स्टोरी हाइलाइट्स
दुर्योधन के भव्य प्रासाद के खुले प्रांगण की यह घटना तब की है जब यह मान लिया गया था कि पांड़व और कुंती ....कृष्ण के पौरुष पर स्त्रीत्व का आक्रमण: श्रीकृष्ण
कृष्ण के पौरुष पर स्त्रीत्व का आक्रमण
श्रीकृष्णार्पणमस्तु -29
रमेश तिवारी
मानव को समर्पित श्रीकृष्ण के जीवन में व्यवधान पर व्यवधान तो आते रहे किंतु वे अपने उद्देश्य से कभी भी नहीं डिगे। वे समाज के सभी वर्गों को स्नेह करते थे, किंतु मर्यादाओं में रहकर। वे स्त्रियों का बहुत सम्मान करते थे।
हम आगे विस्तार से बतायेंगे कि श्रीकृष्ण ने स्त्रियों के साथ अन्याय,अत्याचार और व्यभिचार करने वालों को कितने कठोर दंड दिये। परन्तु आज तो हम हस्तिनापुर की एक ऐसी अद्भुत घटना पर चर्चा करेंगे जिसमें कि दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण पर स्त्री के माध्यम से किया गया वासनामयी आक्रमण, श्रीकृष्ण ने किस माधुर्य, स्नेह और चातुर्य से निरस्त कर दिया था।
सम्राट की आत्मा कांप उठी-श्रीकृष्णार्पणमस्तु -28
दुर्योधन के भव्य प्रासाद के खुले प्रांगण की यह घटना तब की है जब यह मान लिया गया था कि पांड़व और कुंती वारणावत में मारे जा चुके हैं। किंतु मथुरा इस दुखद समाचार से अनभिज्ञ थी। अब तक श्रीकृष्ण आर्यावर्त के आकाश पर चमकने लगे थे। जरासंध, कालयवन, शाल्व आदि अहंकारी सम्राट और राजाओं को पराजित कर चुके थे। उनकी भुआ कुंती के कारण ही हस्तिनापुर से उनका संबंध था। और वे पांडवों से कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण के पवित्र स्नान के अवसर पर एक ही बार वे मिले थे।
उनको यह भी समझ आ चुका था कि उनके फुफेरे भाइयों से दुर्योधन आदि कितना दुराग्रह रखते हैं। सो वे चिंतित भी रहते थे। इसी चिंता के कारण उन्होनें अपने भावमित्र और चचेरे भाई उद्धव को हस्तिनापुर भेजा कि वे पता करें, वहां पांडव हैं कैसे! श्रीकृष्ण ने कहा- सुनो उद्धव, भ्राता युधिष्ठिर से कहना कि मैं भी शीध्र ही उनसे भेंट करने आ रहा हूं। हां, देखो- अब तो बड़े भैया हस्तिनापुर के युवराज भी बन चुके हैं।
चोरी का कलंक भी सहा कृष्ण ने……………श्रीकृष्णार्पणमस्तु-20
कुछ दिन वही उनके साथ ठहरेंगे। भीम, अर्जुन और जुड़वां माद्री पुत्रों- नकुल और सहदेव के साथ कितना आनंद आयेगा। उद्धव हस्तिनापुर पहुंच तो गये। किंतु यह जानकर निराश हो गये कि न तो वहां भुआ कुंती हैं और न ही भाई पांडव। वे यह जानकर तो और भी टूट गये कि वे सब तो वारणावत अग्नि कांड में मारे जा चुके हैं। कृष्ण जब कुछ दिन बाद हस्तिनापुर पहुंचे और उनको यह ह्रदय विदारक समाचार प्राप्त हुआ। वे अत्यंत दुखी हो गये। पांडवों के शौर्य को देखते हुए कृष्ण द्वारा उनके साथ मिलकर आर्यावर्त के भविष्य के बारे में संजोये गये सभी स्वप्न उन्हें टूट गये, लगे।
उन्होंने उद्धव से जानना चाहा कि यह सब हुआ कैसे? कृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र, विदुर, भीष्म और दुर्योधन से भी भेंट की। किंतु दूसरी ओर कृष्ण के हस्तिनापुर पहुंचने से सतर्क हुई शकुनि और दुर्योधन मातुल की मंडली भयभीत भी होती दिखी। दुर्योधन ने शकुनि से कहा- मातुल, मेरा वश चले तो मैं इस कृष्ण का गला ही दबा दूं। क्योंकि कृष्ण से हुई भेंट में सभी लोग पांडवों की मृत्यु पर इतना शोक जता चुके थे कि चतुर कृष्ण को यह तो समझ में आ ही चुका था कि यह शोक प्रदर्शन कुछ ज्यादा ही नहीं वरन अस्वाभाविक भी है।
श्रीकृष्ण के सद्गुणों की सुगंध————श्रीकृष्णार्पणमस्तु -17
चालाक शकुनि ने दुर्योधन को समझाया- भाग्नेय! कृष्ण को प्रसन्न करो। पांडवों के मारे जाने से राजनैतिक मैदान साफ हो चुका है। कृष्ण को अपना बनाओ, कृष्ण का यशोगान करो, उसकी प्रशंसा में कुछ भी करो। अवसर को हाथ से मत जाने दो। कृष्ण आर्यावर्त का दैेदीप्यमान नक्षत्र है। कृष्ण के आलोक में स्वयं को प्रकाशित करो।
आज दुर्योधन के प्रासाद में भव्य सजावट है। किसी अतिथि का आगमन लगता है। विभिन्न प्रकार की मदिरा, भोजन आदि तैयार हैं। ज्ञात हुआ कि दुर्योधन की षोड़सी पत्नी प्रतिदिन की भांति प्रासाद में गौरी पूजन करने जा रही है। उसका नाम है भानुमती। भानुमती का विवाह कुछ महीनों पूर्व ही दुर्योधन के साथ हुआ है। वह काशीराज की पुत्री है। उसकी बडी़ बहन,जो कि दुर्योधन की पहली पत्नी थी, प्रसव के समय चल बसी थी।
यह दुर्योधन का दूसरा विवाह है,जो द्रोणाचार्य ने करवाया था। काशीराज, द्रोणाचार्य के अंतरंग मित्र थे। कम उम्र। भोली। छल छद्म से दूर।अल्हण। राजकुमारियों सी शान, सौन्दर्य और स्वाभिमान वाली। श्रृंगार प्रिय। वस्त्रों का चयन भी स्त्री मर्यादा के अनुकूल करना नहीं जानती। अनुभव हीन थी। सबसे बडी़ बात तो यह है कि वह दुर्योधन के भय से आक्रांत रहती थी। भयभीत।
चक्र सुदर्शन का प्रथम प्रयोग……………………श्रीकृष्णार्पणमस्तु -7
कृष्ण, उद्धव और सात्यिकी अथिति्गृह में ही ठहरे थे। क्योंकि आज भीष्म ने उद्धव और सात्यिकी को रात्रि भोज पर आमंत्रित किया था। इधर कृष्ण भी आज कहीं नहीं जा रहे थे। वे भी अतिथि गृह में ही थे। अब चालाक दुर्योधन, भानुमती को साथ लेकर श्रीकृष्ण को आमंत्रित करने पहुंचा। कृष्ण के लाख मना करने पर भी दुर्योधन नहीं माना। दोनों पति पत्नी हठ करने लगे। भानुमती ने सौन्दर्य का बाण मारा।
गोविँद- क्या में इतनी बुरी हूं कि आप मेरे आग्रह का निरादर करें। क्या मैं गोकुल की गोपियों से भी गयी बीती हूं! मैं सुन्दर नहीं हूं? सुना है कि आप राधा नाम की गोपी के अति प्रशंसक थे। हां, गोविंद मैं तो आपके रास रहस्य के गीत भी जानती हूं। गाती भी हूं। एक बात बताऊं! देखिये माधव! जब जरासंध के भय से मथुरा से पलायन हुआ था न! तब कुछ गोप हमारे राज्य काशी में भी आ बसे थे।
कालयवन का अंत———————-श्रीकृष्णार्पणमस्तु -13
तब मेरे पिताजी ने सबको निवास आदि उपलब्ध करवाये थे। वे गोप आपके यशोगान में लगे रहते थे। अच्छे अच्छे गीत सुनाते थे। रस भरे। आपके रास के। नृत्यों के। और आप हैं कि मेरी ओर देख ही नहीं रहे हैं। क्या मैं इतनी बुरी हूं। फिर भानुमती ने स्त्रियोचित कलाओं से कृष्ण के सौन्दर्य और प्रेम को प्रज्जवलित करना चाहा। दुर्योधन भी कृष्ण से आग्रह पर आग्रह कर ही रहा था।
सौन्दर्य प्रेमी कृष्ण ने भानुमती की प्रशंसा की। नहीं! ऐसा नहीं। तुम तो अप्रितिम सुन्दरी हो। अद्वितीय। कृष्ण, भानुमती में भोलापन देख रहे थे। उद्दण्ड दुर्योधन से भयभीत होकर कठपुतली सी बनी,अल्हण, अनुभवहीन और अपरिपक्व स्त्री, जो संभवतः:मद्यपान भी कर चुकी थी। रात्रि में गौरी पूजन करना काशीराज की उस सुमुखी पुत्री का नित्य का नियम था। उस गौरीपूजन में उसकी कुछ सखियां और दुर्योधन के कुछ चाटुकार राजपुरुष अपनी पत्नियों सहित शामिल होते थे।
आज तो अति ही हो गयी। कुछ अधिक लोग उपस्थित हैं। लगता है, सुरा और सौन्दर्य का विचित्र संयोजन किया गया था। स्त्रियां कुछ ज्यादा ही नहीं सजी हुयी हैं! कृष्ण ने मन्तक, मन्तक सोचा। यद्यपि वे प्रथम बार ही ऐसा कलुषित दृश्य देख रहे थे। पूजन हुई,फिर आरती और प्रसाद वितरण भी हो चुका था। किंतु अब जो घटित होने वाला था उसके केन्द्र में योगीराज थे।
अब प्रारंभ हुआ मदिरा का दौर। दुर्योधन के अंतरंग मित्र और उनकी सौन्दर्यशील युवा पत्नियों, सभी के वस्त्रों से उनके अंग झांक रहे थे। वे सब विशिष्ट प्रकार के वासनामयी और अशोभनीय दृश्य उत्पन्न कर रहे थे। मादक और यौवन का प्रदर्शन हो रहा था। कटिबंध में सजी मेखलायें नाभि के नीचे बंधे थे उनके बंध। झूमती नारियां स्वयं ही अपनी गरिमा को तार तार कर रहीं थी।
नृत्य ने तो आर्य संस्कृति की सभी गरिमाओं को ध्वस्त कर दिया था। कौन पति है, और कौन किसकी पत्नी! यह सब समझ के परे था। कृष्ण हतप्रभ थे। इसलिए भी ज्यादा कि काशीराज की पुत्री से उनका कोई नाता बन चुका था! अज्ञात सा रिश्ता। वह भोली भी थी और उसने विकृत समाज का वास्तविक चेहरा देखा ही नहीं था। पति के कदाचरण से वावस्ता नहीं थी वह निर्दोष रानी। वह तो बेचारी थी। बच्ची की तरह। बस स्त्री तो थी, किंतु स्त्री की मर्यादा तक नहीं जानती थी।
कृष्ण यह सब देख रहे थे। दुर्योधन का वासना जाल उनके इर्दगिर्द बुना जा रहा था। उनकी प्रसन्नता के लिए ही तो अतिरिक्त प्रबंध किये गये थे। उनको आकर्षित करने के लिए ही,तो मातुल शकुनि का परामर्श था- दुर्योधन कुछ भी करो। कृष्ण को अपना बना लो। कृष्ण ही तुम्हें स्थापित कर सकता है। दुर्योधन के साथ अब भानुमती भी बदहवास होती जा रही थी। मदिरा का प्रभाव दिखाने लगा था।
बिना युद्ध के विजय:- श्रीकृष्णार्पणमस्तु -11-रमेश तिवारी
भानुमती ने मदिरा का चषक हाथ में लिया। गौरवर्ण, और आकर्षक वस्त्र, पहने भानुमति की मोहक कलाइयों में स्वर्ण और काँच की रंग बिरंगी चूडियां, सुशोभित हो रहीं थी। षड़यंत्रकारी दुर्योधन प्रेरित स्त्रीत्व योगीराज श्रीकृष्ण के पौरुष को ललकर रहा था।
अब भानुमती, अपने लडख़डा़ते कदमों से योगीराज की ओर बढी़! उसके हाथ में मदिरा का चषक था। जो उसने श्रीकृष्ण के मुंह में यह कहते हुए लगा दिया! पियो कृष्ण। मेरे प्रिय गोविंद! और लगभग गिरती पड़ती कृष्ण से लिपट गयी। अब मदिरा का चषक तो कृष्ण के होंठों से लगा है। किंतु आगे क्या होगा। अगली कथा में।
आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा।
श्रीकृष्णार्पणमस्तु।