दास मलूका कह गए, सबके दाता राम : क्या वाकई चाकरी और काम करने की ज़रूरत नहीं? क्योकि अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम
SAHITYA :
लोक में मलूकदासजी की जो साखी सर्वाधिक प्रचलित है और सामान्य जन जिस एक साखी से उन्हें जानता है, वह है
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ॥
लेकिन इस साखी के संबंध में 'संत मलूक ग्रंथावली' के संपादक डॉ. बलदेव वंशी का कहना है कि "यह साखी मलूक वाणी में कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। यह प्रक्षिप्त साखी है। न जाने किन कारणों से यह मलूक के नाम से प्रसिद्धि पा गई। एक कारण तो यह लगता है कि मलूक के संत स्वभाव के, जो प्रत्येक कार्य के लिए प्रभु को ही कारण मानता है और श्रेय देता है, देखते हुए प्रसिद्ध हो गई है या फिर आलस्य की पराकाष्ठा को मलूक के नाम के साथ जान-बूझकर जोड़ देने के आशय से इसे प्रसिद्ध किया गया होगा।". बलदेव वंशी ने जिस आत्मविश्वास के साथ इसे प्रक्षिप्त कहा है, मैं नहीं कह सकता। एक तो इसलिए कि मलूक वाणी की सारी पांडुलिपियाँ या मध्यकालीन संतों के वाणी-संग्रहों की सारी पांडुलिपियाँ न तो अब तक खोजी जा सकी हैं और न ही सभी पांडुलिपियों का अवगाहन किया जा सका है। दूसरे इसलिए कि इस साखौ का अभिधार्थ ग्रहण करने के कारण इसे 'आलस्य की पराकाष्ठा' का द्योतक मान लिया गया है, जो कि गलत है। मलूकदास ने बाकायदा तो अपनी वाणी स्वयं शायद ही लिखी हो। इसलिए यदि इसे लोक ने ग्रहण कर लिया और यह मलूकदास की वाणी की उस पांडुलिपि में आने से रह गई, जिसके आधार पर वंशी ने 'संत मलूक ग्रंथावली' का संपादन किया है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। जब लोक और शास्त्र के बीच द्वंद्व हो तब आँख बंद करके लोक को ही गलत मान लेना ठीक नहीं होता। फिर, इस साखी में मलूकदास ने जिस भाव को व्यक्त किया है, वही भाव शब्दांतर से इस साखी में भी है, जिसे वंशी ने 'संत मलूक ग्रंथावली' में रखा है
रहौं भरोसे राम के, बनिजहि कबहुँ न जाउँ । दास मलूका यों कहै, हरि विरवै मैं खाउँ ॥ (संत मलूक ग्रंथावली, पृष्ठ ४०)
इसी से मिलते-जुलते भाव की और साखियाँ भी मलूकदास ने लिखी
अन्य संतों की तरह संत मलूकदास का भी लक्ष्य निर्वाण या मोक्ष प्राप्त करना है। उन्होंने बार-बार निर्वाण को अपने लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया है
षट दरसन दरवेस पुनि, संन्यासी भगवान् । प्रेम बिना पहुँचै नहिं, दुर्लभ पद निर्वान ॥
(वही, पृष्ठ ३४)
हरि प्रसाद से पाइए, अस्थित पद निर्वान । कह मलूक मन के मुए, होइ न आवा जान ॥
(वही, पृष्ठ ३८)
जाँ तोहूँ ज्यों मृग भ्रमहिं, छाँड़ि धरइ हरि ध्यान। कहै मलूक तौ सहज ही, पावै पद निर्वान ॥
(वही, पृष्ठ ३९)
नित्य निमित्य प्राकृत, अंतक प्रलै समान। जैसे का तैसा रहा, कहै मलूक निर्वाण ॥
(वही, पृष्ठ ४०)
आखिर यह 'निर्वाण' है क्या, जिसके लिए संत मलूकदास ही नहीं, अन्य तमाम संत तथा अध्यात्मोन्मुख मनुष्य लालायित रहे हैं ? आर्यों ने चार पुरुषार्थों में जिस चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' की कल्पना की, बौद्धों ने उसी को 'निर्वाण' कहा। निर्वाण का शब्दार्थ है-बुझ जाना, दीपक या अग्नि का बुझ जाना। यह जीवन क्या है? जलता हुआ दीपक अग्नि ही तो है। जब तक हम जीवित हैं तब तक हम जल रहे हैं। या जलना कोई सुखद चीज नहीं है। इस जलने से हम मुक्ति चाहते हैं— हमेशा के लिए मुक्ति चाहते हैं। यह मुक्ति तभी संभव है जब हम जन्म-मरण के चक्र से हमेशा के लिए मुक्त हो जाएँ। जन्म-मरण के चक्र से हमेशा के लिए मुक्ति सबसे बड़ा सुख होगा। इसीलिए 'मिलिंदपल्ह' में कहा गया कि 'एकंत सुखं निब्वानं'। यह 'निर्वाण' बौद्धों से प्रारंभ होकर नाथों और सिद्धों से होता हुआ संतों तक पहुँचा और उनका परम लक्ष्य बन गया।
इस निर्वाण को प्राप्त करना आसान नहीं है; क्योंकि जन्म-मरण के चक्र से छूटना आसान नहीं है। हम इस संसार में जन्म लेते हैं और इसी में आसक्त होकर कर्मरत हो जाते हैं। कुछ कम हम इसी जन्म में भोग लेते हैं; कुछ कर्म अभोगे रह जाते हैं। इन अभोगे या संचित कर्मों को भोगने के लिए हमें बार-बार जन्म लेना पड़ता है। बार-बार जन्म लेकर इस संसार में आना और कर्मलिप्त होना ही तो माया है। इस माया से छूट पाना आसान नहीं है। मलूकदास इसे जानते हैं
हरि की माया जग ठगै, ब्रह्मा विष्णु महेश सो अजीत प्रभु आपकी, धरो मोहिनी रूप ॥
(वही, पृष्ठ ३७)
माया का एक रूप नहीं है। वह अनेक रूप धारण करके जीव को ठगती है। कहीं यह कनक का रूप धारण करती है, कहीं कामिनी का। जितने कर्मकांड हैं; तीर्थ, व्रत, तर्पण, वेश आदि हैं, सब माया के रूप हैं। इसीलिए मलूकदास ने अन्य संतों की तरह इन सबकी आलोचना की है और इनसे बचे रहने का उपदेश दिया है
एक कनक अरु कामिनी, ए दोऊ बटमार। मीठी छूरी लाइ के, मारा सब संसार ॥
(वही, पृष्ठ ३२)
संध्या तरपन सब तजे, तीरथ कबहुँ न जाउँ । हरि हीरा हृदय बसै, ताहि पैठि अन्हवाउँ॥
(वही, पृष्ठ ३५)
वेद, पुरान, सासतर, पूजा क्रिया अचार । एक पुरुष के आसरे, तजिए सब बेवहार ॥
(वही, पृष्ठ ३५)
मलूकदास की जिस साखी को हमने इस लेख के प्रारंभ में ही उद्धृत किया है और जिसे बलदेव वंशी ने उनकी नहीं माना है, तत्त्वतः कर्महीनता की घोषणा है, 'आलस्य की पराकाष्ठा' की नहीं। लेकिन क्या शरीर धारण करके शत-प्रतिशत कर्महीनता की स्थिति पाई जा सकती है? नहीं न! तब? तब एक रास्ता वह है जो मनुष्येतर जीव-जंतु अपनाते हैं अर्थात् अपने को अनिवार्यताओं तक सीमित रखना न कंचन के संचय में पड़ना, न कामिनी के चक्कर में पड़कर घर-गृहस्थी बसाना"
चार पहर दिन होत रसोई, तनिक न निकसत टूक । कह मलूक ता मंदिर में, सदा रहत हैं भूत ॥
(वही, पृष्ठ ३५)
माया मगन महंत के, तुम मत बैठो पास। कौड़ी कारन लड़ि मरे, कथनी कथै पचास ॥
(वही, पृष्ठ ३५)
माया के इन विभिन्न रूपों से मुक्त होने का एक रास्ता है। कर्महीन होना। मलूकदास की जिस साखी को हमने इस लेख के प्रारंभ में ही उद्धृत किया है और जिसे बलदेव वंशी ने उनकी नहीं माना है, तत्त्वतः कर्महीनता की घोषणा है, 'आलस्य की पराकाष्ठा' की नहीं। लेकिन क्या शरीर धारण करके शत-प्रतिशत कर्महीनता की स्थिति पाई जा सकती है? नहीं न! तब ? तब एक रास्ता वह है जो मनुष्येतर जीव जंतु अपनाते हैं अर्थात् अपने को अनिवार्यताओं तक सीमित रखना – न कंचन के संचय में पड़ना, न कामिनी के चक्कर में पड़कर घर-गृहस्थी बसाना और काम, क्रोध, मद, लोभ एवं मोह को तृप्त करने के लिए तरह-तरह के कर्मकांडों में लिप्त होना
क्रोध तो काला साँप है, काम तो परगट काल ।
आपु आपु को ऐंचते, करि डाला बेहाल ॥ (संत मलूक ग्रंथावली, पृष्ठ ३१)
इस सोच के आते ही जीवमात्र की एकता समझ में आने लगती है
पीर सभन की एक सी, मूरख जानत नाहिं । काँटा चूभे पीर होय, गला काट कोठ खाय ॥
(वही, पृष्ठ ३६)
अहिंसा का, जीव दया का दर्शन इसी में से निकलता है। इसी में से निकलती है सहज रहनी और निष्काम कर्मण्यता। कबीरदास ने सहज का जो दर्शन दिया है, वह इसी का वह रूप है जिसे हर कोई साध सकता है, लेकिन सांसारिक माया मोह में पड़कर साध नहीं पाता है। इसलिए सहजता की बात तो सब करते हैं, लेकिन उसे पहचानता कोई विरला ही है। इस सहजता का निर्वाह ऊपर से जितना आसान दिखता है उतना आसान है नहीं
सहज सहज सबका कहै, सहज न चीन्हें कोई। जिन्ह सहजैं विषिया तजी, सहज कहीजै सोइ ॥ सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हें कोई। पाँचू राखै परसती, सहज कहीजै सोई॥ सहजैं सहजैं सब गए. सुत वित कांमणि काम। एकमेक है मिलि रह्या, दासि कबीरा राम ॥ (कबीर ग्रंथावली - सं. श्यामसुंदर दास, छठा सं., पृष्ठ ४१-४२)
लेकिन सहजता कर्महीनता नहीं है। कर्मों में निर्लिप्तता है, निष्काम कर्मण्यता है— फल की आकांक्षा न रखकर निष्काम भाव से कर्म करते रहना। 'गीता' में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से यही तो कहा था
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, २/४७)
सारे संतों का यही आदर्श था। मलूकदास का भी। इसीलिए उन्होंने कहा था कि मुख्य चीज कार्य नहीं है; मुख्य चीज है कारण
कारन में कारज नहीं, कारन कारज माहिं। स्थित घट में मृत्तिका, मृत्तिका में घट नाहिं ॥
(संत मलूक ग्रंथावली, पृष्ठ ३९)
कार्य के कारण का प्रश्न नया नहीं है। हम जो कार्य करते हैं, उसकी प्रेरणा क्या है, उसका लक्ष्य क्या है, इससे कार्य की सदतासदता, वांछनीयता-अवांछनीयता तय होती है। याज्ञवल्क्य ने जब संन्यास लेने का निश्चय किया तो मैत्रेयी से अनुमति माँगी और कहा कि “मैं कात्यायनी के साथ तेरा बँटवारा कर दूँ।" (याज्ञवल्क्य के दो पत्नियाँ थीं-मैत्रेयी और कात्यायनी) इस पर मैत्रेयी ने कहा, "यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् स्यां न्वहं तेनामृताऽहं।" (यदि यह धन से संपन्न सारी पृथिवी मेरी हो जाए तो क्या मैं अमर हो सकती हूँ?)
याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया, "अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति।" (धन से अमृतत्व की आशा नहीं है।) इससे भोग-सामग्री जुटाई जा सकती है और धन-संपन्न मनुष्यों की तरह सामान्य जीवन जिया जा सकता है। इस पर मैत्रेयी ने कहा, "येनाहं मामृता स्यां किमहं तेन कुर्यां।" (जिससे मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर मैं क्या करूंगी ?) (बृहदारण्यकोपनिषद्, ४/५/१-४)
मैत्रेयी ने धन की, भौतिक संसाधनों की व्यर्थता आध्यात्मिक दृष्टि से सिद्ध की है। शुद्ध सांसारिक दृष्टि से भी उनकी सार्थकता सीमित है। प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने उनकी सार्थकता की सीमितता को इस प्रकार रेखांकित किया है, "मनुष्य के धर्म-संकट और भौतिक संसार की सीमाओं को उदाहृत करने के लिए भारतीय धर्म-दर्शन में मैत्रेयी के वाग्मितापूर्ण प्रश्न को बार-बार उद्धृत किया गया है, लेकिन इस संवाद का एक और पक्ष है, जो एक तरह से वर्तमान संदर्भ में अधिक प्रासंगिक है। यह संदर्भ है आमदनी और हमारी उपलब्धि, धन से खरीदी जा सकनेवाली चीजों और यथार्थ में उन्हें भोगकर आनंद प्राप्त कर सकने की हमारी क्षमता, हमारी आर्थिक संपन्नता और मनचाहा जीवन जी सकने की हमारी क्षमता के बीच का संबंध और असंबंध।" (दि आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन, प्रथम सं. २००५, पृष्ठ ८) भूमंडलीकरण, बाजारवाद और उपभोगवाद की अंधी दौड़ में क्या किसी का ध्यान इस तरफ है? मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएँ तो सीमित हैं। उनकी पूर्ति हो जाए तो बाकी सुख और आनंद तो हमारी मनोदशा पर निर्भर करता है; लेकिन सामान्य आदमी का मन उसके वश में कहाँ होता है; सामान्य आदमी ही अपने मन के वश में होता है। इसलिए मन को वश में करना महत्त्वपूर्ण है। मलूकदास ने इसे पहचाना था
भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आवै हाथ.
दिल फकीर जे हो रहे, साहब तिनके साथ ॥ मैं जाना मन मरि गया, तन करि डारा खेह इस मन की परतीत क्या, मारे अनेक विदेह ।। मन ही के संकल्प ते, भयो जो तन अभिमान । सो छूटै जब कीजिए, ब्रह्म नदी असनान ॥ हरि प्रसाद से पाइए, अस्थित पद निर्वान । कह मलूक मन के मुए, होय न आवाजान ।।
(संत मलूक ग्रंथावली, पृष्ठ ३८)
इसलिए असली चीज है मन को मारना, मन को वश में करना। लेकिन मन को वश में करना आसान नहीं है। वह बड़ा चंचल है। उसे स्थिर करने के लिए आवश्यक है उसे किसी महत् के साथ जोड़ दो। संतों ने ब्रह्म नदी में स्नान कर मन को जीत लिया।
संतों का यह महत् वह परमसत्ता है जिसे उन्होंने विभिन्न नामों से द्योतित किया है। मलूकदास भी इसके अपवाद नहीं हैं। उन्होंने इस महत् को जिन नामों से पुकारा है वे हैं-ब्रह्म, हरि, मुरारि, बृजराज, रघुपति, राम, अलख निरंजन, पुरुष, गोविंद आदि। स्पष्ट है कि मलूकदास अन्य संतों की तरह नाम जिसका लें, लेकिन वे जिस परमसत्ता से मन को जोड़ते हैं वह निर्गुण, निराकार, अलक्ष्य और निरंजन है। इस विषय में उनमें कोई सांप्रदायिक कट्टरता नहीं है। वे शास्त्र से नहीं, लोक से जुड़े हैं। इसीलिए वे गज-ग्राह जैसे पौराणिक प्रसंगों का भी उपयोग करते हैं। इसके बावजूद न उनकी कर्मकांड में आस्था है, न देवी देवताओं में; क्योंकि वे यह मानते हुए भी कि -
कुंजर चींटी पशु नर, सब में साहेब एक। न जाने कौन घरी, करै सूरमा लेख ॥ (वही, पृष्ठ ३६)
यह भी कहते हैं कि
किरतिम देव न पूजिए, ठेस लगे फुटि जाय। कह मलूक सुभ आत्मा, चारों जुग ठहराय ॥ (वही, पृष्ठ ३६)
देवल पूजे कि देवता, कि पूजे पहाड़। पूजन कौ जाँता भला, पीस खाय संसार ॥ (वही, पृष्ठ ३७)
दरअसल मलूकदास अजर-अमर प्रभु को पाना चाहते हैं। वे हरि दर्शन करना चाहते हैं; वे निर्वाण प्राप्त करना चाहते हैं। उन्हें संसार की वास्तविकता मालूम है कि यह संसार तो सराय है और शरीर नश्वर है
उतरे आय सराय में जाना है बड़ कोह। अटका आकिल प्रेम बस, ली भठियारी मोह ॥ गर्व भुलाने देह के रचि रचि बाँधे पाग। सो देही नित देखि के, चोंच सँवारे काग ॥ जागो रे जागो भैया, सिर पर जम की धार। ना जाने कौन घरी, कहि लै जइहै मार ॥ (वही, पृष्ठ ३६)
इसलिए इस सांसारिक जीवन से मुक्त होना श्रेयस्कर है। इसका एक रास्ता कर्मों से निर्लिप्त रहता है। कर्मों से निर्लिप्त रहने के लिए और मन को एकाग्र करने के लिए हरि का ध्यान धरना, उसके नाम का स्मरण करना, उस परम प्रभु की शरण में जाना, संतों की सेवा करना, साक्षी भाव से जीना, दुःखियों की सेवा करना, जीवमात्र की एकता में विश्वास रखना, अमृत वचन बोलना, विनम्रता से व्यवहार करना, हृदय में दया भाव रखना, किसी से कुछ माँगना नहीं, सांसारिक रिश्तों और जाति-पाँतिगत भेदों से बचना आदि विविध उपाय हैं। (वही, पृष्ठ ३१ ४२) इनमें से कुछ का संबंध अध्यात्म से है; कुछ का मानव मनोविज्ञान से है; कुछ का सामाजिक-आर्थिक आचरण से है और कुछ का नैतिकता से है। मलूकदास जीवन के इन विभिन्न क्षेत्रों के श्रेष्ठ मूल्यों से अपने को जोड़ते हैं। लेकिन इन सबसे भी बड़ी चीज है-भक्ति। सांसारिक व्याधियों से वही मुक्ति दिला सकती है
कहत मलूक सपूत सो, जो भगति करै चित लाइ। जरा मरन ते बचि परै, अजर अमर होइ जाइ | (वही, पृष्ठ ३२)
भक्ति में भी मलूकदास प्रेमा-भक्ति के पक्षधर हैं। उन्होंने बार बार प्रेम और प्रेमा भक्ति के प्रति अपनी पक्षधरता व्यक्त की है
सांसारिक बौद्धिक दृष्टि से इस उपलब्धि पर अविश्वास हो सकता है, लेकिन आध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। जिसने 'विश्राम' पा लिया हो, जिसे किसी प्रकार के कर्मकांड की आवश्यकता नहीं रह गई हो; जो सांसारिक प्रपंचों और जीवन के षटरागों से ऊपर उठ गया हो, यदि वह अपनी तुलना सभ्यता-संस्कृति की जटिलताओं से मुक्त जीवों से करे और राम को सबका दाता माने तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है।
प्रेम भगति जाके घट, पूरन ग्यानी सोइ । कह मलूक जल तरंग ज्यों, कहत सुनत में दोइ॥
प्रेम परम पद पाइए, प्रेम उतारै पार। प्रेम भगति की महिमा, श्रीमुख कही मुरारि ॥
षट दरसन दरवेस पुनि, संन्यासी भगवान् । प्रेम बिना पहुँचै नहीं, दुर्लभ पद निर्वान ॥ (वही, पृष्ठ ३४)
मलूकदास का तो यह भी कहना है कि उन्होंने 'विश्राम' पा लिया
माला जप न कर जपौं, जिभ्या कहौं न राम। सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पायो विश्राम ॥ (वही, पृष्ठ ४१)
सांसारिक बौद्धिक दृष्टि से इस उपलब्धि पर अविश्वास हो सकता है, लेकिन आध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। जिसने 'विश्राम' पा लिया हो, जिसे किसी प्रकार के कर्मकांड की आवश्यकता नहीं रह गई हो; जो सांसारिक प्रपंचों और जीवन के षटरागों से ऊपर उठ गया हो, यदि वह अपनी तुलना सभ्यता-संस्कृति की जटिलताओं से मुक्त जीवों से करें और राम को सबका दाता माने तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है।
सचमुच मलूकदास सच्चे, सिद्ध और मुक्त संत थे- जीवन और जगत् से उपराम।