अखाड़ों में निरंजनी अखाड़ा बहुत अधिक प्रसिद्ध है। इस अखाड़े के इष्टदेव कार्तिकेय हैं, जो देव सेनापति हैं! निरंजनी अखाड़े के विषय में श्री शालिग्राम श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक 'प्रयाग प्रदीप' में बताया है कि इनका स्थान दारागंज में है। ये लोग भी शैव हैं। जटा रखते हैं। कहा जाता है कि हरिद्वार, काशी, त्र्यंबक, कुरुक्षेत्र, उज्जैन, उदयपुर, ज्वालामुखी आदि स्थानों में इनकी शाखाएँ हैं।

2. निर्वाणी अखाड़ा-निर्वाणी अखाड़े का केन्द्र कनखल है। निर्वाणी अखाड़े की शाखाएँ प्रयाग के अतिरिक्त कनखल, आकार, काशी, त्र्यंबक, कुरुक्षेत्र, उज्जैन, उदयपुर में है। महाकाल मन्दिर उज्जैन में भस्म चढ़ाने वाले महन्त निर्वाणी अखाड़े से ही सम्बन्ध रखते हैं।

महानिर्वाणी अखाड़ा- कहा जाता है कि महानिर्वाणी अखाड़ा निर्वाणी अखाड़े की ही एक शाखा है, जिसकी स्थापना कुंदगढ़ के सिद्धेश्वर मन्दिर में की गई थी। यह स्थान छोटा नागपुर में है। इस अखाड़े का इतिहास इस बात से प्रमाणित होता है कि इस अखाड़े के संन्यासियों की लड़ाई सन् 1664 में थी। इसकी स्थापना को लेकर मतभेद हैं। कुछ लोग सन् 749 मानते हैं जो घुर्ये की दृष्टि से उचित नहीं है।

अखाड़ा 

3. आवाहन अखाड़ा- आवाहन अखाड़ा जूना अखाड़े से संबंधित है। कहा जाता है कि इस अखाड़े की स्थापना सन् 547 में हुई थी, किन्तु जदुनाथ सरकार इस वर्ष को नहीं मानते, वे सन् 547 स्वीकार करते हैं। इस अखाड़े का केन्द्र दशाश्वमेध घाट पर काशी में है। इस अखाड़े के संन्यासी श्री गणेशजी एवं दत्तात्रेय को अपना इष्टदेव मानते हैं, क्योंकि वे आवाहन से ही प्रगट हुए थे। हरिद्वार में इसकी शाखा है।

4. जूना अखाड़ा- जूना या प्राचीन अखाड़ा पहले भैरव अखाड़े के रूप में जाना जाता था और उस समय इष्टदेव भैरव ही थे, जो कि शिव का ही एक रूप है। वर्तमान में इस अखाड़े के इष्टदेव दत्तात्रेय हैं जो कि रुद्रावतार हैं। इस अखाड़े की सम्पत्ति एवं प्रभाव से इसका तीसरा स्थान है। इस अखाड़े के अन्तर्गत आवाहन,अलखिया और ब्रह्मचारी भी हैं। इसकी एक विशेषता है कि इस अखाड़े में अवधूतनियाँ भी सम्मिलित हैं और उनका भी संगठन है।

5. अटल अखाड़ा- अटल अखाड़े के इष्ट गणेशजी (गणपति) है। इनके शस्त्र-भाले को 'सूर्य प्रकाश' के नाम से जाना जाता है। इस अखाड़े के बारे में विश्वास किया जाता है कि इसकी स्थापना गोंडवाना में सन् 647 में हुई थी। इसका केन्द्र भी काशी में है।

6. आनन्द अखाड़ा - जी.एस. घुर्ये के अनुसार आनन्द अखाड़ा विक्रम संवत 856 में बरार में बना था जबकि सरकार के अनुसार विक्रम संवत 912 है। इस अखाड़े के इष्ट देव सूर्य हैं।

7.पंच अग्नि अखाड़ा- अग्नि अखाड़ा काशी में विक्रम संवत 1192 आषाद शुक्ल एकादशी को स्थापित किया गया था। इस अखाड़े का मुख्य केन्द्र राजघाट,काशी, नया महादेव मोहल्ले में स्थित है। इस अखाड़े की इष्टदेवता गायत्रीमाता एवं अग्नि है। इस अखाड़े में चारों मठों के आनन्द चैतन्य स्वरूप प्रकाशक, कर्मकाण्डी, नैस्थिक ब्रह्मचारी होते हैं। 'अग्नि अखाड़े' में अब संन्यासी नागे नहीं हैं, यह नागों का नहीं बल्कि चारों पीठों के ब्रह्मचारियों का संगठन है।

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उदासीन अखाड़े - उदासीन शब्द उद् और आसीन से बना है। उद् शब्द का अर्थ है - ब्रह्म व आसीन का अर्थ है उपविष्ट। इस सम्प्रदाय का पुनर्गठन श्रीचन्द्र महाराज ने किया था। गुरू और शिष्य प्रथा का आरम्भ इसी समय हुआ। कहा जाता है कि 150 वर्ष की आयु पूर्ण कर वे चम्बा की पर्वत गुफाओं में जाकर तिरोहित हो गये।

इस अखाड़े में तीन वर्ग होते हैं, जिन्हें क्रम से मुनि, ऋषि तथा सेवक कहते हैं। उदासीन सेवक गृहस्थ होता है। उदासीन ऋषि बड़ी-बड़ी जटा रखते हैं। गुलाबी, गेरूआ, श्वेत या श्याम रंग के वस्त्र पहनते हैं। इनके निशान मखमल के होते हैं और उन पर जरी का काम होता है। इन लोगों के नाम के अन्त में दास, प्रकाश, आनन्द, स्वरूप आदि शब्द होते हैं। इस सम्प्रदाय के दो उपभेद हैं-बड़े उदासीन और छोटे उदासीन। इन सम्प्रदाय के वर्तमान मुनियों में स्वामी गंगेश्वरानंद तथा सर्वदानन्द के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके प्रमुख ग्रंथ चन्द्र प्रकाश, उदासीन धर्म रत्नाकर तथा उदासीन मंजरी हैं।

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1. निर्मल अखाड़ा- इसकी स्थापना सिख गुरु गोविन्द सिंह के अनन्यतम सहयोगी वीरसिंह द्वारा की गई थी। हनुमन्तबाग में इनके अनुयायी ठहरते हैं। आचरण की पवित्रता तथा आत्मशुद्धि इनका मूल मन्त्र है। ये सफेद कपड़े पहनते हैं ये भस्म से शरीर को आच्छादित नहीं करते। इनके झण्डे का रंग पीला या बसन्ती होता है जिसमें चक्र और अखाड़े के चित्र होते हैं। इसके अनुयायी कभी-कभी चन्दन का तिलक लगाते हे और ऊन या रुद्राक्ष की माला हाथ में रखते हैं इस अखाड़े के अनुयायियों का मुख्य ध्येय गुरू नानकदेव के मूल सिद्धान्त के अनुसार चलना है।

2. बड़ा पंचायती अखाड़ा - इसका स्थान कीडगंज में है। यह उदासीन का तानाशाह अखाड़ा है। इसकी शाखाएँ पंजाब, राजपूताना तथा हैदराबाद में है। यह बड़ा धनाढ्य अखाड़ा है। इस अखाड़े में चार पंगतों के चार महन्त इस क्रम से होते हैं।

१.अलमस्तजी की पंक्ति का,

२.गोविन्द साहब की पंक्ति का,

3.बालूहसनाजी की पंक्ति का.

४.भगत भगवान जी की परम्परा का।

छोटा-पंचायती अखाड़ा - यह अखाड़ा भी उदासीन अखाड़े से सम्बन्धित है और इसका केन्द्र मुट्ठीगंज में स्थित है।

3. उदासीन पंचायती नया अखाड़ा - इस अखाड़े के संदर्भ में आचार्य पं.सीताराम चतुर्वेदी लिखते हैं कि सन् 1902 में उदासीन साधुओं में परस्पर मतभेद हो जाने के कारण प्रयाग के महात्मा सूरदासजी की प्रेरणा से एक अलग संगठन बनाया गाया जिसका नाम 'उदासीन पंचायती नया अखाड़ा' रखा गया। इस अखाड़े का मुख्य केन्द्र तो प्रयाग में है, किन्तु इसके साथ हरिद्वार, गया, काशी और कुरुक्षेत्र में भी है। यद्यपि इनके नियम आदि समान हैं किन्तु नये अखाड़े में केवल संगत साहब की परंपरा के ही साधु सम्मिलित हैं। यह उदासीन पंचायती नया अखाड़ा 6 जून 1913 को पंजीकृत किया गया। व्यवस्थित रूप से उदासीन सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा का श्रेय श्री चन्द्राचार्य को ही है, जिन्होंने चार घूरों और छह-बख्शीश (वरदान) की वरिष्ठ परम्परा आरम्भ की।

संन्यासी अखाड़े की छः प्रतिज्ञाएँ

संन्यासी अखाड़े के अपने नियम हैं और उन नियमों का पालन करना प्रत्येक सदस्य का अनिर्वाय कर्तव्य है। अतः संन्यासियों से छह प्रतिज्ञाएँ कराई जाती है। कहा जाता है कि इन्हीं प्रतिज्ञाओं के आधार पर संन्यासी संगठन की नींव आधारित है। ये छः प्रतिज्ञाएँ निम्न प्रकार से हैं

1. "तेरी-मेरी करना नहीं' अर्थात् सम्पत्ति में मेरा-तेरा न लगे, उसे सारी जमात (संघ) की समझना।

२.'गांजा-तम्बाकू पीना नहीं' अर्थात् नशाखोरी से बचना।

3.'यह अखाड़ा छोड़ दूसरे (सैनिक संगठन) में जाना नहीं।'

4.'लोहा-लकड़ी उठाना नहीं 'अर्थात आपस में मारपीट करना नहीं।

५.'जिसके पास रहना उसकी सेवा करना' अर्थात् अपने ऊपर के अधिकारी आज्ञा मानना।

६.''खाने-पीने की मेवा, धेर-ढके की सौगंध'' अर्थात् जमात (संघ) की चीज को खाने-पीने की छूट है, लेकिन चुराने-छिपाने तथा उसे वैयक्तिक सम्पत्ति बनाने की सौगंध है।

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